बुधवार, 30 जुलाई 2025

आलेख

प्रेमचंद के देसिल बयना : संदर्भ गुल्ली डंडाका

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

भरत मुनि ने काव्यलक्षण के संदर्भ में काव्यभाषा के अभीष्ट गुणों के रूप में मृदु और ललित शब्दयोजना तथा गूढ़शब्दार्थहीनता अथवा सहज अभिव्यक्ति के साथ जनपद-सुखबोध्यता का विशेष रूप से उल्लेख किया है। क्लिष्टता और श्लिष्टता के आभिजात्य के स्थान पर उन्हें जनपद अथवा जनसाधारण की सुखबोध्यता की अधिक चिंता थी क्योंकि उनका संबोध्य पाठक/ दर्शक/ श्रोता वही था। साहित्य को व्यापक जनता से जुड़ने के लिए जनपद-सुखबोध्य भाषा अपनानी पड़ती है। वहीं से उसे सहजता और ताज़गी मिलती है। विद्यापति इस सहजता और ताजगी को देसिल बयनामें पाते हैं जो सब-जन-मिट्ठा है, तो तुलसीदास भाखाकी भदेस भनितिमें क्योंकि उसी से सुरसरि-सम- सब-कहँ-हित सध सकता है। प्रेमचंद का संबोध्य पाठक भी क्योंकि यह सबही है इसलिए उनकी भनिति का भदेस होना या अभिव्यक्ति का देसिल होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि प्रेमचंद भद्रलोक की तत्समता के नहीं, वरन जनपद की तद्भवता और देशजता के कथाकार हैं। इसमें संदेह नहीं कि तत्सम भद्रलोक भी उनकी रचनाओं में लगातार उपस्थित रहता है, लेकिन स्वयं रचनाकार की पक्षधरता सदा तद्भव जनपद के साथ है।

प्रेमचंद जब साहित्य के संबंध में यह कहते हैं कि “साहित्य न चित्रण का नाम है, न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का” तो वे प्रकारांतर से जनपद-सुखबोध्यता अर्थात देशजता की माँग कर रहे होते हैं। भाषा में यह देशजता सायास नहीं लाई जा सकती, बल्कि इसके लिए देहात, देहाती प्रकृति और देहाती मन से तादात्म्य ज़रूरी है। प्रेमचंद ने ग्रामीण जन की बोली-बानी में निहित ऊर्जा का दोहन करके ही अपनी कथाभाषा का गठन किया है।

यहाँ यह दुहराना उचित होगा कि “प्रेमचंद की सफलता का रहस्य बहुत कुछ उनकी भाषा है। पहले वह उर्दू में लिखते थे, इसलिए कुछ लोग कह देते हैं, उनके गद्य पर उर्दू की छाप है। प्रेमचंद जैसे यथार्थ के विद्यार्थी के लिए उर्दू में बहुत दिन तक लिखना संभव न था। प्रेमचंद के ग्रामीण पात्रों की भाषा देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा । ×× देहाती बोली और हिंदी के एकीकरण में उन्हें इतनी सफलता मिली है कि गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंद के किसानों की बात सुनकर उसे अस्वाभाविक नहीं कह सकता। ×× परंतु प्रेमचंद किसानों की बातचीत के लिए ही देहात से शब्द नहीं लेते; उनकी भाषा का गठन ही उस देहाती बोली की भूमि पर हुआ है। जो सुंदर मुहावरे, कहावतें, उपमाएँ और हास्य के पुट उनके गद्य में हमें मिलते हैं, उन्हें प्रेमचंद ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं । ×× प्रेमचंद की भाषा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जाते हैं। सारी बात अनुभव और सचाई की है। प्रेमचंद जनता को जानते थे, उसकी भाषा को जानते थे; वहीं से उन्हें शक्ति मिली है।” (डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद, 1941, पृष्ठ 138)

देहाती भाषा की दृढ़ भूमि पर निर्मितप्रेमचंद के गद्य की देशजता उनकी सभी कृतियों में देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए यदि छोटी सी कहानी गुल्ली डंडापर विचार करें तो प्रेमचंद की भाषा का देशज पक्ष सहज ही उजागर हो सकता है।

गुल्ली डंडाअपने-आप में आभिजात्य और देशजता के आमने-सामने की कहानी है । प्रेमचंद की अपनी देशजता आरंभ से ही प्रकट होने लगती है। जिस लेखक की आरंभिक कहानियों को ही संक्रामक सिडिशनसे भरपूर मानकर ज़ब्त कर लिया गया हो, उसने राजद्रोह की अभिव्यक्ति का देशज ढंग इस तरह खोज लिया कि “ हमारे अंग्रेज़ीदाँ दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है” और इस तरह गुल्ली डंडा भारतीयता के आग्रह का प्रतीक बन जाता है। लेखक विस्तार से विलायती खेलों, विशेषकर क्रिकेट, से गुल्ली-डंडे की तुलना करके प्रतिपादित करता है कि “अंग्रेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो?” यह है प्रेमचंद का ठेठ देसी व्यंग्य !

देसिल बयनाकी मिठास गुल्ली डंडाके एक-एक वाक्य में भरी है। एक ओर जी लोट-पोट हो जाता है’, ‘बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है’, ‘गला छुड़ाने के लिए चालें चलीं’, ‘दाँव देकर जाओ’, ‘पदाया तो बड़े बहादुर बन के, पदने की बेर क्यों भागे जाते हो’, ‘चाँटा जमा दिया’, ‘डंडा जमा दिया’, ‘मैं मारे खुशी के फूला न समाता था’, ‘जीट उड़ा रहा था’, ‘स्थान की काया-पलट हो गई थी’, ‘पाँच हाथ के काले देव’, ‘वह ठहरा टके का मजदूर’, ‘ताल ठोंकने की नौबत आईऔर तमतमाया हुआ चेहराजैसी ग्रामीण-सुलभ मुहावरेदानी है, जो अभिव्यक्ति को अर्थगर्भित तथा चित्रात्मक तो बनाती ही है, लोक मानस और लोक संस्कृति को भी अनायास साकार करके भारत के देसीपन को उभारती है। दूसरी ओर मृदु, ललित, सरल, सहज और जनपद-सुबोध शब्दों का चयन भी अपनी सोद्देश्यता से चमत्कृत करता है, जैसे थापी (क्रिकेट का बैट), गोइयाँ (खेल में पार्टनर), झेंप, जने, भाग, बदा, चटपट, झिझक, हिचकिचाहट, बेदिली, चिराग और पड़ाव आदि।

देसी मन के साथ लेखक के तादात्म्य का प्रमाण है इस कहानी में गुल्ली- डंडे के खेल से संबंधित लोकनिर्मित पारिभाषिक शब्दावली का सर्जनात्मक प्रयोग, जिसके कारण पाठक सहज ही आख्याता के साथ खेल-रस में लीन हो जाता है। साधारणीकरण कहें या संप्रेषण - इस भदेस भनिति के सहारे अत्यंत स्वाभाविक रूप में घटित हो सका है। गुल्ली, डंडा, पदना, पदाना, लपकना, दाँव देना, दाँव लेना, नई-पुरानी-छोटी-बड़ी-नोकदार-सपाट-गुल्ली, गुच्ची में गुल्ली रखकर उछालना, हुच जाना, ओछी चोट पड़ना, दोबारा टाँड लगाना, अचूक निशाना, गुल्ली लोक लेना और गुल्ली का ज़मीन में लगकर उछलना आदि शब्द और अभिव्यक्तियाँ अधिकतर देशज ही हैं; इनमें तद्भवता तो संभव है, लेकिन तत्समता की तो मानो इस भाषा को कहीं दरकार ही नहीं।

यों तत्समता भी कई जगह आई है इस कहानी में । पर वह प्रायः संवाद का हिस्सा नहीं, विवरण और अंतर्द्वंद्व का हिस्सा है, वह भी देशज और तद्भव प्रयोगों के साथ सामंजस्यपूर्वक। जैसे मेरे मित्रों की फैली हुई आँखें चकित मुद्रा में बतला रही थीं’, ‘मधुर बाल-स्मृतियाँ हृदय में जाग उठीं’, ‘बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ बाँहें खोले अपने पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं। तत्समता का दूसरे प्रकार का प्रयोग परिहास और व्यंग्य उत्पन्न करने के लिए किया गया है। जैसे “पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं। अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है। लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है।” अथवा “मैंने गला छुड़ाने के लिए चालें चलीं जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं।” देशज और तद्भव प्रयोगों से भरी कहानी में यह तत्समता शैलीय स्तर पर विपथन के उदाहरण के रूप में भी देखी जा सकती है। वैसे तत्समता के सहारे व्यंग्य पैदा करना भी तत्समता की हेठी करना ही है।

देशज अभिव्यक्ति का सौंदर्य कई स्थलों पर समांतर प्रयोगों में भी उभरा है, जैसे क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का भय नहीं रहता?’ xx ‘अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता। इसी प्रकार धाँधली- घपला-धोखा का प्रयोग द्रष्टव्य है, “मैं तरह-तरह की धाँधलियाँ कर रहा था। ×× बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता। ×× लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था।”

इतना ही नहीं, प्रेमचंद ने सादृश्य विधान भी देशज भाषा, देशज जीवन और देशज रुचि से चुने हैं। उदाहरण के लिए, “बंदरों की-सी लंबी-लंबी, पतली-पतली उँगलियाँ; बंदरों की-सी ही चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी हो, उस पर इस तरह लपकता था जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है।” ×× “तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था।... मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। ... कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है।”

आभिजात्य और देशजता के इस आमने-सामने में अंततः देशजता का ही कद बड़ा दिखाई देता है; चाहें तो इसे अवर्ण और निम्नवर्ग के कद के रूप में भी देख सकते हैं – “मैं उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। हममें कोई भेद न था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।” इसमें संदेह नहीं कि वस्तु और भाषा, दोनों ही स्तरों पर देशजता ने ही प्रेमचंद को बड़ा रचनाकार बनाया है।

अततः डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में “प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं। अपनी भाषा के लिए, अपने चित्रण के लिए, वह आवश्यकतानुसार अपने देहात के अनुभव पर निर्भर हो सकते थे और उसने उन्हें कभी धोखा नहीं दिया।” 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद



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