सिनेमा में साहित्यिक संस्पर्श : डॉ. इरशाद कामिल
डॉ. पूर्वा शर्मा
“मेरे छोटे-छोटे ख़्वाब हैं
ख़्वाबों में गीत हैं
गीतों में ज़िन्दगी है
चाहत है,
प्रीत है”
-
डॉ. इरशाद कामिल
(फ़िल्म
: आशिकी-2)
हरेक व्यक्ति की आँखों में
छोटे-बड़े ख़्वाब होते हैं, जिन्हें मुक्कमल करने के लिए वह जी-जान लगा देता है। मुंबई
सपनों की नगरी है। हर दिन न जाने कितने लोग अपने सपने पूरे करने की ख़्वाहिश लेकर इस
शहर में आते हैं। बहुत से लोग अपने ख़्वाबों को पूरा करने में असफल होते हैं तो कुछ
सफलता की बुलंदियों को छू लेते हैं। ऐसे ही एक शख्स़, शब्दों के जादूगर है जिन्होंने
न केवल अपने ख़्वाबों को पूरा किया है बल्कि उससे कहीं आगे बढ़कर लोगों के दिलों पर
राज भी किया है। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं हिन्दी सिने-जगत के जाने-माने गीतकार –
‘डॉ. इरशाद कामिल’ की।
सिनेमा का मुख्य उद्देश्य
मनोरंजन है, साथ ही वह एक व्यवसाय भी है। ‘जो दिखता है वो बिकता है’ वाली उक्ति
यहाँ चरितार्थ होती है। सिनेमा एक कला है। सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास ने हमें
बहुत से उम्दा कलाकार दिए हैं, जिनमें कई बेहतरीन गीतकार जैसे – साहिर, मजरूह,
शैलेन्द्र, आनंद बख्शी, नीरज, संतोष आनंद, गुलज़ार, जावेद अख़्तर, प्रसून जोशी आदि
शामिल हैं। सिनेमा के आरंभिक काल से लेकर बहुत बाद तक सिनेमा के साथ साहित्य का
बड़ा गहरा रिश्ता रहा। लेकिन बीच में ऐसा भी समय आया जब सिनेमाई लेखन कमज़ोर पड़ने
लगा। तुकबंदी एवं काम चलाऊ गीतों की भरमार हो गई। ऐसे गीतों में कवितापन, अर्थवत्ता
एवं साहित्यिक प्रभाव कम होने लगा। या यों कहिए कि सिनेमा से साहित्य को लगभग निकाल
दिया गया। ऐसे समय में डॉ. इरशाद कामिल ने अपनी लेखनी के ज़रिए सिनेमा को साहित्यिक
स्पर्श दिया। जिसके चलते उनके गीत कभी पंजाब की खुशबू बिखेरते हैं तो कभी उर्दू की
मिठास घोल देते हैं तो कभी सूफियाना अंदाज़ से आपको मंत्र-मुग्ध कर देते हैं।
सिनेमा
को साहित्य संस्पर्श देने वाले डॉ. इरशाद कामिल का जन्म 5 सितम्बर, 1971 को पंजाब
के छोटे से कस्बे ‘मालेरकोटला’ में हुआ। बक्षी बशीर बद्र मोहल्ले में उनका बचपन
बीता।मालेरकोटला से अपनी प्रारंभिक पढ़ाई पूर्ण करने के पश्चात् उन्होंने पंजाब
विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य का अध्ययन करते हुए ‘समकालीन हिन्दी कविता’ विषय पर
पीएच. डी. उपाधि प्राप्त की। साथ ही, उन्होंने पत्रकारिता एवं अनुवाद में डिप्लोमा
भी किया।
फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले कामिल
जी की ‘मालेरकोटला’ से ‘मुंबई’ की यात्रा भी बड़ी फ़िल्मी रही। उनकी पहली नौकरी की घटना
बड़ी दिलचस्प है। इरशाद जी अपने किसी दोस्त को साक्षात्कार (इंटरव्यू) के लिए छोड़ने
गए थे। तपती गर्मी से बचने के लिए उन्होंने भी अपने दोस्त के साथ वहीं पर इंटरव्यू दे दिया और
फिर हुआ यूँ कि उनके दोस्त की नौकरी तो नहीं लगी। लेकिन उनकी नौकरी ‘दी ट्रिब्यून’
समाचार पत्र में पक्की हो गई। बाद में उन्होंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समाचार पत्र
में भी नौकरी की।
लेकिन जैसे कहा जाता है कि तकदीर
को कुछ और मंजूर था। चंडीगढ़ में शूटिंग कर रहे डायरेक्टर लेख टंडन जी का इंटरव्यू
लेने पहुँचे पत्रकार इरशाद को इत्तफ़ाक से उनके धारावाहिक ‘कहाँ से कहाँ तक’ में स्क्रिप्ट
राइटिंग(पटकथा एवं संवाद लेखन ) का कार्य मिल गया। जिसे उन्होंने 22 दिन में बखूबी
पूरा किया। उसके बाद तो मानो मुंबई ने उनके लिए बाहें फैला ली। इस तरह वर्ष 2001 में
वे मुंबई आ गए। उन्होंने टी.वी. धारावाहिक (कहाँ से कहाँ तक, संजीवनी, धड़कन आदि) में
पटकथा लेखन का कार्य किया और फिर इन्हें फिल्मों में गीत लिखने का अवसर मिला।
गीतकार के रूप में इरशाद जी की
पहली फिल्म ‘सोचा न था’ (2005) थी। लेकिन ‘चमेली’
(2004) उससे पहले रिलीज़ हुई। चमेली की सफलता के बाद इरशाद रूके नहीं
और एक के बाद एक कई फिल्मों में बेहतरीन गीत लिखने का सिलसिला आज भी जारी है। बतौर
गीतकार इन्होंने बहुत-सी फ़िल्में की है, उनकी कुछ लोकप्रिय फ़िल्में इस प्रकार है –
जब वी मेट, अजब प्रेम की ग़जब कहानी, लव आजकल, अनजाना अनजानी, मेरे ब्रदर की
दुल्हन, मौसम, वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई, रॉक स्टार, देसी बॉयज, कॉक टेल, आशिक़ी-2,
प्रेम रतन धन पायो, राँझना, फटा पोस्टर निकला हीरो, गुंडे, हाईवे, हॉलिडे, हैप्पी
न्यू इयर, तमाशा, सुल्तान, राब्ता, जब हेरी मेट सेजल, टाइगर ज़िंदा है, ज़ीरो, लव
आजकल (2), कबीर सिंह और वर्ष 2021 में रिलीज़ हुई ‘अतरंगी रे’ में भी इनके गीत है।
डॉ. साहब ने बहुत ही मनमोहक-मीठे
गीतों की रचना की है। साथ ही उन्होंने इस क्षेत्र में कुछ सफल प्रयोग भी किए हैं।
उनकी प्रयोगधर्मिता कुछ इस प्रकार है –
आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग
– किसी भी फ़िल्म के संवाद एवं गीतों में उसके किरदारों के परिवेश-परिस्थिति आदि साफ़
झलकती है। एक समय था जब परिवेश कैसा भी हो फिल्म के किरदार शुद्ध हिन्दी में ही गाते-नाचते
दिखाई पड़ते थे। लेकिन कामिल जी ने इस परिपाटी को तोड़ा है और वे उसमें सफल भी रहे
हैं। जिन शब्दों या वाक्यों को हम बोलचाल में प्रयोग करते हैं उनका सहज प्रयोग कामिल
जी के गीतों में हुआ है। इसके साथ उनके गीतों में मॉडर्न परिवेश अथवा पंजाबी,
राजस्थानी, अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी देखा जा सकता है। ऐसे शब्द गीतों
की संवेदना के अनुकूल है। उदहारण के तौर
पर –
(1) माँगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है / मैंने
कौनसी तुझसे जन्नत माँग ली
कैसा खुदा है बस नाम का है तू / रब्बा जो तेरी
इतनी-सी भी न चली ....आज दिन चढ़या (लव आजकल)
(2) कैसा ये इस्क है / अजब सा रिस्क है (मेरे ब्रदर की दुल्हन)
(3) ओ रब्बा मैं तो मर गया ओए ...कोई दिल बेकाबू
कर गया (मौसम)
(4) शायरों से लफ्ज़ लेके थोड़े से उधार / बोलना ए
चाहता हूँ दिल से तुमको यार ....
हो रहा था, हो गया है हल्का-सा ख़ुमार/ कोई ना रहा
है दिल पे अपने ज़ोर
Love me
थोड़ा और....
Let
me tell you tonight / when the star are shining bright … (यारियाँ)
(5) इश्क़ से आगे कुछ नहीं / इश्क़ से बेहतर कुछ
नहीं.....चाहे जो आए लेके दिल में इश्क़ मुहब्बत / सबको गले लगाना अपने culture की
है आदत
Swag से करेंगे सबका स्वागत (टाइगर
ज़िंदा है)
(6) खाली-पीली खाली-पीली रोकने का नहीं
तेरा पीछा करूँ तो टोकने का नहीं (फटा पोस्टर
निकला हीरो)
(कामिल
जी की डायरी से साभार)
रोमांटिक गानों में सूफियाना अंदाज़ – फ़िल्मों में
सूफ़ियाना कलाम दर्शन प्रधान रहा है। लेकिन कामिल जी ने रोमांटिक गानों में भी सूफियाना
स्पर्श दिया जिससे सूफ़ियाना कलाम फिल्म का हीरो (नायक) निभाता नज़र आया। इश्क़
मिज़ाजी कब इश्क़ हक़ीकी बन जाए इसका पता ही नहीं चलता –
मैं भी नाचूँ, मैं भी नाचूँ मनाऊँ
सोहने यार को / चलूँ मैं तेरी राह बुल्लेया
मैं भी नाचूँ रिझाऊँ सोहने यार को /
करूँ ना परवाह बुल्लेया (सुल्तान)
‘जब
वी मेट’ फिल्म का एक रोमांटिक गीत है जिसे आप दूसरे अर्थ में देखें तो उसमें सूफी दर्शन
भी है। इस गाने में शब्दों पर गौर कीजिए तो वह प्रार्थना प्रतीत होगा और आप परम
शक्ति से जुड़ जाएँगे –
ना है पाना, ना खोना ही है
तेरा ना होना जाने , क्यों होना ही है
तुमसे ही दिन होता है / सुरमई शाम आती
है
हर घड़ी साँस आती है / ज़िंदगी कहलाती
है तुमसे (जब वी मेट)
पूरा पंजाबी गाना – पंजाबी के कुछ शब्दों का प्रयोग तो प्रायः फ़िल्मी गीतों में देखा गया है। लेकिन जब वी मेट फ़िल्म का ‘मौजा ही मौजा’ एक ऐसा गाना है जो कि पूरा पंजाबी में लिखा गया है। इसके पहले 1956 में आई ‘जागते रहो’ फिल्म में एक पूरा पंजाबी गीत – ‘कि मैं झूठ बोलया कोई न’ लिया गया था। लगभग पचास वर्षों के अंतराल के बाद इरशाद जी का लिखा यह पूरा पंजाबी गीत लोगों ने बहुत पसंद किया।
जग सारा जग सारा निखर गया / हुद प्यार हवा दे विच बिखर गया....
ओ माही मेरा शरवत वर्गा / ओ माही तेनुं गट गट पीला... (जब वी मेट)
आइटम सांग (Item Song) – फ़िल्मों में प्रायः कैब्रे अथवा आइटम सांग का जो
पारंपरिक ढंग चला आ रहा था, इरशाद जी ने उसे एक अलग स्तर पर ले जाने का प्रयास
किया है। निम्न स्तर की शब्दवाली के स्थान पर अर्थपूर्ण शब्द चयन से बार डांस वाले
गाने को विशेष बना दिया। ‘चमेली’ फ़िल्म का गीत ‘सजना वे सजना’ इसका बहुत अच्छा उदाहरण
है, जिसने कई रिकार्ड तोड़े हैं –
मन सात समन्दर डोल गया जब तू आँखों से
बोल गया
ले तेरी हो गई यार सजना वे सजना.. ओ
सजना मेरे यार ...
पहला पोइट्री बैंड : ‘द इंक बैंड’
– अधिकांश गाने धुन पर लिखे जाते हैं। लगभग सौ में से दो या तीन गीत ही ऐसे होते
हैं जो लिखे पहले जाते हैं और धुन बाद में बनती है। फ़िल्मों के लिए लिखे जाने वाले
गीतों में जब संगीत और गीत को लेकर कुछ समझौता करना पड़ता है तो ज्यादातर गीतों में
शब्दों को ही झुकना पड़ता है। प्रत्येक गीतकार, साहित्य प्रेमी, शायरी एवं कविता के
सर्जकों को इस बात से तकलीफ़ होनी स्वाभाविक है। कामिल जी ने इस विषय में पहल की, उन्हें
लगता है कि पहले गीत फिर संगीत। उनके मुताबिक शब्द की पहल हो, लेखन की पहल हो। अर्थपूर्ण
बात हो और संगीत उस अहसास को बयाँ करें। इसलिए उन्होंने भारत का पहला पोइट्री बैंड
– ‘द इंक बैंड’ की स्थापना की। गीत पहले, संगीत बाद में इसका एक उदहारण ‘निम्मो’
इस प्रकार हैं –
(वीडियो
के लिए ☝क्लिक कीजिए)
गाँव की गलियाँ पूछ रही
हैं /कहाँ रहे तुम इतने दिन / निम्मो की तो शादी हो गयी
हार गयी थी दिन गिन-गिन…
/ बहुत देर तक रस्ता देखा / गाँव को खुद पे हँसता देखा
इंतज़ार में हारी हारी / खुद
से खुद ही गयी वो छिन / कहाँ रहे तुम इतने दिन…
मोड़ बूढ़ा-सा हुआ पड़ा था
/ लेकिन फिर भी वहीं खड़ा था / मुझको वो पहचान न पाया /
मैंने अपना नाम बताया / मोड़
ख़ुशी से झूम उठा तब / बोला पढ़ा है तेरे बारे में सब /
हो गए हो तुम बड़े आदमी /
इन्सां हो या फल हो मौसमी / एक साल में एक ही फेरा/
गाँव में भी इक घर है
तेरा / निम्मो ये बोला करती थी… /
निम्मो गाँव की सड़क थी
कच्ची / जिसको मेरे बिन रोना था/ इक दिन पक्का होना था /
अच्छा हुआ की पक्की हो
गयी / गाँव में चलो तरक्की हो गयी / हाँ पर मेरी निम्मो खो गयी।
गीतों
की कहानी – गीतकार गीतों की रचना करते हैं और
प्रायः उनके गीतों के संकलन प्रकाशित होते हैं। लेकिन इरशाद जी इस सन्दर्भ में एक
नया प्रयास किया। उन्होंने अपने गीतों की सृजन प्रक्रिया को लेकर, उसकी कहानी को
लोगों के सामने लाने का सफल प्रयास अपनी पुस्तक ‘काली औरत का ख़्वाब’ के
माध्यम से किया। इस तरह की यह पहली एवं अनूठी पुस्तक है।
कामिल
जी की प्रयोगधर्मिता देखने के पश्चात् अब उनके
गीतों में घुले विविध रंगों पर भी नज़र डालते हैं। किसी भी फिल्म की परिस्थिति-परिवेश,
कहानी एवं उसके किरदार आदि के अनुसार गीतों की रचना होती है। गीत-संगीत किसी भी कहानी,
उसके किरदार आदि को और बेहतर तरीके से समझाने का प्रयास करते हैं। प्रायः फिल्मों
में प्रेम गीत अधिक होते हैं लेकिन अन्य विषयों के रंग भी गीतों में नज़र आते हैं, जो
इस प्रकार हैं –
प्रीत
के गीत – अधिकांश फिल्मों में रोमांटिक गीतों का
आधिक्य होता है। सिचुवेशन (परिस्थिति-परिवेश) के हिसाब से प्रेम के विविध मनोभावों,
रंगों को भिन्न-भिन्न गीतों में देखा जा सकता है। वैसे तो प्रेमरस में भीगे कामिल
जी के अनेक गीत है। उनमें से कतिपय उदाहरणतया यहाँ प्रस्तुत है –
(1)मनवा लागे / लागे रे सँवारे / ले तेरा हुआ जिया
का जिया का ये गाँव रे (हेप्पी न्यू ईयर)
(2) तू ही ये मुझको बता दे चाहूँ मैं या ना अपने
तू दिल का पता दे चाहूँ मैं या ना (आशिक़ी)
(3)Shining in the
setting sun like a pearl up on the ocean /Come and heal
me, o heal me / Thinking about the love we making and a
life we sharing / Come and feel me, o feel me ... तेरा होने लगा हूँ जबसे मिला हूँ.... (अजब प्रेम की ग़जब कहानी)
(4) जो तुम ना हो / रहेंगे हम नहीं / ना चाहिए कुछ
तुमसे ज्यादा तुमसे कम नहीं (लव आजकल)
(5) कच्ची डोरियों, डोरियों, डोरियों से /मैनु तू बाँध ले... ये
नाराज़गी कागज़ी सारी तेरी
मेरे सोह्णेया सुन ले मेरी / दिल दियां गल्लां / करांगे
नाल नाल बै के ...
(6) मेरी हर मन मानी बस तुम तक / बातें
बचकानी बस तुम तक / मेरी नज़र दीवानी बस तुम तक / तुम तक,
तुम तक, तुम तक, सोनिया
(राँझना)
(7) पी लूँ तेरे
नीले-नीले नैनों से शबनम / पी लूँ तेरे गीले-गीले होंठों की सरगम
पी लूँ है पीने का मौसम /
तेरे संग इश्क तारी है /तेरे संग इक खुमारी है (वन्स
अपॉन अ टाइम इन मुंबई)
(8) तुम जो आए ज़िन्दगी
में बात बन गई / इश्क मज़हब, इश्क मेरी
ज़ात बन गई / सपने
तेरी चाहतों के, देखती हूँ अब कई / दिन है सोना और चाँदी
रात बन गई / चाहतों
का मज़ा,
फासलों में नहीं / आ छुपा लूँ तुम्हें हौसलों में कहीं (वन्स
अपॉन अ टाइम इन मुंबई)
(9) धूप पानी पे बरस जाए
/ ये साए बनाए, मिटाए / मैं कहूँ, और तू आ जाए, बहलाए / हर दूरी शरमाए / तू साथ है, हो दिन रात है / परछाइयाँ बतलाए....साया सा है, माही वे…माही वे…(हाईवे)
(10) तुझको मैं रख लूँ
वहाँ / जहाँ पे कहीं है मेरा यकीं / मैं
जो तेरा ना हुआ / किसी का नहीं, किसी का नहीं / ले जाएँ जाने कहाँ
हवाएँ, हवाएँ ...बनाती है जो तू वो यादें जाने संग मेरे कब तक
चलें /इन्हीं में तो मेरी सुबह भी ढले शामें ढले मौसम ढ़ले
(जब हेरी मेट सेजल)
(11) खाली है जो तेरे
बिना / मैं वो घर हूँ तेरा / घूमें फिरे, तू चाहे सब
शहर / तू है मेरा.... हमसे जाने क्यूँ बेवजह / जलते हैं फासले / मिलना तेरा गले पर
मिल रहे ये गले / आजा मिटा ये जो है फासला तेरा मेरा.....
(जब हेरी मेट सेजल)
(12) ये आइना है या तू है / जो रोज़ मुझको सँवारे / इतना लगे
सोचने क्यूँ / मैं आजकल तेरे बारे / तू झील ख़ामोशियों की / लफ़्ज़ों की मैं तो
लहर हूँ / एहसास की तू है दुनिया / छोटा-सा मैं एक शहर हूँ (कबीर सिंह)
(13) ....हाथ में तेरी ख़ुशबू है / ख़ुशबू से दिल बहला है /यह हाथों से यूँ फिसला है / हो
जैसे रेत ज़रा-सी.....चलना भी है बदलना भी है / तुझमें ही तो ढलना भी है (अतरंगी
रे)
(कामिल
जी की डायरी से साभार)
सूफ़ियाना
/ दर्शन प्रधान गीत – सच कहा जाए तो रॉक
स्टार के सभी गाने अपने आप में अलग हैं। इसका एक सूफ़ियाना अंदाज़ का गीत है – ‘कुन
फाया कुन’। ‘कुन फाया कुन’ अरबी का
शब्द है जो कुरान शरीफ़ की आयात से लिया गया है, जिसका अर्थ है – हो .. हो और गया अर्थात्
जब कुछ नहीं था मतलब जब शून्य भी नहीं तब सिर्फ परम शक्ति ही रही होगी जिसके एक
इशारे पर फिर यह सृष्टि बनी होगी। इसलिए ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है । इस गीत की
धुन एवं बोल आपको एक अलग ही भावभूमि पर ले जाते हैं और आप ऊपर वाले से साक्षात्कार
करते नज़र आते हैं –
रंगरेजा, रंगरेजा, रंगरेजा, रंगरेजा......
कुन फाया कुन, कुन फाया कुन, फाया कुन फाया कुन,
फाया कुन फाया कुन
जब कहीं पे कुछ नहीं भी नहीं था / वही था, वही था
वही था वही था
वो जो मुझ में समाया / वो जो तुझ में समाया / मौला
वही वही माया....
रंगरेजा रंग मेरा तन मेरा मन/ ले ले रंगाई चाहे तन
चाहे मन (रॉकस्टार)
‘कतिया
करूँ’ एक पंजाबी लोकगीत है। इस लोकगीत की
विशेषता यह है कि आप इसके मुखड़े में कुछ भी जोड़ते चले जाइए और इसे गाते जाइए। इस
लोकगीत के मुखड़े में बेहतरीन शब्दों को जोड़कर कामिल जी ने सूफ़ी अंदाज़ का बहुत ही
उम्दा गीत बनाया है। यह बड़ा ही अर्थ पूर्ण गीत है। कतिया करूँ यानी रूई का कातना, यह
सूफी/ पीर/ मुरीद द्वारा गाए जाने वाली पंक्ति है। यहाँ चरखे का घूमने से तात्पर्य
साँस का चलना है और रूई कातना यानी उस ऊपर वाले के नाम की माला जपना है –
कतिया करूँ / तेरा रूँ कतिया करूँ / सारी रातें
कतिया करूँ ..
ऐ तन मेरा / चरखा होवे / होवे उल्फ़त यार दी .... यारा
बुल्ले लुटिया करूँ... (रॉकस्टार)
कामिल
जी का राँझना फ़िल्म का ‘पिया मिलेंगे’ गाना में दर्शन की प्रधानता दिखाई देती
है। परम शक्ति से मिलने का अहसास दिलाता यह गीत कुछ इस प्रकार है –
जिसको ढूँढें बाहर-बाहर /वो बैठा है भीतर छुप के /
तेरे अंदर एक समंदर /
क्यूँ ढूँढें दुबके-दुबके / अक्ल के पर्दें पीछे
कर दे/ घूँघट के पट खोल
तोहे पिया मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेंगे.. / तोहे पिया मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेंगे.... (राँझना)
स्त्री चरित्र को बयाँ करते गीत – हमारे समाज में स्त्री की स्थिति पहले से ही दोयम दर्जें की रही है। स्त्री के अनेक रूप, उसके मन में उठ रहे विविध भाव-अंतर्द्वंद आदि को बड़ी ही सहजता से इरशाद जी ने अपने गीतों में पिरोया है। फिल्मों की कहानियों में भिन्न-भिन्न स्त्री पात्र होते हैं जो संपूर्ण स्त्री वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी संवेदनाओं को अर्थ पूर्ण ढंग से कम शब्दों में गीतों के माध्यम से जनता तक पहुँचाने का काम इरशाद जी ने बखूबी किया है। इरशाद जी की पहली फिल्म ‘चमेली’ के सभी गाने लोकप्रिय हुए। चूँकि यह फिल्म एक कॉल गर्ल की कहानी पर आधारित है तो यह कहानी ‘भीगी हुई कोई शाम वो’ गाने में नज़र आती है, जो बहुत गहरा अर्थ लिए हुए है –
भीगी हुई कोई शाम वो/ महका
हुआ कोई नाम वो
बिन बात ही होती हैं
नीलाम वो / मशहूर हैं फिर भी बदनाम वो.....
वो रौशनी, वो आग हैं या फिर कोई चराग हैं? / जिसे
धीरे-धीरे हैं जलना / जिसे इस तरह ही हैं चलना / किसी मोड़ पे वो आज भी, कंदील-सी
जलेगी /शहर की धूप-सी बेवक्त ही ढलेगी।
सूफ़ियत
के साथ रोमानियत का मेल ‘कॉकटेल’ के ‘तुम्हीं हो बंधु,
सखा तुम्हीं’ गाने में
देखा जा सकता है।
यारा तेरे सदके इश्क़ सिखा / मैं तो आयी जग तज के
इश्क़ सिखा......
तुम्हीं दिन चढ़े, तुम्हीं दिन ढले तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्हीं।
इस गीत की आगे की पंक्ति स्त्री के स्वतंत्र होने
के भाव को कुछ यूँ बयाँ करती है –
जग मुझपे
लगाए पाबंदी / मैं हूँ ही नहीं इस दुनिया की.....(कॉकटेल)
इसी
तरह से ‘हाईवे’ का गाना ‘पटाखा गुड्डी’ भी एक ऐसी ही लड़की के भावों को कहता
नज़र आता है। नायिका दुनिया से बेखबर हो गई है। वह एक उड़ान में है और स्वयं की स्वतंत्रता
को अनुभव करते हुए कहती है कि –
ओ जुगनी हो / पटाखा गुड्डी हो / नशे में उड़ जाए रे
हाय रे...
उसकी कदम-कदम रखवाली / ऐंवे लोक-लाज कि सोच सोच के
क्यूँ है आफत डाली....
जुगनी रुख पीपल दा होई / जिसनु पूजे ता हर कोई / जिसदी
फ़सल किसी ना बोयी /
घर भी रख सके ना बोयी /रस्ता नाप रही मरजानी / पत्ती
बारिश का है पानी/
जब नज़दीक जहाँ दे आनी / जुगनी मैली सी हो जानी...
(हाईवे)
एक और फिल्म ‘टाइगर ज़िंदा है’ का
गीत ‘तेरा नूर’ स्त्री चरित्र, उसके जीवन के बारे में बहुत कुछ कह जाता है।
यह गीत बहुत ही गहन अर्थ लिए हुए है –
हो अल बरी / तेरा आदम मुझको / दिखलावे की चीज़ बनाए
/ क्यों मुझको मेरे जिस्म से आगे समझ ना पाए / हो अल वाली / बोलो ऐसा क्यूँ है
मुझसे पैदा हुआ है जो वो / हर पल हर दम मुझको कमज़ोर बताये......मुझको में कोई बात
नहीं कोई औकात नहीं /तू ही तो है शान मेरी / तू ही है गुरूर क्यूँ दूर.. तेरा
नूर.. (टाइगर ज़िंदा है)
स्त्री सबके लिए जीती है लेकिन
वह बंधन में नहीं जीना चाहती है। वह अपनी स्वतंत्रता चाहती है। अपने मन की सुनना
चाहती है –
बहता है मन कहीं / कहाँ
जानती / कोई रोक ले यहीं
भागे रे मन कहीं /आगे रे
मन चला जाने किधर जानूँ ना (चमेली)
बिना मुखड़े-अंतरे का गीत – ‘रॉकस्टार’ एक
बेहद सफल अलबम रहा। इसका गीत ‘फिर से उड़ चला’ एक अलग ही किस्म का गीत है।
प्रायः सभी गीत में मुखड़ा और अंतरा होता है लेकिन इस गाने में कोई मुखड़ा-अंतरा
नहीं है। हंस ध्वनि राग पर आधारित रहमान जी के बनाए इस गीत की विशेषता यह है कि यह
धुन बस चलती चली जाती है। इस फिल्म का किरदार अपने सपने की बात कर रहा है, उड़ने की
बात कर रहा है। इस धुन के मनमोहक बोल इस प्रकार हैं –
फिर से उड़ चला / उड़ के छोड़ा है जहाँ नीचे मैं तुम्हारे अब हूँ हवाले /अब दूर-दूर लोग-बाग़ मीलों दूर / ये
वादियाँ......इत्ते सारे सपने क्या कहूँ / किस तरह से मैंने तोड़े हैं छोड़े हैं /क्यूँ
/फिर साथ चले, मुझे ले के उड़े /ये क्यूँ...... कभी डाल-डाल,
कभी पात-पात मेरे साथ-साथ... रंग बिरंगे वहमों में मैं उड़ता फिरूँ
(रॉकस्टार)
कई मनोभाव एक साथ – प्रायः
देखा गया है मिलन या विरह के भाव प्रेम
गीत में पाए जाते हैं। लेकिन कबीर सिंह के ‘बेख़्याली’ गीत में बेइंतहा प्यार,
मिलना-बिछड़ना, नाराज़गी, गुस्सा, दर्द, ज़िद आदि बहुत से भाव एक साथ प्रस्तुत हुए है
–
बेख़्याली में भी तेरा ही ख्याल आ/ ये क्यूँ बिछड़ना
है ज़रूरी ये सवाल आये /
तेरी नजदीकियों की ख़ुशी बेहिसाब थी / हिस्से में
फासले भी तेरे बेमिसाल आये (कबीर सिंह)
(कामिल जी की डायरी से साभार)
परिस्थिति के अनुकूल (सिचुवेशनल) गीत – विभिन्न
परिस्थितियों के अनुसार कुछ गीत बहुत ही सहज एवं सुन्दर बन पड़े हैं। ‘लव आजकल’
फिल्म में एक सिचुवेशन ऐसी है जब प्रेमी-प्रेमिका का ब्रेक अप हो जाता है। लेकिन
जब मिलते हैं तो उस बात को याद नहीं करना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में गाने के
बोल कुछ इस प्रकार है –
चोर बाज़ारी दो नैनों की / पहले थी आदत जो हट गई/ प्यार
की जो तेरी मेरी / उम्र आई थी वो घट गई.... / आज़ाद हूँ मैं तुझसे / आज़ाद है तू
मुझसे / हाँ जो जी चाहे / जैसे चाहे करले आज यहीं... (लव आजकल)
‘जब हेरी मेट सेजल’ का नायक एक
टूर ओपरेटर है। इसलिए वह एक स्थान पर नहीं रूकता। वह तो बस बंजारों की तरह घूमता
ही रहता है। इस किरदार को बयाँ करते सटीक शीर्षक (‘सफ़र’) एवं सार्थक शब्द इस
प्रकार है –
मील पत्थरों से मेरी दोस्ती है / चाल क्या है राह
मेरी जानती है ......जब से गाँव से मैं शहर हुआ / इतना कड़वा हो गया कि शहर हुआ.../
सफ़र का ही था मैं सफ़र का रहा
(कामिल
जी की डायरी से साभार)
‘कबीर सिंह’ फ़िल्म में
प्रेमी-प्रेमिका अलग-अलग शहर में रहते हैं और प्रेम करने वालों को तो वही स्थान
बेहतर लगता है जहाँ उनका साथी उनके साथ हो बस....
बातें ज़रूरी हैं / तेरा मिलना भी ज़रूरी / मैंने
मिटा देनी ये जो तेरी मेरी दूरी..... / तू पहला पहला प्यार है मेरा... / वो शहर
बड़े / होंगे बोरियत भरे / रहता नहीं जिनमें तू संग मेरे खबर तुझे भी है ये / रौनकें
सभी होती तेरे होने से / तेरे बिना तन्हा कोई क्या करे / ऐसे सभी शहरों पे मुझको
तरस है आता बड़ा / तेरे लिए मैं ना जहाँ खड़ा.....
एक सीधे-सरल स्वाभाव का पहलवान ‘सुल्तान’
अपनी पत्नी के लिए अपने भाव को अभिव्यक्त करते हुए कहता है –
ना वो अखियाँ रूहानी कहीं / ना वो चेहरा नूरानी
कहीं / कहीं दिल वाली बातें भी ना / ना वो सजरी जवानी कहीं / जग घूमेया थारे जैसा
ना कोई (सुल्तान)
प्रायः यह देखा गया है कि लोगों
को दूसरों के जीवन में दखल देने की आदत होती है। वह हर जगह सही-गलत के पाठ पढ़ाते
रहते हैं। ऐसे में किसी भी नौजवान, जो कि स्वाभाव से विद्रोही है उसे यह बात पसंद
नहीं आती, जो स्वाभाविक है। ऐसे में वह विद्रोही मन ‘सद्दा हक़,
एथे रख’ कह उठता है –
तुम लोगों की/ इस दुनिया में /हर कदम पे /इंसा गलत
/ मैं सही समझ के जो भी कहूँ / तुम कहते हो गलत / मैं गलत हूँ / फिर कौन सही /फिर
कौन सही / मर्जी से जीने की भी मैं / क्या तुम सबको मै अर्जी दू / मतलब की तुम
सबका मुझपे / मुझसे भी ज्यादा हक़ है /
सद्दा हक़, एथे
रख / सद्दा हक़, एथे रख (रॉकस्टार)
कई बार आप अपनी बात को-अपने
ज़ज़्बात को-व्यक्त करने का प्रयास करते हैं परंतु कभी-कभी आप अपनी बात को खुल कर बयाँ
नहीं कर पाते। और फिर आपको लगता है –
जो भी मैं कहना चाहूँ / बर्बाद करें अल्फाज़ मेरे ...
कभी मुझे लगे की जैसे / सारा ही ये जहान है जादू /
जो है भी और नहीं भी है ये / फ़िज़ा, घटा,
हवा, बहारें / मुझे करें इशारें ये / कैसे
कहूँ, कहानी मैं इनकी (रॉकस्टार)
लोरी – ‘सूहा साहा’ राजस्थान और पंजाब के बॉर्डर
क्षेत्र में बोली जाने वाली क्षेत्रीय भाषा का शब्द है। कामिल जी ने इस शब्द का प्रयोग अपने एक लोरी में
गीत के मुखड़े के रूप में किया है। सूहा अर्थात् लाल, साहा यानी खरगोश मतलब ‘सूहा
साहा’ का पूरा अर्थ हुआ लाल खरगोश। माँ द्वारा गायी गई यह लोरी ममता में डूबी,
पवित्र, सच्ची और बहुत ही नाज़ुक दुआ के रूप में नज़र आती है। हर माँ के दिल से
निकली यह लोरी सुनने वाले के सीधे दिल में उतर जाती है –
मैना ने सूहा साहा ले जाना खोए के / मीठी-मीठी
खेती में खेलन हो / तोता बोले पेड़ों पे, पेड़
से/ पूड़ी से सूहा साहा नींदन में ओखा ना/
हो संगी-साथी हँसू ने थारे हो ना / हो
सूहा साहा अम्मा का / रैना, / कारी-कारी कोलाँ सी रैना / नींदी
तोला-तोला सी नैना / तारों का बिछौना, चैन से सोना / गोटा-गोटा
गुदड़ी में घूमेगा-घामेगा / सूहा साहा मैना ने ले जाना, ओ....पूछे
वो देखूँ तेरे ही बारे क्यूँ ना सोए?/ क्यूँ तू रोए ?
/ क्यूँ तू खोए यूँ परदेस में?... (हाईवे)
जब बच्चे ने माँ से इतनी मीठी
लोरी सुनी हो और बड़े होने पर वह अपनी माँ से दूर हो तो बच्चे के मन से ये बोल निकल
पड़ते हैं –
आज भी कोई चोट लगे तो याद आती हो,.....तुम माँ, मेरी माँ..../ कोने को थामे तेरे आँचल
के / बेफ़िक्रा मैं सो जाता था / मेरे दिल में क्या है तेरे बिना, माँ?/....जो हो संग तू ना तो हो जग सूना / प्यार
इतना जताती हो तुम / आज भी कोई साथ रहे तो याद आती हो /.... तुम माँ...मेरी माँ,
मेरी माँ ... (यारियाँ)
इरशाद जी ने कुछ दोस्ती के, कुछ मस्ती
भरे गीत भी लिखे हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –
1.
मटरगश्ती खुली सड़क में
/ तगड़ी तड़क भड़क में /ओले गिरे सुलगते से / सड़क में / छतरी न थी बगल में / आया ही न
अकल में / के भीगे हम / या भागे हम अकड़ में (तमाशा)
2.
चढ़ी मुझे यारी तेरी ऐसी
जैसे दारू देसी / खट्टी-मीठी बातें हैं नशे-सी (कॉकटेल)
3.
यारियाँ .....मर्ज़ भी
देती / चैन भी है देती / दर्द भी है देती.... ना छोड़े यारियाँ (कॉकटेल)
4.
यारों में नशे में हूँ.....
मैं शराबी, मैं शराबी / (कॉकटेल)
डॉ. कामिल ने क्षेत्रीय भाषा के
शब्दों, लोकगीतों आदि का सफल प्रयोग तो किया ही है। साथ ही उन्होंने अन्य कवियों-शायरों
की रचनाओं के भाव भी अपने गीतों के माध्यम से आम जनता तक पहुँचाने का प्रयास भी
किया है। बाबा फरीद (
हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन गंजशकर ) द्वारा लिखे ‘दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस’ की आस को अपने गीत ‘नादाँ परिंदे’ में कुछ यूँ प्रस्तुत
किया है –
.....कागा रे, कागा रे, मोरी इतनी अरज तोसे / चुन-चुन खाइयो माँस
/ अरजिया रे, खाइयों ना तू नैना मोरे / मोहे पिया के मिलान की आस / ओ नादाँ परिंदे घर आजा (रॉकस्टार)
डॉ. इरशाद कामिल के गीतों के
विविध आयामों से तो आप परिचित हो चुके। अब बात करते हैं उनकी प्रकाशित पुस्तकों की।
अब तक उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हुई है।
पुस्तकें –
(1)समकालीन हिन्दी कविता : समय और समाज – इस आलोचनात्मक पुस्तक में लेखक ने समकालीन कवियों और उनकी काव्य दृष्टि पर विचार किया है।
(3)एक महीना नज़्मों का (2015) – यह पुस्तक रूमानियत से भरी रंग-बिरंगी नज़्मों का गुलदस्ता है। उसमें से एक खूबसूरत रचना की कुछ पंक्तियाँ देखिए –
मैं उसका हो
भी चुका और उसे ख़बर भी नहीं
इलाही इस ख़बर
से बेख़बर करें मुझको
वो इस वहम में
रहे कि किसी की नहीं वो
मैं इस यकीं
पे मरूँ मैं सिर्फ उसी का हूँ।
(4)काली
औरत का ख़्वाब (2018) – यह एक अलग तरह की पुस्तक है।
प्रत्येक गीत के जन्म के पीछे कोई न कोई कहानी जरूर होती है। इस पुस्तक में इरशाद
जी ने अपने गीतों के निर्माण के खट्टे-मीठे, दिलचस्प किस्से-कहानियों से पाठकों को
रूबरू करवाया है। यहाँ काली औरत से तात्पर्य फिल्म फेयर से है यानी पुरस्कार में
दी जाने वाली काले रंग वाली औरत की मूर्ति। इसे ‘द ब्लैक लेडी’ भी कहा जाता है। इस
प्रकार कामिल जी के गीतों का इतिहास तैयार हो गया।
पुरस्कार / सम्मान – ऐसे
उम्दा गीतकार/लेखक को उनके बेहतरीन योगदान के लिए विभिन्न पुरस्कारों सम्मानों से
भी नवाज़ा गया है। उन्हें तीन फ़िल्म फ़ेयर, दो
ज़ी सिने, दो गीमा, दो मिर्ची
म्यूज़िक अवार्ड प्राप्त हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त स्क्रीन, आइफा, अप्सरा, बिग
एण्टरटेनमेण्ट, ग्लोबल इण्डियन फ़िल्म एवं टीवी अवार्ड एवं दादा साहेब फाल्के फ़िल्म फॉउण्डेशन अवार्ड जैसे अनेक
छोटे-बड़े फ़िल्मी पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। इन्हें ‘शैलेन्द्र सम्मान’ से भी
सम्मानित किया गया है।
वैसे तो
डॉ. साहब के गीतों का विश्लेषण-विवचेन इतने सीमित पृष्ठों में करना मुश्किल है। यह
लेख इनके समस्त सृजन पर विहंगम दृष्टिपात है। इनकी रचनाओं में इतना विषय-वैविध्य,
इतनी गहन अनुभूति है कि उनके हर एक अलबम को लेकर एक पुस्तक तैयार की जा सकती है।
साहित्य की गहन समझ रखने वाले, साहित्य में डूबे रहने वाले डॉ. इरशाद कामिल ने सिनेमा को साहित्य के संस्पर्श से अधिक महत्त्वपूर्ण बनाने का सफल प्रयास किया है। साहित्य को व्यवसाय के साथ जोड़ते हुए अपनी संस्कृति, अपनी अस्मिता हिन्दी भाषा के प्रति आदर व्यक्त करते हुए हिन्दी के प्रचार-प्रसार का इससे अच्छा उदहारण कोई और हो ही नहीं सकता। अर्थपूर्ण, सुन्दर, सुनियोजित, सटीक एवं काव्यात्मक शब्दों को गीतों में पिरोकर इन्होंने नई पीढ़ी को एक रास्ता दिखाने का प्रयास किया है। उनके गीतों के द्वारा आम जनता लोकगीतों, क्षेत्रीय भाषा के शब्दों से तो परिचित हुई ही है, इसी के साथ बुल्ले शाह, शाह हुसैन, बाबा फरीद, कबीर, तुलसी, सूर आदि के साहित्य की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, इस बात को डॉ. कामिल ने अपने गीतों में प्रयोगकर सिद्ध किया है। डॉ. इरशाद कामिल एक ऐसी शख़्सियत है जो हमें प्रेरणा देते हैं कि साहित्य का अध्ययन सिर्फ़ किताबों तक, पाठ्यक्रमों तक अथवा परीक्षाओं तक ही सीमित नहीं है, इसका सही ज्ञान आपको व्यवसाय के साथ शौहरत की बुलंदियों तक भी पहुँचा सकता है और समाज में नये आयाम स्थापित करके नई पीढ़ी को जीवन मूल्यों, आदर्श की सीख देने में भी सहायक है।
सब पूरा होकर
ख़त्म हुआ, जो आधा है वो ज़िन्दा है
मेरा इश्क़
अधूरा होने पर ना नादिम ना शर्मिंदा है
(डॉ. इरशाद
कामिल)
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
इरशाद कामिल याने इस ज़माने के "गुलजार" वर्तमान में अच्छे गीतकारों का टोटा पड़ा हुआ है ऐसे में इरशाद कामिल,प्रसून जोशी,मनोज मुंतशिर, स्वानंद किरकिरे कुछ ऐसे गीतकार हमें मिल गए है जो हमें स्तरीय गीत भी सुनने को मिल रहे है । पूर्वा तुम्हारा यह लेख बहुत अच्छा लगा । इरशाद जी की प्रतिभा के प्रत्येक पहलू पर तुमने प्रकाश डाला है । आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेख अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंविस्तृत व सम्पूर्ण जानकारी।
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