भाषा का महत्त्व और हिन्दी
डॉ. राजकुमार शांडिल्य
भाषा ज्ञान का प्रमुख
साधन है यदि भाषा की ज्योति से यह संसार आलोकित न होता तो मानव संसार पशु पक्षियों
तथा गूंगों का संसार होता और उनकी सभ्यता पशुओं
की सभ्यता से भिन्न न होती।
ईश्वर ने मनुष्य को सभी
प्राणियों में उत्कृष्ट स्थान प्रदान करने के लिए वाणी का वरदान दिया है । यह वाणी
मनुष्य का बहुमूल्य आभूषण है, जिससे मनुष्य अपने
चारों तरफ अपनी आँखों के माध्यम से जो कुछ भी देखता है तथा कानों से जो कुछ भी सुनता
है उसे समझकर अपनी बुद्धि से चिन्तन करके स्पष्ट रूप से अपने भावों और विचारों को ध्वनियों
के माध्यम से व्यक्त करता है।
सभी प्राणी भय से बचने
के लिए और भूख, प्यास, कामेच्छा आदि प्राकृतिक
आवश्यकताओं की सूचना के लिए कुछ ध्वनियों का सहारा लेते हैं लेकिन ईश्वर ने मनुष्य
को उनसे भिन्न बनाया है वे स्पष्ट वाणी का प्रयोग करते हैं जिसको सभी एक जैसा समझते
हैं। यही स्पष्ट वाणी ही भाषा कहलाती है।
बच्चा अपनी माँ से स्वाभाविक
ही जो भाषा सीखता है वह मातृभाषा कहलाती है। यह माँ के दूध के साथ ही बच्चे को मिलती
है तथा उसके संवर्धन में सर्वाधिक सहायक होती है। बच्चा अत्यधिक प्रसन्नता,
दुःख आदि भावुक क्षणों में अपनी मातृभाषा के प्रयोग में सहज
रहता है यहाँ तक कि अर्धचेतन अवस्था में भी उसका सम्बोधन मातृभाषा में ही होता है।
बच्चे को मातृभाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान को ग्रहण करना सरल होता है। गणित,
विज्ञान, तकनीकी तथा अन्य विषयों को समझने के लिए भी किसी भाषा की आवश्यकता
होती है। हमें समाज में कहीं भी सम्पर्क के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भाषा के
बिना हमारा दैनिक व्यवहार संभव नहीं होता है। किसी भी देश अथवा समाज की भाषा से हम
उसकी मानसिक स्थिति तथा चिन्तन को समझ सकते हैं।
कर्कश वाणी के कारण कृष्ण
वर्ण कौआ किसी को भी अच्छा नहीं लगता लेकिन उसी वर्ण वाली कोयल अपनी मधुर ध्वनि से
सभी का मन मोह लेती है। भाषा ही मनुष्य के सम्मान अथवा अपमान का कारण बनती है। वाणी
में माधुर्य मनुष्य के व्यक्तित्व में निखार ला देता है जिससे मनुष्य अधिक सामाजिक
और लोकप्रिय होता है।
आजकल भौतिकता की अंधी
दौड़ में विज्ञान तथा तकनीकी विषयों को आर्थिक दृष्टि से लाभकारी माना जाता है इसलिए
समाज भाषाओं के महत्त्व को नहीं समझता है,
उनकी उपेक्षा करता है। विदेशी भाषा अंग्रेज़ी के प्रति तो समाज का मोह बना हुआ है लेकिन भारतीय
भाषाएँ उपेक्षा का शिकार हो रही हैं जो कि भविष्य में समाज के पतन का संकेत है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
ने निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, कहकर राष्ट्रभाषा हिन्दी को उन्नति का मूलमंत्र मानकर उसका गौरव
ही नहीं बढ़ाया बल्कि अपनी प्रतिभा का परिचय भी दिया है। राष्ट्रभाषा किसी भी राष्ट्र
का गौरव और जनता के हृदय की धड़कन होती है। भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी धर्म,
दर्शन, साहित्य, संस्कृति तथा विज्ञान सभी का भण्डार है। यह सरल तथा वैज्ञानिक
भाषा है। इसी भाषा ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बांधकर परतंत्रता की
बेड़ियों को तोड़ा, काश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी भारतवासियों को भ्रातृत्व का
सन्देश दिया। इसके पास विश्व की सर्वाधिक प्राचीन,
समृद्ध तथा वैज्ञानिक व्याकरण सम्मत भाषा संस्कृत का शब्दकोश
है। रूस, जर्मनी, इटली तथा फ्रांस में शिक्षा का माध्यम अपने देश की ही भाषा है अंग्रेजी नहीं। फिनलैंड
रुमानिया और हंगरी जैसे छोटे छोटे देश भी अपनी भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाकर आत्मसम्मान
से जीते हैं जबकि हम भारतीय हीनभावना से ग्रस्त तथा मानसिक रूप से परतंत्र हैं। हम
अंग्रेजी के मोह में पढ़कर बच्चे के शारीरिक तथा मानसिक विकास में बाधा डालते हैं।
बच्चे पहले विदेशी भाषा सीखने में सारी शक्ति लगाते हैं फिर ज्ञान विज्ञान से योग्यता
दिखाने में। आज विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में हिन्दी के
पठन-पाठन की व्यवस्था है। बहुत से देशों में हिन्दी जानने वालों की बड़ी संख्या है।
अंतर्राष्ट्रीय/ विश्व
हिन्दी सम्मेलनों की लोकप्रियता तथा सफलता से हिन्दी का सम्मान बढ़ा है।
भारत में शिक्षा का माध्यम
हिन्दी न होना भारतीयों के लिए शर्म की बात है। हम सभी का ऐसा प्रयास होना चाहिए कि विश्व आकाश पर हिन्दी का प्रचण्ड
सूर्य अपने आप से अन्य भाषाओं के मुकाबले अधिक देदीप्यमान हो।
हमारा कर्तव्य है कि भारतीय भाषाओं को सम्मान दें उन्हें समृद्ध बनाएँ तथा भावी पीढ़ी की उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। तभी भारतीय संस्कृति तथा धर्म का संरक्षण होगा। यदि धर्म संस्कृति पुष्पित पल्लवित होगी तभी मनुष्य का जीवन सुखी होगा।
डॉ. राजकुमार शांडिल्य
हिन्दी प्रवक्ता
शिक्षा विभाग, चंडीगढ़
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