काव्यानुभूति और उसका स्तम्भन
रमाकांत नीलकंठ
अनुभूतियाँ सभी को होती हैं लेकिन कवि में उसका स्तम्भन
होता है। कवि के चित्त में वे ठहरती हैं। होते ही स्खलित नहीं हो जातीं,
झर नहीं जातीं। सामान्य चित्त से कवि-चित्त की यह विशेषता
है। लम्बी कविताओं में या प्रबन्ध काव्यों में कवि की अनुभूति-सत्ता का दीर्घ
स्तम्भन तो प्रत्यक्ष ही है, उस अनुभूति की भावना का बार-बार मूर्त रूप में उमड़ उमड़ आना
और देर तक टिके रहना दूसरी खासियत है। जब अनुभूति की समां बँधती है,
वह चित्त को अभिव्यक्ति के लिए विवश कर देती है। उसमें
चित्त पर छा जाने की बलशाली ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा के प्रबल स्फुरण के बिना
सशक्त और प्रभावशाली कविता नहीं हो सकती। यदि उस ऊर्जा का स्तम्भन न हो तब भी
कविता नहीं हो सकती। इस ऊर्जा के आवेग के बिना जो कविताएं होती हैं वे कमजोर होती
हैं,
या कविता के नाम पर बौद्धिक व्यायाम होती हैं। फिजूल की
शब्दबाजी होती हैं। अनावश्यक अनुत्पादक मेहनतगिरी का नमूना होती हैं। जिनमें
ग्राहक के चित्त को रमाने की ताकत नहीं होती। वे निष्फल होती हैं। मुँह के बल गिरी
होती हैं। अतः सफल और कारगर अभिव्यक्ति के लिए अनुभूति का जोरदार होना तो जरूरी है
ही उसका स्तम्भन भी जरूरी है। यानी उसका पर्याप्त समय तक,
अभिव्यक्ति पूरी होने तक टिके रहना,
छाये रहना भी जरूरी है।
अनुभूति की और कल्पना या भावना की शक्ति का उभार और उसका
स्तम्भन केवल कविता के लिए ही आवश्यक नहीं है बल्कि कहानियों और बड़े-बड़े उपन्यासों
की रचना के लिए भी आवश्यक है। बिना इस प्रक्रिया के उन प्रसिद्ध विशाल उपन्यासों
की रचना सम्भव न होती जिनका प्रणयन प्रेमचन्द, तोलस्तोय, बालजाक, शरतचन्द्र जैसे उपन्यासकार कर गये हैं। और आज भी जिनका रस
लेते जी नहीं भरता। जिन कृतियों को हाथ में लेते ही जी बिदकता हो,
दिमाग भारी हो जाता हो उनमें अनुभूति की सघनता और उसके
स्तम्भन का अभाव ही मूल कारण है। भावना या कल्पना शक्ति का शिथिल या क्षीण होना
दूसरा कारण होता है। भाषा पर पकड़ न होना तीसरा कारण होता है। जहां यह अभाव नहीं
होता वहां ही विलक्षण और वैदग्ध्यपूर्ण कृतियां जन्म लेती हैं। कालान्तर तक सराही
जाती हैं। ग्राहक के सिर पर चढ़कर बोलती हैं। काव्यात्मक आवेग का नैरन्तर्य भी किसी
कविता में तभी सधता है जब अनुभूति का स्तम्भन होता है। यों तो सृष्टि के किसी भी
सृजनात्मक कर्म में भाव या अनुभूति के चित्तभूमि पर टिकने की दरकार होती है,
अन्यथा कर्म निष्फल होता है। उस सूरत में कविता सृजन के लिए
तो स्तम्भन प्रक्रिया एक प्रकार से अनिवार्य ही है।
किसी-किसी कवि में किसी भाव विशेष का चिर स्तम्भन या आजीवन
स्तम्भन भी होता है। वे कवि अपनी हर रचना में उस भाव का पुट लाकर ही मानते हैं। और
मरते दम तक उसी भाव की तरह-तरह से अभिव्यक्ति करते जाते हैं। इसके बावजूद
ग्राहक-पाठक उस पिष्टपेषण से ऊबता नहीं। बल्कि और गहरे डूबता जाता है। एक ही भाव
में कवि निमग्न होकर भी नया से नया होता जाता है, बल्कि कवि से महाकवि होता जाता है। यह वैचित्र्य भी साहित्य
में घटित होता है। तुलसीदास में राम के प्रति भक्ति भाव का स्तम्भन हो गया है।
उनकी हर कविता राममय है। उसी तरह नागार्जुन में जनभाव का स्तम्भन हो गया है। ऐसे
अनेक उदाहरण हो सकते हैं। इन कवियों के चित्त में उनके एकभाव का इतना गहरा और
टिकाऊ प्रतिष्ठापन हो गया है कि वह आजीवन बना रहता है जो उनकी अभिव्यक्तियों में
प्राण की तरह स्पन्दित होता है। प्राण छूटने तक उनके प्राण उसी भाव की मूर्त भावना
में रमे रहकर धड़कते हैं।
ज्यादातर कवियों में किसी एक भाव का ऐसा एकनिष्ठ स्तम्भन
नहीं होता। यह हो सकता है कि किसी विशेष भाव की मुख्यता हो। वे विषयानुरूप
भावविभोर होते हैं। और उसकी कुशल अभिव्यक्ति सम्पन्न करते हैं। निराला ऐसे ही कवि
हैं। अज्ञेय भी। और कितने ही कवि हैं जो इसी दायरे में आते हैं। जिनमें कई बहुत
श्रेष्ठ हुए हैं। वे कवि और हैं जिन्हें किसी भाव या विषय की अनुभूति ही नहीं
होती। जबकि जगत् में कितने ही रम्य रूपों का प्रसार है। मानवीय विषयों का बाहुल्य
है। वे घटनाओं का, सतही से सतही घटनाओं का तात्कालिकता की बिना पर इन्तजार करते हैं,
मिल जाने पर फिर उसपर फिजूल शब्दों का तूल बाँधते हैं। या
सतही सामाजिकता का कोई गरीब नुमाइशी टोका पकड़ते हैं। और उसपर बनावटी सिर धुनते
हैं। उनमें अनूभूतिशीलता का टोटा पड़ता है अतः उसके स्तम्भन का प्रश्न नहीं उठता।
ऐसे कवि की कविताएं नीरस और ऊबाऊ होती हैं। बौद्धिक प्रयास से बेजान ढंग से लिखी
गईं होती हैं।
टिकाऊ एकाग्रता और स्तम्भन एक ही चीज है। सफल कविता के लिए
यह उतना ही आवश्यक है जितना किसी भी लक्ष्य के साधक के लिए। कविता चूँकि एक
संवेदनशील वाग्विधा है और भविष्यजीविता की उसमें अपार क्षमता है अतः उसे हल्के में
नहीं लेना चाहिए। तुलसीदास, गालिब आदि कवियों में कविता के प्रति जो समर्पण है और उससे पैदा जो
भाव-तन्मयता है और उनमें देर तक टिकने वाली जो भाव-स्तम्भन की वृत्ति है वही
उन्हें महान् बनाती है। भावों की चालू और चटकीली अभिव्यक्ति जिसका असर क्षणभर के
लिए होता है वह कवि की भावानुभूति के शीघ्र पतन का परिचायक है। इस पतन की पूर्ति
वह इधर उधर हाथपांव मारते हुए अरचनात्मक ढंग से करता है। चर्वित चर्वण जिसका एक
लक्षण है। मनहूसियत और चटकपन जिसके दो पहलू हैं। साधारण प्रतिभा के कवियों में कोई
एक पहलू की ओर झुका रहता है कोई दूसरे। कविता में चटकपन लानेवाले कवियों की फिरभी
चार दिन के लिए ही सही चांदनी जैसी खैर रहती है। मनहूसियत उपजानेवाले युक्तिनिर्भर
कवि तो पृथ्वी पर भारस्वरूप ही होते हैं। यह दुख की बात है कि मनहूस कवियों की
आजकल भरमार है। किन्तु कवि सम्मेलनों में चटकपन लाने वाले कवि ही बाजी मारते हैं।
तब मनहूसियतवाले कवियों की रोनी सूरत देखते बनती है। ये दोनों ढंगी कवि नाममात्र
के कवि होते हैं।
उच्च भावानुभूति के दीर्घ स्तम्भन के बिना ऊँचे पाए की कविता नहीं होती। यह बात तो तय है।
रमाकांत नीलकंठ
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