कार्तिक मास और दीपावली
डॉ. पूर्वा शर्मा
सजाता चला
त्यौहारों की लड़ियाँ
बारहमासा।
भारत त्यौहारों का देश है। भारतीय परंपरा-संस्कृति में तीज-त्यौहारों
का विशेष स्थान है। हर दूसरे-चौथे दिन यहाँ कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। गली-गली
में त्यौहारों की रौनक देखी जा सकती है। त्यौहारों का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व
है। इसके बिना हमारे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, इसके बिना जीवन बेरंग एवं बेस्वाद
हो जाएगा। भारत में बारह मास और छ ऋतुएँ और मानी गई है। यूँ तो प्रत्येक मास एवं
ऋतु का अपना अलग ही महत्त्व है लेकिन ‘स्कंदपुराण’ के अनुसार कार्तिक
मास को श्रेष्ठ एवं दुर्लभ माना गया है –
मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन।
तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।।
(स्कंदपुराण, वै. खं. कां. मा. 1/14)
प्रत्येक मास-ऋतु कोई न कोई त्यौहार-उत्सव की सौगात ले ही
आती है। कार्तिक के पावन मास में शरद पूर्णिमा से लेकर देवउठनी एकादशी तक अनेक व्रत-त्यौहार
मनाए जाते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार दीपावली है।
कार्तिक में मनाए जाने वाले कुछ विशेष पर्व-त्यौहार इस
प्रकार है –
जब पूर्णिमा का चाँद अपनी दूधिया रोशनी से शरद ऋतु के सौन्दर्य में वृद्धि
करता है, तभी से कार्तिक का आरंभ होता है। पौराणिक मान्यता है कि ‘शरद पूर्णिमा’ के
दिन मनोहारी कृष्ण भगवान ने अपने स्वरूप को विस्तृत करके गोकुल की गोपियों के संग रास
लीला रचाई थी। इस कारण से इसे ‘रास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। तब से इस दिन
का विशेष महत्त्व है।
शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट अर्थात्
कोजागर पर्वत के निकट आता है और वह आकार में बड़ा दिखाई देता है। अतः इसे ‘कोजागरी
पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि उस दिन चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं के
साथ प्रकाशित होता है। उस दिन दूध का नैवेद्य चंद्रमा को अर्पण किया जाता है, यह
आरोग्य दायी माना जाता है। फिर इस नैवेद्य को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। इस
दिन के उत्सव को ‘कौमुदी महोत्सव’ भी कहा जाता है।
करवा चौथ
इस दिन सुहागन स्त्रियाँ अपने सुहाग की लम्बी उम्र के लिए दिनभर निर्जल व्रत
रखती हैं और रात को चंद्रमा को अरघ देकर ही भोजन करती हैं। यह त्यौहार भारत के
अनेक राज्यों में मनाया जाता है।
श्याम कुंड एवं राधा कुंड का प्राकट्य अथवा बहुला अष्टमी
श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं में से एक है अरिष्टासुर का वध।
पौराणिक कथा के अनुसार जब कान्हा ने गाय
के बछड़े के रूप में प्रकट हुए अरिष्टासुर का वध किया तो गौवंश हत्या के पाप का प्रायश्चित
करने के लिए राधा रानी और गोपियों ने उन्हें तीर्थों में स्नान करने को कहा। लीलाधर
कृष्ण ने अपनी एड़ी से एक गड्ढा खोदा और उस कुंड में सभी तीर्थों को निवास के लिए
आह्वान किया, फिर उसमें स्नान किया। राधा रानी एवं गोपियों ने भी ठीक उसके बगल में
अपने कंगन से एक दूसरा कुंड खोदा और उसमें स्नान किया। श्रीकृष्ण एवं राधा जी द्वारा
खोदे गए कुंड क्रमशः ‘श्याम कुंड’ एवं ‘राधा कुंड’ कहालाए । इस दिन
को बहुला अष्टमी के नाम से भी जाना
जाता है।
इस दिन विष्णु के विशेष अवतार, आयुर्वेद के जन्मदाता और देवताओं के चिकित्सक धनवंतरी
भगवान का अवतरण हुआ। समुद्र मंथन के
समय धनवंतरी भगवान अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए इस दिन इनकी पूजा की जाती है।
धनतेरस के दिन से ही पाँच दिवसीय दीपावली पर्व का आरंभ माना जाता है।
श्रीकृष्ण की
लीलाओं में कई असुरों के वध का वर्णन मिलता है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि कार्तिक की
चतुर्दशी के दिन भगवान कृष्ण ने अपने ही पुत्र नरकासुर का वध अपनी पत्नी सत्यभामा
की सहायता से किया। उसके पश्चात् उन्होंने तेल और उबटन से स्नान किया था। इसलिए
माना जाता है इस दिन इस तरह से स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग तथा
सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।
एक अन्य कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि उस दिन माँ काली
ने असुरों का संहार किया था। इसलिए उस दिन माँ काली की आराधना का विशेष महत्त्व
माना जाता है। ‘काली चौदस’ को ‘भूत पूजा’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पूजा
अधिकतर पश्चिमी राज्यों विशेषकर गुजरात में देखी जाती है।
भारत के प्रमुख त्यौहारों में दीपावली का विशेष स्थान है। कार्तिक की अमावस्या को
मनाया जाने वाला यह त्यौहार भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। धनतेरस
से लेकर भाई-दूज तक यानी पाँच दिनों तक यह मनाया जाता है।
दीपावली उत्सव को लेकर चार-पाँच कथाएँ प्रचलित है।
पहली कथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् अयोध्या लौटने को लेकर है जो सबसे ज्यादा प्रचलित है। यह सर्वविदित है कि रावण का वध करने के बीस दिन पश्चात् उस दिन श्री राम अपनी पत्नी जानकी और भाई लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या लौटे। उस दिन नगर वासियों ने घी के दीये जलाकर करके उनका भव्य स्वागत किया। दीपों की माला से संपूर्ण अयोध्या नगरी जगमगा उठी थी। असत्य पर सत्य की विजय को प्रदर्शित करने वाला यह पर्व ‘दीपोत्सव’, ‘ज्योति पर्व’ अथवा ‘प्रकाश पर्व’ भी कहलाता है।
श्रीकृष्ण की लीलाओं की महिमा अपरंपार है। उनके द्वारा की गई अनेक लीलाओं में
से एक ‘दामोदर लीला’ है। जो कार्तिक की अमावस्या के दिन ही हुई थी। इस लीला के
अनुसार कान्हा क्रोध में आकर माँ यशोदा के द्वारा संभाल कर रखी गई दूध और माखन की
हांडियों को तोड़ देते हैं और स्वयं ने तो माखन खाया ही है साथ में वानरों को भी खिलाया।
मैया यशोदा कान्हा को दण्डित करने के लिए उन्हें ओखल से बाँध देती हैं। चूँकि इस लीला
में कान्हा के उदर पर रस्सी बाँधी गई इसलिए इसका नाम ‘दामोदर लीला’ पड़ा। इसी कारण कार्तिक
मास को ‘दामोदर मास’ भी कहा जाता है।
इसका संबंध जैन धर्म के महावीर स्वामी से है। जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ही महवीर स्वामी ने सांसारिक जीवन से मुक्ति पाकर मोक्ष
प्राप्त किया था। उस समय इंद्र आदि देवताओं ने महावीर स्वामी के शरीर की पूजा की
एवं उनकी पावानगरी को दीपमालाओं से प्रकाशवान किया। तभी से इस दिन को जैन समाज में
महावीर स्वामी के ‘निर्वाणोत्सव’ के रूप
में मनाया जाता है। उसी दिन गौतम स्वामी को कवैल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और
देवताओं ने गंधकुटी की रचना की थी। इस दिन जैन लोग संध्या के समय दीप जलाकर गणेश
एवं लक्ष्मी की पूजा करने के साथ-साथ नये बही खातों का मुहूर्त भी करते हैं।
इन सभी प्रचलित कथाओं के अतिरक्त एक कथा के अनुसार ऐसा भी
माना जाता है कि लक्ष्मी जी ने दीपावली की रात को विष्णु भगवान को अपने पति के रूप
में चुना और उनसे विवाह किया। इस सन्दर्भ में कथाएँ चाहे कितनी भी हो लेकिन सबका एक
ही निचोड़ है कि यह दिन हर्षोंल्लास का है, यह पर्व अंधकार से प्रकाश की ओर जाना का
संदेश देता है।
दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। कहा जाता है
कि इंद्र ने क्रोध में आकर मूसलाधार वर्षा की जिसके कारण पूरे ब्रज में बाढ़ आ गई, उस
समय पाँच वर्ष के कान्हा ने सात दिन और सात रात तक गोवर्धन पर्वत को अपने कनिष्ठिका
पर उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की थी। तभी से गोवर्धन पूजा की जाती है और भगवान
कृष्ण को अन्नकूट का भोग अर्पित किया जाता है।
दीपावली के अगले यानी गोवर्धन पूजा वाले दिन ही कार्तिक की प्रतिप्रदा को गुजरात
राज्य में नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लक्ष्मी पूजन करके पुराने खाता-बही को
बंद करके नये खाते का आरंभ किया जाता है। इसे ‘चौपड़ा पूजन’ भी कहा जाता है।
यह त्यौहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। दीपावली
के दो दिन बाद आने वाला यह त्यौहार भाई-बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है। एक
प्रचलित कथा के अनुसार इस दिन यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर भोजन कराया था, तभी
से भाई-दूज का यह त्यौहार मनाया जाता है लेकिन इस भैया दूज का वर्णन शास्त्रों में
नहीं मिलता है। इसे ‘भ्रात द्वितीया’ अथवा ‘यम द्वितीया’ भी कहते
हैं। इसी दिन कायस्थ समाज के लोग अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की पूजा करते हैं ।
कार्तिक के शुक्ल पक्ष के पाँचवें
दिन (पंचमी) को लाभ पंचमी कहा जाता है। गुजरात में इसे ‘लाभ पंचम’ कहते हैं
। इस दिन लोग अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और दुकानों को खोलते है और नया बहीखाता
शुरू करते हैं। लाभ पंचमी के लिए ‘लखेनी पंचमी’,
‘ज्ञान पंचमी’ या ‘सौभाग्य पंचमी’ आदि नाम भी प्रचलित है।
सूर्य देव की उपासना का यह त्यौहार भारत के कई राज्यों विशेषतः बिहार,
झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं नेपाल आदि में मनाया जाता है। इस
पर्व को लेकर कई कथाएँ प्रचलित है। मान्यता है कि जब प्रथम देवासुर संग्राम में देवता
हार गए तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव
सूर्य मंदिर में छठ मैया की आराधना की और इसके बाद अदिति के पुत्र त्रिदेव रूप
आदित्य भगवान ने असुरों से लड़कर विजय प्राप्त की। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव एवं
छठ मैया का सम्बन्ध भाई-बहन का है और लोक मान्यता के अनुसार षष्ठी की पहली पूजा
सूर्य ने ही की थी।
एक अन्य कथा के अनुसार पांडवों के राजपाट हार जाने के बाद श्रीकृष्ण
द्वारा बताए जाने पर द्रौपदी ने भी छठ व्रत रखा। इस सन्दर्भ में एक और कथा प्रचलित
है जिसके अनुसार राजा प्रियवद ने पुत्र प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप से
पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया लेकिन उनकी पत्नी मालिनी को मृत पुत्र पैदा हुआ। उसके
पश्चात् सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न हुई षष्ठी कहलाने वाली ब्रह्माजी
की मानस कन्या देवसेना के व्रत-उपासना पूजा करने से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति
हुई।
ऐसा माना जाता है कि इस दिन से श्रीकृष्ण ने गौचारण का आरंभ किया था। इस दिन से
पहले कान्हा सिर्फ बछड़ों को चराया करते थे लेकिन कार्तिक की अष्टमी के दिन से ही कृष्ण
ने अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायों को चराने के लिए वन में जाना आरंभ किया। इसलिए
इसे गोपाष्टमी के नाम से जाना जाता है।
विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने शंखासुर
का वध करने के पश्चात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल
पक्ष की एकादशी तक क्षीर सागर में शेषनाग की शैया पर शयन किया। चार मास की योग
निद्रा त्यागने के बाद विष्णु जी इस दिन जगे थे। इसलिए इसका नाम देवउठनी एकादशी
पड़ा।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवउठनी एकादशी के दिन ही तुलसी और
शालिग्राम का विवाह संपन्न हुआ था। मान्यता है कि जब जलंधर नामक पराक्रमी असुर ने स्वर्ग
पर आक्रमण कर स्वर्ग को अपने अधिकार में ले लिया तब विष्णु भगवान ने अपनी माया से जलंधर
का रूप लेकर जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। जिसके कारण जलंधर की शक्ति
क्षीण हुई और वह युद्ध में मारा गया। वृंदा को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने भगवान
विष्णु को पाषाण होने का शाप दिया और विष्णु शालिग्राम बन गए। देवताओं की
प्रार्थना से वृंदा ने अपना शाप वापस लिया और वह जलंधर के साथ सती हो गई। उसकी राख
से एक पौधा निकला जिसे तुलसी का नाम दिया गया। देवताओं ने वृंदा की मर्यादा और
पवित्रता को बनाए रखने के लिए भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी के
साथ संपन्न कराया। तब से ही कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधनी एकादशी के
दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कराने की प्रथा चली आ रही है।
हम देख सकते हैं कि संपूर्ण कार्तिक
मास में अनेक व्रत-त्यौहार मनाए जाते हैं लेकिन दीपावली का पौराणिक-सामाजिक-आर्थिक
हर दृष्टि से विशेष महत्त्व है। दीपावली एक ऐसा उत्सव एक ऐसा त्यौहार है जिसकी
प्रतीक्षा संपूर्ण वर्षभर सभी भारतवासियों को रहती है। यह त्यौहार प्रकाश का उत्सव
है, आनंद-उल्लास का पर्व है। बाज़ारों की रौनक एवं जन-जन के चहेरे की ख़ुशी दीपावली उत्सव की सूचना दे देती है।
हम जानते हैं कि दीपावली का दिन कार्तिक
की अमावस का दिन होता है। यह एक ऐसा दिन है जिस दिन आकाश में चंद्रमा नहीं होता
लेकिन अनगिनत तारे और धरती पर प्रज्वलित असंख्य दीप मिलकर संपूर्ण धरा को इतना
प्रकाशवान कर देते हैं कि उसकी दीप्ति से अंधकार का नामो-निशान मिट जाता है। यह
पर्व हमें यही संदेश देता है कि इस संसार से यदि अंधकार को दूर भगाना है तो हमें
सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, धर्म, दया, कर्तव्यनिष्ठा,
परोपकार, सज्जनता, मानवता आदि रूपी अनेक दीयों को अपने जीवन में प्रज्वलित करना
होगा, तभी असल में हम दीपावली के इस पावन
त्यौहार को सही मायने में मना सकेंगे। हमारी संस्कृति हमें दीये की लौ की भाँति
ऊपर उठने का संदेश देती है। यदि हम स्वयं को मिट्टी का दीपक समझ लें तो उसकी
ज्योति को हमारी आत्मा तो यह ज्योति हमें उर्ध्वगामी होने का संदेश देती है। यदि जीवन में यह
उर्ध्वगमन बंद हो जाए तो यह जीवन, जीवन नहीं रह जाएगा। ऋग्वेद के सूत्र – ‘ॐ असतो
मा सद्गमय।/ तमसो मा ज्योतिर्गम।/ मृत्योर्मा अमृतं गमय।’ का पालन करते प्रत्येक
वर्ष हम दीपावली उत्सव को इसी उत्साह के साथ
मनाते रहे ऐसी कामना ..... अस्तु !
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
धन्यवाद पूर्वा.. आपके द्वारा दी गई जानकारी बहुत रोचक और ज्ञानवृहद है... दीपावली के कुछ दिन पहले के और कुछ दिन बाद तक के त्योहारों के बारे में पूर्ण जानकारी पाकर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंबारह माहों का राजा होता है कार्तिक माह । सबसे अधिक त्यौहार और उत्सवों का महीना होता है यह । व्यवसाय की दृष्टि से भी सबसे अधिक कमाई देने वाला और हम सबके लिए सबसे अधिक राशि खर्च करने वाला महीना होता है । कार्तिक मास याने प्रफुल्लित मास । बहुत अच्छा लेख,प्रत्येक दिन की जानकारी के साथ,बधाई और आशीर्वाद पूर्वा ।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक एवं रोचक जानकारी देता उपयोगी आलेख। हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण कार्तिक मास के व्रत-पर्वो की साँस्कृतिक एवं पौराणिक दृष्टि से जानकारी देता सुंदर ,ज्ञानवर्धक आलेख।बधाई डॉ. पूर्वा जी।
जवाब देंहटाएंकार्तिक मास के व्रतोत्सवों की सम्यक जानकारी प्रदान करता सुन्दर, रोचक आलेख। बहुत बधाई पूर्वा जी।
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