बूँद
समानी समुंद में सो कत हेरि जाय
डॉ.
सुपर्णा मुखर्जी
मानव
मनोविज्ञान के जनक के रूप में सिगमंड फ्रायड का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। फ्रायड
के विचारों को अपने में समेटे चंद्रमणि रघुवंशी के द्वारा लिखित पुस्तक ‘कतरा
और समंदर’ को पढ़ने का सुअवसर
प्राप्त हुआ। लेखक ने अपने पिताश्री को यह पुस्तक समर्पित की है। प्रस्तुत पुस्तक में
5
कविताएँ,
12 आलेख और 1 संस्मरण
है। जैसे ज्वार-भाटा दोनों ही परस्थितियों में समंदर और उसका हरेक कतरा प्रभावित होता
है। ठीक वैसे ही, मानव मन की सभी भावनाओं
को आंदोलित करने की क्षमता 80 पृष्ठों
की इस पुस्तक में है।
मनुष्य
ईश्वर रचित सृष्टि का सबसे उत्तम प्राणी है क्योंकि उसके पास मस्तिष्क है जो उसे बार-बार
जानने, सीखने की तृष्णा के पास ले
जाता है और इसी कारण से वह नवीन अनुसंधान करके सृष्टि के विकास में अपना महत्वपूर्ण
योगदान देता है। मनुष्य की एक और तृष्णा जो उसकी और संसार की जीवन शैली को प्रभावित
करती है। वह है, ‘यौन तृष्णा’।
लेखक के अनुसार –
‘यौन
की प्यास से ही आदम हव्वा ने मानव जाति का श्री गणेश किया और आज भी यौन प्यास मानव
जाति की बागडोर संभाले हुए है। फ्रायड के अनुसार यौन मानव की सारी गतिविधियों को संचालित
करता है। यौन प्यास आदमी को संतुलित करती है तो आदमी का संतुलन बिगाड़ देती है’।
(पृष्ठ 56)
आज
मनुष्य की यौन तृष्णा का सबसे भयंकर परिणाम के रूप में ‘जनसंख्या
वृद्धि’ हमारे सामने खड़ी है। यह केवल
भारत की नहीं संपूर्ण विश्व की समस्या है।
जंगलों का कटाव हो या पर्यावरण प्रदूषण की समस्या की बात हो हर जगह मनुष्य और उसकी बढ़ती आबादी ही इन समस्याओं का प्रधान कारण
है। लेखक चंद्रमणि रघुवंशी ने ‘कतरा
और समंदर’ में लिखा है –
‘अब
यह सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद सिर्फ एक रात की लज्जत का सिला हूँ मैं तो’।
(11)
इंसान
का इंसान के साथ जिस्मानी संबंध नए जिस्म के जन्म का कारण है लेकिन लेखक का विचार –
‘अगर
हमें फल जैसे बच्चे चाहिए। राष्ट्र के लिए बोझ नहीं चाहिए। तो चंद पलों की लज्जत को
माँस के लोथड़ों, सूखे,
पीले,
भद्दे
चेहरों की भीड़ पैदा के लिए छोड़ना होगा। शरीर के तनाव को हल्का करने और शरीर की माँग
पूरी करने के लिए चंद पलों को लज्जत चाहिए तो जरूर,
लेकिन
उन पलों को जिंदगी भर के लिए बोझ न बनाइए, क्योंकि
सूरज उनके लिए नहीं उगता’।
(12)
समकालीन
सामाजिक परिप्रेक्ष्य में यह कथन महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
रघुवंशी
जी का लेखन मैथलीशरण गुप्त की याद दिलाता है। गुप्त जी ने ‘नवयुवकों
से’ कविता में भारत की भावी पीढ़ी
को उनका कर्तव्य बताते हुए लिखा था,
‘दोगे
न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?
देखो,
कहाँ क्या हो रहा है आजकल संसार में’।
और रघुवंशी जी उसी
‘युवा
पीढ़ी का संघर्ष’ बयान करते हुए लिखते
हैं,
‘हर
युग में विध्वंस और सृजन का दौर जारी रहा है,
पुरानी
पीढ़ी अपनी राह छोड़ने को तैयार नहीं
और
युवा पीढ़ी उस राह पर चलने को
तैयार
नहीं होती,
दोनों
पीढ़ियों का अनवरत संघर्ष चल रहा है,
चलता
रहेगा क्योंकि अनुभव की थाती संजोये
पुरानी
पीढ़ी राह दिखाने से चूकती नहीं
और
युवा पीढ़ी उस राह को अपनाने को तैयार नहीं’,(29)
गुप्त जी ने युवाओं का मार्गदर्शन किया
था और रघुवंशी जी उन्हीं युवाओं को बूढ़े और बूढ़ी पीढ़ी के आगे फिर से खड़ी युवाओं
के मिलन को दिखाने के बहाने कहीं न कहीं सृष्टि के चक्र को हमारे सामने रखते नज़र आए
हैं। इस प्रकार से द्विवेदी युग और वर्तमान युग का भी महामिलन हो रहा है।
लेखक भगवती चरण वर्मा के निम्न कथन से प्रभावित
हैं, संसार में पाप कुछ भी नहीं
है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण
की विषमता का दूसरा नाम है’,।(40)
और वर्मा जी के कथन के साथ उन्होंने अपनी विचार
को जोड़ते हुए लिखा है, ‘हम
न तो पाप करते हैं, न पुण्य करते हैं हम
केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है’।(40)
लेखक फ्रांसिसी साहित्यकार मारिआक के विचारों
से भी प्रभावित हैं। उन्होंने लिखा है –
‘फ्रांसीसी
साहित्यकार मारिआक की किताब ही मुझे ज़िंदगी का साज तोड़ने से रोक देती है। (45)
लेखक
ने केवल मानव मनोविज्ञान की ही बात नहीं की है उन्होंने राजनीति पर भी कटाक्ष करते
हुए लिखा है,
‘तुम
बैल
दिन-भर
जुतने के बाद
तुम्हारे
पेट को
चाहिए
चारा
न
कि संविधान
(क्योंकि)
कल
तुम जब मरोगे
पोस्टमार्टम
करने
वाले डाक्टर
तुम्हारी
देह
को
चीर-फाड़कर
यही
देखेंगे
(कि)
तुमने
कब
और कैसा चारा
खाया
था,
वे
यह नहीं देखेंगे
कि
तुम्हारे
आमाशय
में
अनपचा
संविधान भी है’।(22)
ऐसा
कटाक्ष वही लिख सकता है जिसने अपनी क्षत्राणी माँ के साहस को देखा हो और पिता के स्वाधीनता
संग्रामी पिता के स्वाभिमान को देखा हो। ‘माँ
की याद’ संस्मरण रोंगटे खड़ी कर देनेवाली
है।
पुस्तक की अंतिम पृष्ठ की निम्न पंक्तियाँ
-
‘आओ!
शब्दकोष लाओ,
सारे
शब्दों को
ख़ारिज
कर दो,
फिर
देखो
हम
बिना शब्दों के
ज्यादा
सच्चे, ईमानदार
और
मानवतावादी हैं’।(80)
पुस्तक को 90°
के
कोण में लाकर ही समाप्त करती है अर्थात्, पुस्तक
शुरू हुई थी ‘मनुष्य का जन्म संसार
में क्यों हो?इस प्रश्न के साथ और
समाप्त हुई मानवता की स्थापना कैसे हो? इस
समाधान के साथ। ऐसी प्रासंगिक पुस्तक की आवश्यकता आज पाठकों को बहुत अधिक है।
*****
पुस्तक : बिंदु-बिंदु
विचार - कतरा और समंदर
लेखक : चंद्रमणि रघुवंशी
ISBN:
978-81-961510-5-8,
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, ऊँचापुल, हल्द्वानी - 263139(नैनीताल) उ.ख.
डॉ.
सुपर्णा मुखर्जी
हिंदी
प्राध्यापिका,
भवंस
विवेकानंद कॉलेज,
सैनिकपुरी,
हैदराबाद
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