सोमवार, 31 मार्च 2025

आलेख


जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में स्त्री

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

 

1. जयशंकर प्रसाद : जीवन परिचय और साहित्यिक यात्रा  जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में काशी के एक संपन्न व्यवसायी परिवार में हुआ था। उनके पिता देवीप्रसाद जी तम्बाकू और इत्र का व्यापार करते थे। इसी कारण से काशी में इनका परिवार सुँघनी साहुके नाम से प्रसिद्ध था। प्रसाद जी के पिता साहित्य प्रेमी थे। इस कारण से, साहित्यिक वातावरण प्रसाद जी को अपने घर से ही प्राप्त हुआ। वैसे तो, प्रसाद जी को हिंदी नाटक साहित्य का जनकयानि पितामाना जाता हैलेकिन, हिंदी कहानी को उन्होंने एक नई पहचान प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। कहानी लेखक के रूप में प्रेमचंद तथा जयशंकर प्रसाद की कहानी लेखन में बहुत अंतर है। जहाँ प्रेमचंद जीवन के चारों ओर फैले यथार्थ को लेकर कहानी लिखते हैं वहीं प्रसाद जी की रचनाओं में भारत के अतीत का गौरव, भावुकता आदि दिखाई पड़ता है। जयशंकर प्रसाद की कहानियों की प्रमुख विशेषता रही- भारतीय संस्कृति को कहानियों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाने की कला। प्रसाद जी की मृत्यु सन् 1937 में हुई।

प्रसाद जी की रचनाओं को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है-

क) काव्य : काननकुसुम, आँसू, लहर,कामायनी आदि।

ख) नाटक : कल्याणी परिणय, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी

ग) चम्पू काव्य : उर्वशी, प्रेमराज्य

घ) कहानी संग्रह : छाया, प्रतिध्वनी, आकाशदीप, आँधी, इन्द्रजाल

ङ) उपन्यास : कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)

च) निबंध : काव्य और कला

         2. प्रसाद की रचनाओं में स्त्री  प्रसाद का रचना काल सन् 1906-1936 तक फैला हुआ है। ध्यान रखनेवाली बात यह है कि यह वह समय है जब भारतीय समाज पूर्णतया अंधविश्वास, रूढ़िवाद के चपेट में आ चुका था। इसका सीधा दुष्प्रभाव स्वाभाविक रूप में स्त्रियों के जीवन में पर रहा था। ब्रम्ह समाज, आर्य समाज , काँग्रेस आदि अपने तरीके से प्रयास कर रहे थे इन कुप्रथाओं से भारतीय समाज को मुक्त करने की इसी प्रयास में तत्कालीन साहित्यकार वर्ग भी जुड़ चुका था। इन्हीं साहित्यकारों  में से एक थे जयशंकर प्रसाद। जिन्होंने ममता नामक कहानी को रच दिया। इस कहानी की नायिका एक विधवा स्त्री है जो पग-पग पर लाचार है लेकिन उसमें आत्मसम्मान की कोई कमी नहीं है। धर्म को बचाने के लिए वह कहती है, ‘तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी यह अनर्थ है, अर्थ नहीं, लौटा दीजिए। पिताजी! हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे”?

   “हे भगवान! तब के लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिंदू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असंभव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं काँप रही हूँ- इसकी चमक आँखों को अंधा बना रही है1  

कहने को तो, ममता हिंदू समाज की वह विधवा स्त्री है जिसे समाज अभिशप्त और अपशकुनी के अलावा और कुछ नहीं मान सकता परंतु ममता के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने स्त्री की वीरांगना रूप को रेखांकित किया है। ममता, अगर अकेले ही  मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने क्षमता रख सकती है तो कोई भी स्त्री किसी भी प्रकार की परिस्थिति का सामना कर सकती है। साथ ही प्रसाद जी ने इस सत्य को भी प्रतिस्थापित किया है कि राष्ट्र प्रेम केवल पुरुष का ही अधिकार नहीं है स्त्री भी वीरांगना रूप धरकर धर्म, संस्कृति, सभ्यता की रक्षा करने में पूर्णतया सक्षम है।  व्यक्तिगत जीवन में भी वे स्त्रियों को सम्मान देने वाले व्यक्ति थे। पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने आँसू रचना को रच दिया था। उन्होंने दूसरी बार विवाह के बारे में सोचा भी नहीं था लेकिन अपनी भाभी के कहने पर ही उन्होंने फिर से  विवाह के लिए हाँ कहा था। उनकी दूसरी पत्नी केवल एक वर्ष ही जीवित रही उनकी मृत्यु प्रसवकाल में हुई। यह वह समय था जब बहु विवाह के लिए पुरुष हमेशा तैयार रहते थे। लेकिन प्रसाद जी पत्नी के श्राद्ध हेतु तीर्थ यात्रा पर निकाल गए। पाँच वर्ष तक वे अकेले ही रहे फिर उन्होंने तीसरा विवाह किया। कहने का अर्थ यह है कि जिस व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत  जीवन में स्त्री भोग्या नहीं थी वह अपने साहित्यिक जीवन में स्त्री को भोग्या के रूप में कैसे प्रस्तुत कर सकता था? प्रसाद के लिए स्त्री का कोई भी रूप पूजनीय था तभी तो संगीत सुनने की इच्छा को पूरा करने के लिए वे कभी-कभी सिद्धेश्वर बाई वेश्या के यहाँ गाना सुनने चले जाते थे। व्यक्तिगत और साहित्यिक दोनों जीवन में ही प्रसाद जी ने सृष्टि में सौंदर्य के प्रतिमान के रूप में नारी को देखा। नारी का प्रेम, समर्पण पाकर ही  पुरुष का जीवन सफल होता है। प्रसाद जी ने अपनी रचनाओं में स्त्री की भूमिका का गुणगान बारंबार किया है। एक खास प्रकार के नारी पात्रों की सृष्टि में प्रसाद जी अद्वितीय है, जो अपने निश्चल प्रेम, त्याग और बलिदान से पाठकों के मन पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती है। आकाशदीप की चम्पा, देवरथ की सुमाता, पुरस्कार की मधुलिका आदि प्रसाद की अनुपम नारी सृष्टि है। नियति और समाज से एक साथ संघर्षरत नारी का ऐसा चित्रण दुर्लभ है2

     प्रसाद के साहित्य में स्त्री के विभिन्न रूपों जैसे स्त्री महिमा का गुणगान करने के लिए ही प्रसाद जी ने कामायनी नामक महाकाव्य को ही रच दिया। प्रसाद द्वारा लिखी गई कामायनी की भूमिका के अनुसार काम के गोत्र में उत्पन्न होने के कारण ही श्रद्धा ही कामायनी है3

         मनु जब देव-सृष्टि के विनाश को देखकर निराश हो गए थे तब श्रद्धा ही वह स्त्री थी जिसने अपनी सहायता का हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा था 

एक तुम यह विस्तृत भूखंड प्रकृति वैभव से भरा आनंद।

कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन आनंद।

अकेले तुम कैसे असहाय जय कर सकते, तुच्छ विचार।

तपस्वी! आकर्षण से हीन कर सके नहीं आत्म विस्तार।

दब रहे हो अपने ही बोझ, खो जाते भी न कहीं अवलंब।

तुम्हारा सहचर बनकर क्या न अन्यत्र होऊँ मैं बिना विलंब4

     श्रद्धा के व्यक्तिव के सामने मनु अपने आपको बहुत छोटा पाता है। मनु को जीवन पथ पर आगे बढ़ाने में श्रद्धा का ही महत्वपूर्ण योगदान रहा। लेकिन इसी श्रद्धा को छोड़कर मनु चले आए थे लेकिन घायल अवस्था में श्रद्धा मनु को अकेला नहीं छोड़ती।

          यह तो हुई बात कामायनी की। प्रसाद जी ने अपने नाटकों में भी पुरुष पात्रों से अधिक नारी पात्रों के चरित्र का गुणगान किया है। ‘एक घूँट नाटक का आनंद स्वीकार करता है कि, ‘आज मेरे मस्तिष्क के साथ हृदय का जैसे मेल हो गया, इस हृदय के मेल कराने का श्रेय वनलता को है5

अजातशत्रु नाटक के इस उक्ति को भी यहाँ देखना उचित होगा, ‘स्त्रियों के संगठन में उनके शारीरिक और प्राकृतिक विकास में ही एक परिवर्तन है। जो स्पष्ट बतलाता है कि वे शासन कर सकती है, किंतु अपने हृदय पर, वे अधिकार जमा कर सकती है- उन मनुष्यों पर जिन्होंने समस्त विश्व पर अधिकार किया हो। ********* मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकार करके भी एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम ध्येय है, उसका शीतल विश्राम है और स्नेह, सेवा, करुणा की मूर्ति तथा सान्त्वना के अभय वरदहस्त का आश्रय, मानव समाज की सारी प्रवृत्तियों की कुंजी, विश्वशासन की एकमात्र अधिकारिणी प्रकृतिस्वरूपा स्त्रियों के सदाचार पूर्ण स्नेह का शासन है। ******* कठोरता का उदाहरण है पुरुष और कोमलता का विश्लेषण का- स्त्री जाति। पुरुष क्रूरता है तो स्त्री करुणा है जो अंतर्जगत का उच्चतम विकास है, जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए हैं, इसलिए प्रकृति ने उसे इतना सुंदर और मनमोहक आवरण दिया है6

पिछले कुछ वर्षों में स्त्री विमर्श को लेकर काफी कुछ अच्छा और बुरा लिखा जा रहा है। अच्छी बात यह कि स्त्री जीवन को कुंठाओं से बाहर लाने का प्रयास किया जा रहा है, बुरी बात यह कि स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री स्वैराचार को बढ़ावा दिया जा रहा है, परिवार विखंडन को सही ठहराया जा रहा है, प्राचीन नियमों को पूर्णतया येन केन प्रकारेण गलत सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे समय में जयशंकर प्रसाद की स्त्री पात्रों को देखना तर्कसंगत है।

स्वस्थ होकर मुगल ने कहा- “माता! तो फिर  मैं चला जाऊँ”?

स्त्री विचार कर रही थी- मैं ब्राह्मणी हूँ, मुझे तो अपने धर्म-अतिथिदेव की उपासना-का पालन करना चाहिए। परंतु यहाँ..... नहीं-नहीं, ये सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परंतु यह दया तो नहीं.... कर्तव्य करना है। तब?

       मुगल अपनी तलवार टेककर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा-“क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो”।

“छल! नहीं,  तब नहीं- स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है

ममता ने मन में कहा- “यहाँ कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी न; जो चाहे ले-ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा”। वह बाहर चली आई और मुगल से बोली- “जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आश्रय देती हूँ। मैं ब्राह्मण-कुमारी हूँ; सब अपना धर्म छोड़ दे तो मैं भी क्यों छोड़ दूँ”?7

कर्तव्य करने के नाम पर स्त्री जीवन को कुंठित करने का प्रयास करना अवश्य ही गलत है। प्रसाद ने कभी स्त्री के शोषण को स्वीकार नहीं किया। ध्रुवस्वामिनी नाटक के द्वारा प्रसाद जी ने पुनर्विवाह जैसे विषय को बेबाकी से उठाया। प्रस्तुत नाटक में प्रसाद ने कोमा के द्वारा पति के अत्याचारों को सहनेवली स्त्री के रूप को दर्शाया हैं जो किसी भी प्रकार से पति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है वहीं दूसरी तरफ  ध्रुवस्वामिनी है जो अपने पति के अत्याचारों से त्रस्त होकर पति का परित्याग कर देती है और चन्द्रगुप्त से पुनर्विवाह करके नारी स्वतन्त्रता की नई परिभाषा बुनती है। यह प्रश्न भी किया जा सकता हसी कि ध्रुवस्वामिनी को प्रसाद जी ने एक पुरुष को छोड़कर दूसरे पुरुष को चुनते हुए दिखाया है क्या इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि स्त्री को भी पता है कि उसका जीवन पुरुष के बिना अर्थहीन है? इस प्रश्न का उत्तर निम्न पंक्तियों के द्वारा भलीभाँति समझा जा सकता है –

पुरातनता का यह निर्मोक सहन करती न प्रकृति पल एक,

नित्य नूतनता का यह आनंद किए हैं परिवर्तन में टेक8

     श्रद्धा मनु को परिवर्तन के बारे में समझाती है तो यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के परिपूरक हैं कोई किसी की संपत्ति नहीं है। दोनों प्राकृतिक नियमों के अनुसार शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक रूप में एक दूसरे से अलग हैं इसी कारण से इन दोनों के बीच में सहज आकर्षण बना रहता है। इस आकर्षण को अवैध भावनाओं से बचाने के लिए ही विवाह बंधन की आवश्यकता को अनुभव किया गया। विवाह स्त्री और पुरुष दोनों को ही समाज, परिवार, देश आदि के लिए उत्तरदायित्वपूर्ण बनाता है। तो स्पष्ट है कि प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी को विवाह बंधन में आब्ध होते हुए दिखाकर समाज को अनुशासित होने का मार्ग दिखाया है।

इससे आज के साहित्यकारों को भी स्त्री विमर्श का सही स्वरूप समझने का अवसर मिलता है कि स्त्री विमर्श का उद्देश्य होना चाहिए स्त्री के लिए नवीन रास्ता खोजना  न कि उसे  स्वैराचार की ओर धकेल देना।  स्वैराचार, तो खैर स्त्री ही क्यों पुरुष के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता है। प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी पुस्तक संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध में लिखते हैं, ‘दुनिया में अगर न्याय का कोई एक विश्वव्यापी संघर्ष है, तो यह नारी के लिए न्याय का संघर्ष। अगर किसी मुद्दे पर हर सभ्यता, हर परंपरा का दमन दागों से भरा हुआ है, तो वह स्त्री की अस्मिता का मुद्दा। इस न्यूनता का ऐहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। इसलिए अपने स्त्रीत्व के प्रति जागरूक और उसके प्रति आग्रहशील स्त्री से हर परंपरा डरती है, डरकर उसे गलियाती है। पुरुषवादी वर्चस्व की जो  सत्ता स्त्री को हाशिये पर फेंकती है, वही सत्ता उपनिवेशीकरण के अपने सामक के भीतर और बाहर विविध रूप गढ़ती है। हमारे समाज में स्त्री-विरोध, श्रम-विरोधी आंतरिक उपनिवेशीकरण वर्णाश्रम की विचारधारा और जाति-व्यवस्था की संरचना में व्यक्त होता है।  लेकिन स्त्री ही वह पुल है जिस पर से गुजरकर मनुष्य अनादिकाल से मानवता के साथ जुड़ा हुआ है। यह तो स्त्री के लिए गर्व का विषय होना चाहिए, स्वाभिमान का विषय होना चाहिए। प्रसाद की स्त्रियों में यह स्वाभिमान है।

अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुक कर कहा- “मैं नहीं जानती कि वह शाहंशाह था, या साधारण मुगल पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था! भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल, मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ9

प्रसाद ने यह दिखलाया कि स्त्री अपने विचारों को लेकर कितना मंथन करती है एक निर्णय तक पहुँचने के लिए इसी कारण से मनोविज्ञान भी यह कहता है कि पुरुष की तुलना में स्त्री मानसिक रूप में अधिक परिपक्व होती है। भले ही पुरुष बाहुबल के सहारे उस पर अधिकार स्थापित कर ले लेकिन उसकी प्रज्ञा पर अधिकार स्थापित करना सरल नहीं है।

उषा के आलोक में सभा-मंडप दर्शकों से भर गया। बंदी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हुंकार करते हुए कहा- वध करो’! राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी- प्राणदंड। मधुलिका बुलाई गई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कोशल-नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, माँग। वह चुप रही।

राजा ने कहा-मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। मधूलिका ने एक बार बंदी अरुण की ओर देखा। उसने कहा- मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा-नहीं, मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।

तो मुझे भी प्राणदंड मिले। कहती हुई वह बंदी अरुण के पास जा खड़ी हुई 10

प्रसाद की स्त्रियों में निर्णयशक्ति की कोई कमी नहीं है। वे पूर्ण विश्वास के साथ अपने निर्णय को सम्मान देने का साहस रखती है। प्रसाद की स्त्रियाँ दोराहे में खड़ी नहीं दिखाई पड़ती है। भावनाओं की उन स्त्रियों ने हत्या नहीं की है लेकिन भावनाएँ उन्हें कमजोर भी नहीं बनाती है।

चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एक पल भर के लिए दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा- “बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए11

स्त्री की बात हो और सौंदर्य की बात न हो यह कैसे हो सकता है? प्रसाद की रचनाओं में नारी सौंदर्य, प्रकृति सौंदर्य, भाव सौंदर्य को देखा जा सकता है।  इन सभी सौंदर्यों में स्त्री सौंदर्य किसी न किसी रूप में तो दिखाई पड़ता ही है।

प्रसाद ने श्रद्धा के सौंदर्य का मांसल एवं स्थूल चित्रण न करके सूक्ष्म और वायवी चित्रण मार्मिक ढंग से लिखा है 

कुसुम कानन अंचल में मंद,

पवन प्रेरित सौरभ साकार।

रचित परमाणु पराग शरीर,

खड़ा हो ले मधु का आधार12

स्त्री के सौंदर्य को परिभाषित करते समय प्रसाद जी ने बिम्ब योजना को दर्शाया है। निम्न पंक्तियों को देखना उचित होगा 

घिर रहे थे घुँघराले बाल

अंस अवलंबित मुख के पास

नील घन-शावक से सुकुमार

सुधा भरने को विधु के पास13

स्त्री सौंदर्य को परिभाषित करते समय प्रसाद ने स्त्री की तुलना प्रकृति के साथ भी किया है –

सुना यह मनु ने मधुर गुंजार मधुकरी का-सा जब सानंद।

किए मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छ्ंद14

उपर्युक्त  पंक्तियों में मनु ने श्रद्धा की वाणी की तुलना भ्रमरी के मधुर गुंजार के साथ किया है साथ ही मनु ने अंतिम पंक्तियों में आदिकवि वाल्मीकि की ओर भी संकेत दिया है। वाल्मीकि को लेकर यह कथा प्रचलित है कि एक दिन क्रौंच पक्षी के क्रीड़ाशील जोड़े में से एक को शिकारी के बाण से गिरते हुए देखकर उनके करुणाग्रस्त हृदय से निम्न श्लोक का जन्म हो जाता है 

मा निषाद प्रतिष्ठा त्वगम: शाश्वती समा:

यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काममोहितम15

            अंतत: यह कहना गलत नहीं होगा कि जयशंकर प्रसाद ने स्त्री जीवन को कहीं भी संकुचित नहीं होने दिया है। इसके विपरीत उन्होंने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का परिपूरक माना और स्त्री को सृष्टि का आधार माना है।

संदर्भ सूची

1.  प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद, मिलिंद प्रकाशन पृष्ठ संख्या- 32

2.  जयशंकर प्रसाद-महानता के आयाम, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, पृष्ठ संख्या- 369

3.  जयशंकर प्रसाद- एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ संख्या- 43

4.  जयशंकर प्रसाद- एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ संख्या- 43

5.  जयशंकर प्रसाद- एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ संख्या- 43

6.  जयशंकर प्रसाद- एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ संख्या- 44

7.  प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद, मिलिंद प्रकाशन पृष्ठ संख्या-34

8.  कामायनी, श्रद्धा सर्ग, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ संख्या- 47

9.  प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद मिलिंद प्रकाशन पृष्ठ संख्या-35

10. प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद मिलिंद प्रकाशन पृष्ठ संख्या- 110-111

11. प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद मिलिंद प्रकाशन पृष्ठ संख्या-30-31

12. आधुनिक हिंदी काव्य (भाग-1,1936 तक) एम. ए. (हिंदी) प्रथम सेमेस्टर, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद, नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद पृष्ठ संख्या- 122

13. आधुनिक हिंदी काव्य (भाग-1,1936 तक) एम. ए. (हिंदी) प्रथम सेमेस्टर, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद, नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद पृष्ठ संख्या-124

14. आधुनिक हिंदी काव्य (भाग-1,1936 तक) एम. ए. (हिंदी) प्रथम सेमेस्टर, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद, नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद पृष्ठ संख्या-144

15. आधुनिक हिंदी काव्य (भाग-1,1936 तक) एम. ए. (हिंदी) प्रथम सेमेस्टर, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद, नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद पृष्ठ संख्या-144

संदर्भ पुस्तकें-

1. प्रतिनिधि कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद मिलिंद प्रकाशन

2. आधुनिक हिंदी काव्य (भाग-1,1936 तक) एम. ए. (हिंदी) प्रथम सेमेस्टर, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद, नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद

3. जयशंकर प्रसाद-महानता के आयाम, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय,

4. जयशंकर प्रसाद- एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर

5. कामायनी, जयशंकर प्रसाद                  

 

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

सहायक प्राध्यापक भवंस विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी

हैदराबाद केंद्र

 


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