यह
जो ज़्यादा है!
आशीष
दशोत्तर
कभी
सोचा है!
कहाँ
से आ रहा है वह सबकुछ
जो
कुछ ज़्यादा है?
जो
इतना होने से कुछ कम होना चाहिए
जिसके
इतना होने की संभावनाएँ भी नहीं हैं।
जितनी
तनख्वाह नहीं है
उससे
ज़्यादा है आय,
जितनी
आय नहीं
उससे
ज़्यादा है खर्च ,
जितना
खर्च नहीं
उससे
ज़्यादा है ज़रूरतें
जितनी
ज़रूरतें हैं
उससे
कहीं ज्यादा हैं ख़्वाहिशें ।
जितना
पशुधन नहीं
उससे
ज़्यादा दूध आ रहा है बाज़ार में,
जितना
दूध आ रहा है
उससे
अधिक पनीर और घी बिक रहा है।
जितने
खेत नहीं
उससे
ज़्यादा उग रहा है गेहूँ,
जितना
गेहूँ नहीं आ रहा
उससे
कहीं ज़्यादा बेचा जा रहा है आटा।
तेल,
मिर्च, दाल , सब्ज़ी ही
नहीं
सब
कुछ बहुत ज़्यादा है ,
यह
ज़्यादा आख़िर कैसे हैं ?
जबकि
इधर
जितना
ज़्यादा होना चाहिए प्रेम
वह
बहुत कम पाया जा रहा है ।
जितनी
ज़्यादा होनी चाहिए
रिश्तों
की समझ
वह
बहुत कम नज़र आ रही है।
जितने
ज़्यादा होने चाहिए
घर
में इंसान
वे
कम हो रहे हैं।
जितना
ज़्यादा होना चाहिए
चेहरे
पर नमक और किरदार में चमक
वह
उतना ही कमतर दिखाई दे रहा है।
जितना
कम होना चाहिए मन का मैल
वह
होता जा रहा है उतना ही ज़्यादा।
इस
कुछ ज़्यादा होते जा रहे
और
कुछ कम होते जा रहे के बीच
इंसान
कितना कम या ज़्यादा हो रहा है
यह
भी सोचें।
आशीष
दशोत्तर
12/2,
कोमल नगर
रतलाम
-457001(म.प्र.)


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