शनिवार, 14 नवंबर 2020

लघुकथा

 


बेटे घर लौट आओ

दीपावली का त्यौहार। रोशनियों की झगमगाहट। चारों तरफ खुशी और उमंग का वातावरण।

बाबू जीवन लाल अपनी बैठक से सबको हँसते-खेलते देख रहे थे। काफी दिनों बाद पूरा परिवार इकट्ठा हो पाया था। शेष समय तो सब अपने-अपने कामधंधों में मशगूल रहते थे।

लेकिन जीवनलाल जी को एक कमी खल रही थी। मंझला विनोद साथ नहीं था।

विनोद बचपन से ही शरारती था। गलत संगत में पड़कर, पढ़-लिख न पाया था। दुकान पर बैठा दिया था। पर वह मनमानी करता। बाद में स्वयं की पसंद से शादी कर अलग हो गया। इस बात ने जीवनलाल जी का दिल ही तोड़ दिया था।

विवाह के बाद ही विनोद पत्नी को लेकर ससुराल में शिफ्ट हो गया था। तब से बातचीत,  आना-जाना सब बंद था। घर में सबकी इच्छा विनोद से मिलने की होती, परंतु जीवनलाल जी के डर से कोई कुछ न कहता।

आज, जीवनलाल जी सब बेटे-बहू, बच्चों को साथ देख कर मन ही मन रो पड़े। काश ! आज विनोद, बहू और बिटिया सची साथ होते तो कितना अच्छा होता।

चश्मा निकाल कर उन्होंने अपने आँसू पोंछे फिर बड़े बेटे को आवाज दी, “भयला, विनोद को फोन तो लगा बेटा और कह दे कि त्यौहार में सबके साथ चार दिन आकर रह ले।”

घर के सब आश्चर्य भरी नजरों से उन्हें देख रहे थे। मन ही मन खुश हो रहे थे।

हालाँकि वे जानते थे कि विनोद जिद्दी है, नहीं आयेगा। फिर भी उनके मन से आवाज निकल रही थी, बेटा घर लौट आओ।

ऐसा सोचते हुए उनकी आँखें भर आयी। वे जानते थे कि आज रात उन्हें नींद नहीं आयेगी।

आँखें किवाड़ पर ही लगी रहेगी, प्रतीक्षा रत।

 


महेश राजा

वसंत 51,कालेज रोड

महासमुंद, छत्तीसगढ़

1 टिप्पणी:

  1. पिता के मन की पीड़ा को बहुत ख़ूबसूरती से शब्दों में बांधा है महेश जी ने । हार्दिक बधाई।

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