खिले पलाश को देखते
हुए....
डॉ. पूर्वा
शर्मा
वसंत ऋतु के आगमन
के साथ ही प्रकृति अपना परिधान बदलने लगी। वासंती शोभा से सजी एक शांत भोर.... और
घर से निकलते ही कानों में गूँज उठा पक्षियों का कलरव। उस कलरव में एक ‘कुहक’ ने मेरा
पूरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया । इस काकली से लगा कि मतवाली कोयल यहीं-कहीं है।
नज़रें घुमायी तो पाया बौर से ढँका-लदा आम का वृक्ष और उसी की ओट में ही कहीं छुपी
बैठी सुरीली कोयल को ढूँढना थोड़ा मुश्किल लगा। थोड़ा आगे बढ़ते ही देखा कि सड़क की एक
तरफ पत्तियों रहित लेकिन लाल फूलों से लदा सेमल का वृक्ष खड़ा था जो बरबस मेरी नज़र और
मन को अपनी ओर खींच रहा था। ठीक उसी के सामने कतारबद्ध तीन-चार वृक्ष जिसके फूल
बेहद सुंदर.... चटक नारंगी-लाल रंग के, जिसे देखते ही मन में फूल खिलने लगे और मैं
वहीं खड़ी उसे एकटक देखने लगी।
फाग उत्सव की
जान है यह पलाश के फूल। जी हाँ! पलाश.... ढाक, टेसू, किंशुक, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, ब्रह्मवृक्ष और
न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है इसे । इस सुंदर नज़ारे को देखते ही समझ आया
कि क्यों पलाश को ‘जंगल की आग’ अथवा ‘अँगीठी’ कहा जाता है। जब इन तीन-चार पेड़ों के
फूलों को देखकर मेरा यह हाल है तो जरा सोचिए कि घने जंगल में दूर-दूर तक झुंड में खड़े
और खिले पलाश को देखकर जंगल में आग लगी हो ऐसा दृश्य प्रतीत होना तो स्वाभाविक ही
है।
इस पलाश को
देखकर मन में एक गाढ़ी अनुभूति के साथ कुछ विचार बिन्दु भी उठने लगे। अनेक
साहित्यकारों ने यूँ ही नहीं पलाश को लेकर इतना कुछ रच दिया है, यह है ही इतना
मनोहर-इतना आकर्षक कि कवि हृदय बहुत ही सहज-स्वाभाविक रूप से उसका कायल हो जाता है।
कालिदास ‘रघुवंश’ में कहते हैं –
“पलाशपुष्पस्य
शरत्किरणविषि स्निग्धा लतासक्तैः।
युवावृत्तान्तैः
करुणा वचनं व्यसनसुखान्वेषिण्यः।। ”
कालिदास की
दृष्टि ने पलाश की इस शृंगारी वृत्ति को भली-भाँति परख लिया। और हाँ! फाग-मदनोत्सव
में कृष्ण-राधा द्वारा इन फूलों की होली खेलने के प्रसंग से कोई भला कैसे अपरिचित हो
सकता है। सौन्दर्य से भरपूर पलाश को हमारी भारतीय संस्कृति में उत्साह, जीवन में नयापन
एवं ऊर्जा के संचार के रूप में देखा गया है।
पलाश के फूलों
के साथ इसके पत्तों को देखकर ‘ढाक के तीन पात’ मुहावरा याद आ गया। कितना सार्थक
मुहावरा बनाया है हमारे लोकानुभव ज्ञान ने। सच में मुझे एक साथ तीन पत्ते ही दिखाई
दे रहे थे। मैं सोचने लगी कि एक पेड़ से किसी भाषा का संबंध क्या ऐसे-इस तरह से भी जुड़
सकता है ? इसी संदर्भ में एक बात और याद आई कि इसकी बड़े आकार की पत्तियों को कई
स्थानों पर खाना परोसने के उपयोग में भी लिया जाता है। विश्वास नहीं हो रहा कि यह पत्ते
हमारी भाषा से लेकर हमारे खाने तक जुड़े हैं। मेरे मन ने एक पल के लिए कहा.... जरा
ठहरो ! हमारे इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण युद्ध – ‘प्लासी का युद्ध’ । यह नाम भी तो इसके फूलों के
पलाशी नाम से पड़ा है। यानी हमारे इतिहास में भी इसका योगदान है ! और यह सब सोचते
हुए मैं दंग रह गई! कि ये पलाश तो हर जगह बस चुका है-दखल दे चुका है।
लेकिन पलाश की महज
इतनी दखल नहीं है, हम जितना समझ रहे हैं वह उससे कहीं ज्यादा है। पलाश के फूल
दिखने में जितने सुंदर हैं उपयोग में उतने ही गुणों से भरपूर। इसका वैज्ञानिक नाम
‘Butea
monosperma’ (ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा) है। अनगिनत बीमारियों के इलाज
में इसका उपयोग किया जाता है। आयुर्वेद में पलाश के पाँचों अंगों यानी तना, जड़, फल, फूल और बीज से
दवाई बनाने के बारे में वर्णन मिलता है।
प्रत्येक
प्रदेश में पलाश को लेकर अलग-अलग मान्यताएँ हैं, जैसे तेलंगाना में शिवरात्रि के
दौरान इसके फूलों को शिव को अर्पित किया जाता है। मणिपुर के मेइति समाज में यदि
किसी मृत व्यक्ति का शरीर किसी कारण से प्राप्त नहीं होता, तब पलाश की एक
शाखा का अंतिम संस्कार उस मृत व्यक्ति की देह समझकर किया जाता है। पश्चिमी बंगाल के
क्षेत्र में इसे वसंत-होली का प्रतीक माना गया है। पलाश के पेड़ को पूर्वाफाल्गुनी
नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है। इतना ही नहीं यह उत्तर प्रदेश सरकार का राज्य
पुष्प भी है और राज्य पुष्प क्यों न हो! ऋतुराज वसंत के स्वागत में जो खिल उठता है!
इस अनूठे पेड़
और उसके बारे में सोचते हुए एक और बात मन में उठी कि इसका आध्यात्मिक महत्त्व? इस
प्रश्न के उत्तर के बारे में सोचते हुए मुझे बौद्ध धर्म का ख्याल आया। बुद्ध ने
पलाश को एक आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में देखा है। उन्होंने इसे अस्थायित्व, जागृति, नवीनीकरण और
उत्थान का प्रतीक माना है। बुद्ध ने इसे त्याग, वैराग्य और आध्यात्मिक मुक्ति की
खोज का मार्ग माना है। जबकि हिन्दू धर्म में इसे जीवन शक्ति और वसंत के आगमन का
प्रतीक माना है। हिन्दू धर्म के अनुसार पलाश के फूल प्रजनन-उर्वरता, सहनशक्ति और
जीवन देने वाली शक्ति के साथ शुभ शुरुआत एवं विजय का प्रतीक भी है।
पलाश की सुंदरता तथा उसके महत्त्व संबंधी विचारों में डूबी-खोयी कि इतने में एक गाड़ी के जोर से बजे हॉर्न ने मुझे मानो जगा दिया। आश्चर्य हुआ कि अरे! पलाश की इस दुनिया में सैर करते-करते मैं दूर तक पहुँच गई। खैर ! मुझे लगा कि बहुत देर हो चुकी है और अब मुझे यहाँ से अपने गंतव्य स्थान की ओर चलना चाहिए। उन पेड़ों और उस पर लदे फूलों को देखकर मेरा मन प्रसन्न हो उठा और एक मीठी मुस्कान के साथ मैं आगे बढ़ चली।
टेसू सुनाता
अनगिनत किस्से
चंद लम्हों में
!
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
वसन्त का मौसम और पलाश के गुणगान । वाह पलाश के बारें में सारी जानकारियां इस लेख के माध्यम से प्राप्त हो गई । मन - पलाश - पलाश हो गया । झाबुआ - आलीराजपुर क्षेत्र में पलाश के पत्तों से आटे के लोये लपेटकर उन्हें कण्डों में सेक कर "पानिया" नाम के स्वादिष्ट बाफले बनाये जाते है । अद्भुत वर्णन वाले लेख के लिए बधाई और आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंVery informative
जवाब देंहटाएंपलाश संबंधी रोचक जानकारी।बधाई हो इस ज्ञानवर्धन आलेख के लिए।
जवाब देंहटाएंललित निबंध की शैली में लिखा गया मोहक एवं ज्ञानवर्धक हाइबन, पढ़ते वक्त सारे बिम्ब साकार हो गए। बधाई स्वीकार करें डॉ. पूर्वा जी
जवाब देंहटाएंपलाश के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता मनमोहक हाइबन। सुदर्शन रत्नाकर
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