भाई! तेरा घर-आँगन
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
भाई! अब जब नहीं रहती
तेरे घर-आँगन
फिर भी बहुत याद
आता है मुझे
तेरा वो घर-आँगन
वो पीछे का खेत
वो अमरुद की छाँव
वो कुँए का मुंडेर
वो नन्हे-नन्हे पाँव
क्या अब भी तकते हैं राह
मेरे लौट आने की?
वो छोटी-छोटी गिट्टियाँ
वो नीम डाल के झूला
जाने कितनी अठन्नी-चवन्नियाँ
जिन्हें हम सब ने था रोपा
हाँ भाई! अक्सर
अकेले में
बहुत पुकारता है मुझे
तेरा वो घर-आँगन
वो बेलपत्र की डाली
वो उड़हुल की लाली
वो बड़ों का प्यार
वो तेरी तकरार
वो माँ का मुझे मानना
वो तेरा रूठ जाना
पर पापा का ये कहना
ये एक दिन तो चली जायेगी।
हाँ , देख चली तो आई
पर बहुत याद आता है
भाई! मुझे तेरा वो घर-आँगन।
देखो न! आज माता-पापा
सब तेरे ही साथ हैं
वो ड्योढ़ी , वो चौखट सब
सब तेरे ही पास हैं
मैं छोड़ आई सबको
नयी दुनिया बसाने चली
नये-नये रिश्तों को
अपना बनाने लगी
इस घर के कोने - खिड़की पर
अब मेरा भी नाम है
पर भाई!
आज भी बहुत याद आता है मुझे
तेरा वो घर-आँगन।
राखी के दिन तेरा देर तक सोना
जगाने पर भी चादर फिर से ओढ़ लेना
चिढ़ना मुझे, उपहार छुपा देना।
सुनो कि
नींद अब आती नहीं
उपहार भी सुहाते नहीं
खतों में भेजती हूँ राखी
पर राखी की कलाई
पास आती नहीं
हाँ भाई! ऐसे में बहुत
याद आता है मुझे तेरा घर - आँगन
अब जब उम्र ढलने लगी है
मन के भाव भी थकने लगे हैं
कई रिश्ते छूटने लगे हैं
संबंधों की डोर टूटने लगी है
अंतिम क्षणों की आहट
आकर डराने लगी है
तब सोचती हूँ बार-बार
लौटती हूँ तेरे द्वार
देखती हूँ पलट कर
चाहती हूँ यह कहना कि
मुझे बहुत याद आता है
बचपन का वो तेरा व मेरा
घर-आँगन।
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
राँची
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