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यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
भारतीय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) की हालिया रिपोर्ट ने भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के बारे में चौंकाने वाला खुलासा किया है। सालाना 69,108 करोड़ रुपये की भारी गड़बड़ी! यह इस योजना के तहत लाभार्थियों के लिए निर्धारित खाद्यान्न के 28 प्रतिशत के बराबर है। यानी, प्रणाली को तत्काल सुधारा न गया, तो खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता के दावों का गुब्बारा फुस्स होते देर न लगेगी!
भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जिसका उद्देश्य वंचितों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना है, कई तरह की तकनीकी उपायों के बावजूद भीषण रिसाव (लीकेज) से जूझ रही है। माना कि इन उपायों ने 2011-12 के 46 प्रतिशत से लीकेज को कम करके वर्तमान में 28 प्रतिशत कर दिया है, लेकिन नुकसान अभी भी बहुत अधिक और चिंताजनक है। लगभग 19.69 करोड़ टन चावल और गेहूँ हर साल अपने लक्ष्य प्राप्तकर्ताओं तक नहीं पहुँच पाते हैं, जिसका मुख्य कारण कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और अक्षमता है। कहना न होगा कि इतने भारी रिसाव की राजकोषीय लागत राष्ट्र के अपने बजट को संतुलित करने और संसाधनों को कुशलतापूर्वक आवंटित करने के प्रयासों को कमजोर करती है। सालाना खोई गई धनराशि को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा या कृषि के बुनियादी ढाँचे में लगाया जा सकता था, जहाँ बजट की प्रायः कमी रहती है। इसके अलावा, यह नुकसान खाद्य असुरक्षा को बढ़ाता है। वह भी तब जबकि काफी बड़ी आबादी खराब आहार विविधता और कुपोषण से त्रस्त है। देखा जाए तो, भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के 35 प्रतिशत से अधिक बच्चे अविकसित हैं, और केवल मुफ़्त अनाज वितरण से इनकी व्यापक पोषण चुनौतियों का समाधान नहीं किया जा सकता।
आईसीआरआईईआर की रिपोर्ट में इन प्रणालीगत अकुशलताओं को दूर करने के लिए प्रतिमान बदलने का सुझाव भी दिए गए हैं। जैसे कि, मुफ़्त राशन के कवरेज का फौरन पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। सब्सिडी वाले अनाज को अत्यधिक गरीबी में रहने वालों तक सीमित किया जा सकता है, और अन्य लोगों को मामूली राशि का भुगतान करने को कहा जा सकता है। इससे संसाधनों का दुरुपयोग कम होगा और साथ ही सबसे कमज़ोर लोगों की ज़रूरतें भी पूरी होंगी।
एक सुझाव यह भी है कि मुफ्त खाद्य सामग्री बाँटने के बजाय पात्र लाभार्थियों को सीधे धनराशि आवंटित की जाए। इससे बिचौलियों की परत को कम करके रिसाव को कम किया जा सकता है। लाभार्थी अपनी पसंद के खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए नकद हस्तांतरण का उपयोग कर सकते हैं, जिससे बेहतर जवाबदेही सुनिश्चित हो सकेगी।
इसके अलावा, कुछ उचित मूल्य की दुकानों (एफपीएस) को "पोषण केंद्रों" में परिवर्तित करके कुपोषण की समस्या का व्यापक समाधान किया सकता है। चावल-गेहूँ के साथ-साथ बाजरा, दालों और फलों सहित उत्पादों की व्यापक रेंज उपलब्ध कराकर आहार विविधता को बढ़ावा दिया जा सकता है।
रिसाव को बंद करने के लिए सरकार को ‘आधार’ से जुड़े प्रमाणीकरण और ‘ब्लॉकचेन’ जैसे डिजिटल उपकरणों को मजबूत करके यह सुनिश्चित करना होगा कि लाभ बिना किसी चोरी के लक्ष्य लाभार्थियों तक पहुँचे। साथ ही, भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मजबूत निगरानी और नियमित ऑडिट बेहद ज़रूरी हैं।
ध्यान रहे कि पीडीएस में सुधार करना सिर्फ़ आर्थिक अनिवार्यता नहीं है। समावेशी विकास के लक्ष्य वाले राष्ट्र के लिए यह नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। प्रणालीगत खामियों को दूर करके, भारत खाद्य सुरक्षा का एक टिकाऊ और कुशल मॉडल बना सकता है। इन खामियों को दूर करके बचाए गए संसाधनों को कृषि में फिर से निवेश किया जा सकता है, जिससे उत्पादकता में वृद्धि होगी और दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा हासिल करने में सहायता मिलेगी।
भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक रूप से कार्य करना होगा कि उसके महत्वाकांक्षी कल्याण कार्यक्रम उसके संसाधनों पर बोझ बने बिना अपना उद्देश्य पूरा करें।
अंततः बकौल दुष्यंत कुमार –
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ;
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा!
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जब घर ही बन जाए वधस्थल!
महिलाओं की हत्या पर संयुक्त राष्ट्र की नवीनतम रिपोर्ट ने
एक बार फिर इस असहज सच्चाई को उजागर किया है कि दुनिया भर में लाखों महिलाओं के
लिए ‘घर’ सबसे खतरनाक जगह है! अकेले 2023 में, दुनिया भर में लगभग 81,000 महिलाओं की हत्या की गई,
जिनमें से 56 प्रतिशत हत्याएँ अंतरंग साथी या परिवार के
सदस्यों द्वारा की गईं। यह भयावह आँकड़ा हिंसा की लैंगिक प्रकृति की गहराई को
रेखांकित करता है, जिसे अक्सर सार्वजनिक नज़रों से छिपाया जाता है। भारत की बात करें तो जगजाहिर
है कि यहाँ पितृसत्तात्मक नारी संहिता और प्रणालीगत विफलताएँ लैंगिक हिंसा को
बढ़ावा देती हैं। इस लिहाज से यह रिपोर्ट एक अभियोग भी है;
और कार्रवाई के लिए आह्वान भी।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि
महिलाओं/लड़कियों की हत्या का ‘प्रचलन’ किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों या आय वर्गों तक
ही सीमित नहीं है, बल्कि यह सार्वभौमिक है। तिस पर, भारत सहित ग्लोबल साउथ के देशों में सामाजिक रूढ़ियाँ,
कमजोर न्याय प्रणाली और आर्थिक निर्भरता समस्या को और भी
जटिल बना देती हैं।
भारत में, महिला हत्याएँ भयावह रूपों में सामने आती हैं - दहेज
हत्याओं और सम्मान हत्याओं से लेकर कन्या भ्रूण हत्या तक। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड
ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार, 2022 में दहेज के लिए 1,500 से अधिक महिलाओं की हत्या की गई,
और अनगिनत अन्य को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा,
जिसके कारण उन्हें गंभीर चोटें आईं या उनकी मृत्यु हो गई।
ऐसे आँकड़े, हालाँकि
चिंताजनक हैं, लेकिन
संभवतः आइसबर्ग का सिरा भर हैं, क्योंकि कलंक, पारिवारिक दबाव या संस्थागत उदासीनता के कारण बहुत से मामले
कभी दर्ज नहीं हो पाते। लैंगिक समानता की
संवैधानिक गारंटी और घरेलू हिंसा अधिनियम (2005) और दहेज निषेध अधिनियम (1961)
जैसे कानूनों के बावजूद, महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रोंगटे खड़े करने वाली खबरें आए दिन मिलती ही रहती
हैं। ग्रामीण-शहरी विभाजन इस मुद्दे को और जटिल बनाता है। शहरी भारत में,
महिलाओं को कार्यस्थल पर उत्पीड़न और घरेलू दुर्व्यवहार का
सामना करना पड़ता है, जबकि ग्रामीण भारत में ऑनर किलिंग और बाल विवाह जैसी गहरी जड़ें जमाए हुए
प्रथाएँ हैं, जो
अक्सर महिलाओं के लिए जानलेवा स्थितियों का कारण बनती हैं।
प्रगति और परिवर्तन के तमाम दावों के बावजूद भारतीय समाज की
बद्धमूल मान्यताएँ आज भी स्त्री को अधीनस्थ (गुलाम!) भूमिका में बाँधकर रखना चाहती
हैं। ऐसे दोहरे सांस्कृतिक मानदंड महिला हत्या में अहम योगदान देते हैं। बेटों को
अभी भी बेटियों से ज़्यादा तरजीह दी जाती है, और महिलाओं का मूल्य अक्सर उनकी कथित ‘पवित्रता’ या वैवाहिक
स्थिति से जुड़ा होता है। यह सामाजिक मानसिकता महिलाओं के शरीर,
गतिविधि और विकल्पों पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती है।
इस चाह की अवहेलना की परिणति अक्सर हिंसा में होती है। पिछले कुछ वर्षों में सहजीवन
के साथी,
पुरुष मित्र या पति द्वारा पैशाचिक हिंसा की जो अनेक घटनाएँ
सामने आई हैं, हर
बार उनके मूल में चोटिल पुरुष अहं ही तो सक्रिय देखा गया है न!
अंततः, इन भीषण सच्चाइयों से पर्दा उठाने वाली संयुक्त राष्ट्र की
रिपोर्ट केवल भयावह आँकड़ों की सूची नहीं है; इसमें परिवर्तनकारी कार्रवाई के लिए स्पष्ट आह्वान भी निहित
है। इस रिपोर्ट के प्रकाश में दुनिया भर के समाजों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और
इस मुद्दे को हल करने के लिए बहुआयामी रणनीतियों को लागू करना चाहिए। ज़रूरी है कि
लिंग आधारित हिंसा के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट, अपराधियों के लिए सख्त दंड और पीड़ितों के लिए सुरक्षा
तंत्र को प्राथमिकता दी जाए। लेकिन यह सब तब तक कारगर नहीं होगा,
जब तक पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने,
लैंगिक समानता के बारे में पुरुषों/लड़कों को शिक्षित करने
और महिलाओं को दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने के लिए सशक्त बनाने का अभियान नहीं
चलाया जाएगा। याद रहे कि जो समाज महिलाओं/लड़कियों को घर-बाहर सुरक्षित माहौल तक
नहीं दे सकता, उसकी
सभ्यता और संस्कृति पाखंड के अलावा कुछ नहीं!
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डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
विडम्बनाओं पर दृष्टि डालने वाले महत्वपूर्ण आलेख। लेखक को बधाई।
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