बुधवार, 30 जुलाई 2025

संस्मरण


एक था हृदयपाल सिंह .....

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

हृदयपाल सिंह यानी हृदयपाल सिंह तोमर। बाद में हृदयपाल सिंह ने अपने नाम के साथ 'तोमर' जोड़ लिया था। 'थे' नहीं 'था' इसलिए क्योंकि वह काशी विद्यापीठ में मेरा सहपाठी था। 'थे' कहना अटपटा लगेगा। सन् 1973 में हम दोनों ने काशी विद्यापीठ में हिन्दी में एमए में प्रवेश लिया था। शंकर चौबे भी हमारे सहपाठी मित्र थे। हृदयपाल सिंह की बात करने के लिए पहले शंकर चौबे को मंच पर लाना आवश्यक है। शंकर चौबे ने भी हमारे साथ ही प्रवेश लिया था। ये मेरे दोनों मित्र अब इस दुनिया में नहीं हैं। शंकर चौबे का तो पक्का मालूम है। परंतु हृदयपाल सिंह के बारे में वर्षों पहले किसी ने मुझे बताया था कि हृदयपाल सिंह अब नहीं हैं।

हृदयपाल सिंह संभवतः सीतापुर का रहना वाला था। सुना था कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक थी। परंतु जिद के कारण बनारस में स्वावलंबी जीवन जीता था। बनारस के हरिश्चंद्र कालेज से बीए करके वह काशी विद्यापीठ में एम.ए. करने आया था। बीए अच्छे अंकों से पास किया था। वह कविताएँ भी लिखता था। अपने मिलनसार स्वभाव के चलते हरिश्चंद्र कालेज में बहुत लोकप्रिय रहा। हरिश्चंद्र कॉलेज में वह अपने समय में 'भैया जी' के नाम से मशहूर रहा। पायजामा-कुर्ता पहनता था। सदा मस्ती में रहता था।

शंकर चौबे बलिया जिले के जवहीं गाँव के रहने वाले थे। हिन्दी के संत साहित्य के विशेषज्ञ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी उसी गाँव के थे। शंकर चौबे का परिवार बहुत पढ़ा-लिखा था। उनके छोटे चाचा ने बीएचयू से हिन्दी में एम.ए. किया था। कोलकाता के किसी कालेज में अध्यापक थे। वे पुस्तकों का संकलन करने में बहुत रुचि रखते थे। उनकी हिन्दी की बहुत सारी पुस्तकें शंकर चौबे के पास थीं। शंकर चौबे इससे पहले बीएचयू से दर्शनशास्त्र में एमए कर चुके थे।

हृदयपाल सिंह पढ़ने का शौकीन था। शंकर चौबे से उसकी दोस्ती का मुख्य कारण पुस्तकें थीं।

मुझमें ऐसी कोई काबिलियत नहीं थी। मैं बहुत निरीह था। इसलिए शंकर चौबे को अपने सहारे के रूप में प्रवेश के समय से ही पकड़ रखा था। शंकर चौबे और मैं हम दोनों भोजपुरिया थे। इसलिए हमारे बीच 'था-थे' का कोई चक्कर नहीं था। (मैंने खुद को निरीह क्यों कहा है, इसका खुलासा यदि कभी अपने बारे में लिख सका तब करूँगा)।

एम.ए. का पहला वर्ष मस्ती में कैसे निकल गया, पता भी न चला। मैं निजी कारणों से परीक्षा ही नहीं दे पाया। पहले वर्ष में ही रह गया।

अपने समय से परीक्षाफल आया। हृदयपाल सिंह कक्षा में पहले स्थान पर रहा और शंकर चौबे दूसरे स्थान पर रहे। यह प्रथम-द्वितीय जैसा परिणाम अनपेक्षित था। मुझे नहीं लगता कि उन दोनों ने किसी स्थान की अपेक्षा से पढ़ाई की होगी। सच तो यह है कि उस जमाने में ऐसी कोई सोच नहीं थी। हृदयपाल सिंह और शंकर चौबे के बीच तेरह अंकों का अंतर था। परंतु अब दोनों की सोच में अंतर आना स्वाभाविक था। पहले स्थान वाले को पहला स्थान बनाए रखने की चिंता तथा दूसरे स्थान वाले को पहला स्थान पाने की ललक तो मन में पैदा होना स्वाभाविक है। मुझे याद नहीं कि दोनों में प्रबल स्पर्धा का ऐसा कोई भाव पहले प्रकट रूप में कभी दिखाई पड़ा हो। परंतु अब तो आगे-पीछे होने के नाते प्रतिस्पर्धी तो बन ही गए थे।

परंतु वास्तविक संकट दूसरे रूप में आया। मेरी समझ यही कहती है कि हृदयपाल सिंह अनपेक्षित सफलता को पचा नहीं पाया - सँभाल नहीं पाया। उसकी चेतना में परम ज्ञानी होने का वाइरस घुस गया। वह कक्षा में दो को छोड़ बाकी सभी अध्यापकों से उलझने लगा। डा ब्रजविलास श्रीवास्तव, डा युगेश्वर पांडेय, डा मोहनराम यादव, गोस्वामी जी तथा डा सर्वजीत राय। विभागाध्यक्ष डा केशवप्रसाद सिंह तथा डा वासुदेव सिंह से नहीं। वह निरंतर बदमिजाज होता गया। परीक्षा का समय आते-आते इन सभी अध्यापकों ने मिलकर उसको सबक सिखाने की ठान ली। उसे सबक सिखाने के लिए उन्होंने दूसरे स्थान पर रहे शंकर चौबे को आधार बनाया। उस जमाने में दो पूरे प्रश्नपत्रों के लिए कोई बाहर का परीक्षक होता था तथा बारी-बारी से दो अंदर के परीक्षक होते थे। जहाँ तक मुझे याद है उस साल एक परीक्षक डा युगेश्वर पांडेय थे तथा दूसरे परीक्षक डा श्रीवास्तव जी थे। एक नैतिकता तो उन लोगों में थी ही कि उन लोगों ने हृदयपाल सिंह के अंक कम नहीं किए। बल्कि शंकर चौबे के अंक थोड़े बढ़ा दिए। वैसे शंकर चौबे ने भी मेहनत बहुत की थी। भाषा बहुत अच्छी लिखते थे। दूसरी तरफ हृदयपाल सिंह अपनी बदमिजाजी तथा बदगुमानी के कारण थोड़ा कमजोर भी पड़ गया था।

उसी दौरान हृदयपाल सिंह की सोच में एक बदलाव लक्षित होने लगा था। वह हिन्दी साहित्य के दो ही लोगों को मानता था। एक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा दूसरे निराला। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पांडित्य से प्रभावित था तथा निराला के अक्खड़ और फक्कड़ स्वभाव के कारण। निराला उसकी चेतना में घुस गए थे। अक्खड़पन उसमें पहले नहीं था। निराला को आदर्श मान लेने के बाद ही ऐसा हुआ था। एमए दूसरे वर्ष में था, तभी से वह भाँग का सेवन अधिक मात्रा में करने लगा था। पहले वह भाँग लेता था या नहीं, वह तो पता नहीं। परंतु उसके अच्छे स्वास्थ्य के आधार पर कहूँ, तो मुझे लगता है, पहले वह भाँग नहीं लेता होगा। भाँग के ही चक्कर में विद्यापीठ के पास मलदहिया रोड पर कई बार पुलिस वालों से उलझ गया था। भाँग के चक्कर में उसका स्वास्थ्य कमजोर पड़ने लगा था। ये सारी बातें मैं व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर लिख रहा हूँ।

    भाँग के चक्कर में वह झगड़ालू भी हो गया था। हमारे एक सहपाठी रामभक्त वैरागी जी थे। उन्होंने एक मठ में हृदयपाल सिंह को भाड़े पर एक कमरा दिला दिया था। परीक्षा नजदीक आने पर अप्रैल महीने में पुराने नोट लेने के लिए तथा विषय की थोड़ी चर्चा करने के लिए मैं हृदयपाल सिंह के कमरे पर जाने लगा था। एक दिन हृदयपाल सिंह थोड़ा पहले चला गया और मैं थोड़ी देर में पहुँचा। जाकर देखा तो वहाँ बवाल मचा हुआ था। एक तरफ हृदयपाल सिंह हाथ में सब्जी काटने का चाकू लेकर उछल रहा था तथा दूसरी ओर महंत का एक चेला हाथ में कुल्हाड़ी लिए खड़ा था। मुझे देखते ही हृदयपाल सिंह और अधिक जोश में आ गया। मेरी तो समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है! फिर हृदयपाल सिंह चला गया पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने। महंत जी बड़े समझदार व्यक्ति थे।  उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि अपने मित्र को थोड़ा समझाइए। कई महीने का भाड़ा बाकी है। माँगने  पर ये महाशय झगड़ा करते हैं। आपने देखा न! मेरा चेला पहलवान है। उससे ये लड़ने जा रहे हैं।

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निर्धारित समय पर परीक्षा हुई। परीक्षा का परिणाम आया। शंकर चौबे प्रथम स्थान पर पहुँच गए और हृदयपाल सिंह दूसरे स्थान पर। वह तो होना ही था।

इस एक घटना ने हृदयपाल सिंह के जीवन की धारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया। दोनों के बीच अंकों का कितना अंतर था, वह तो याद नहीं। परंतु इस परिणाम ने विद्यापीठ से लेकर बीएचयू तक एक हलचल अवश्य पैदा कर दी थी। इस परिणाम ने ठाकुर-ब्राह्मण विवाद का रूप ले लिया था। कहते हैं बनारस के हिन्दी जगत में ठाकुर-ब्राह्मण की गुटबाजी तो लगभग 1952-54 में अस्तित्व में आई थी, जब आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा शांतिनिकेतन से बीएचयू के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर-हेड के रूप में बुलाए गए थे। द्विवेदी जी की उस नियुक्ति को विभाग के आचार्य लोग स्वीकार नहीं कर सके थे, जिसकी वजह से द्विवेदी जी बीएचयू में अधिक दिन टिक नहीं पाए और उन्हें चंडीगढ़ जाना पड़ा था। उसी के बाद उन्होंने ठाकुर छात्रों की अपनी एक शिष्य परंपरा बनाई।

परंतु मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि वह गुटबाजी हवा में जितनी थी, जमीन पर उतनी नहीं थी। मेरे समय में ठाकुर गुट के तीन लोगों के नाम सर्वोपरि माने जाते थे - बीएचयू के डा त्रिभुवन सिंह, काशी विद्यापीठ के डा वासुदेव सिंह तथा डा विजय बलियाटिक (विजय नारायण सिंह)। परंतु उन तीनों लोगों के साथ मेरा व्यक्तिगत अनुभव बहुत भिन्न रहा। डा वासुदेव सिंह मेरे गुरु थे। उन्होंने मेरी एक बहुत बड़ी मदद की थी! वे यदि सिद्धांतत: या स्वभावत: ब्राह्मण विरोधी होते तो क्या मेरी मदद करते! डा विजय बलियाटिक की नियुक्ति विद्यापीठ में मेरे एम ए करने के लगभग एक वर्ष बाद हुई थी। फिर भी उनके साथ हमारा संबंध बन गया था। उनका भी स्नेह मुझे प्राप्त था। उनमें एक विशेष बात यह थी कि वे बड़े निर्भक और मुँहफट व्यक्ति थे। वे बिना लिहाज किए किसी को भी कुछ बोल देते थे। परंतु सबसे बड़े प्रेम से मिलते थे। उनमें भी ब्राह्मण-ठाकुर का ऐसा कोई भेद नहीं था। किसी ठाकुर का किसी ठाकुर छात्र का पक्ष लेना या किसी ब्राह्मण का किसी ब्राह्मण छात्र का पक्ष लेना या किसी विशेष अवसर पर उसकी ओर झुकना एक बात है तथा किसी ठाकुर का किसी ब्राह्मण छात्र का या किसी ब्राह्मण का किसी ठाकुर छात्र का अहित करना अलग बात है। मेरी समझ से ब्राह्मण-ठाकुर गुटबाजी उतने तक ही हुआ करती थी।

डॉ. त्रिभुवन सिंह के साथ मेरा अनुभव कुछ अलग ढंग का रहा। शंकर चौबे बड़े घुमंतू तथा मिलनसार व्यक्ति थे। बनारस में उपलब्ध साहित्यकारों, विद्वानों को खोज-खोजकर मिला करते थे। मैं तो साये की तरह उनके साथ सदा लगा रहता था। इसलिए मैं भी उनके साथ जाया करता था। परंतु शंकर चौबे की एक कमी थी। वे बड़े चंचल स्वभाव के थे। वे किसी संबंध को निभा नहीं पाते थे। मेरी स्थिति उनके उल्टी थी और आज भी है। जो संबंध बन जाता है, उसे मैं छोड़कर नहीं पाता हूँ। डा त्रिभुवन सिंह के पास भी वही मुझे ले गए थे। त्रिभुवन सिंह जी का मैं छात्र नही था। मैरी उनकी उम्र में, पद-प्रतिष्ठा में बहुत अंतर था। मेरे पास तो कुछ था ही नहीं। एक निरीहता के सिवाय। परंतु मिलने पर त्रिभुवन सिंह जी मुझे जो मान देते थे, वह मुझे बहुत अटपटा लगता था। बहुत बाद में यह विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इसमें मेरा कुछ नहीं है। यह 'ठाकुर' त्रिभुवन सिंह का संस्कार है। हमारी परंपरा में ठाकुरों में ब्राह्मणों को मान देने का एक सहज संस्कार पाया जाता है। (हालांकि अब वह बहुत कम हो गया है।) उसी संस्कार के चलते त्रिभुवन सिंह जी मुझे स्नेह के साथ-साथ मान भी देते थे। यह धारणा मेरी पहले भी थी और आज भी है।

हृदयपाल सिंह की घटना में काशी विद्यापीठ से लेकर बीएचयू तक ठाकुर-ब्राह्मण सेंटिमेंट आ ही गया था। उसी के चलते उसे लोग पीएचडी के लिए बीएचयू ले गए। डा त्रिभुवन सिंह जी के निर्देशन में उसका पंजीकरण हो गया। त्रिभुवन सिंह जी बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्होंने हृदयपाल सिंह को यूजीसी की स्कालरशिप दिला दी। उस समय 600/00 महीने की स्कालरशिप मिलती थी। उस समय यह रकम बहुत थी। परंतु मानव स्वभाव देखिए। ठाकुर छात्र ही हृदयपाल सिंह को 'ठाकुर साहब ... ठाकुर साहब' कहकर उसकी स्कालरशिप उड़ा देते थे। यह कोई छिपी बात नहीं थी। हृदयपाल सिंह की मनोदशा और अधिक बिगड़ चुकी थी। वह पहले से अधिक असहनशील और झगड़ालू हो गया गया था। बीएचयू जाने के बाद मेरी उसकी मुलाकात वर्षों तक हुई नहीं। परंतु उसके झगड़ों के किस्से मुझ तक जरूर पहुँच जाते थे। दुख होता था।

सन् 1978 में मैं भी भाषाविज्ञान में बीएचयू का छात्र हो गया। दूसरे वर्ष में पहुँचने के बाद एक दिन सुबह के सात-आठ बजे मैं अपने विभाग के पहले वर्ष के एक छात्र गंगाधर सिंह से मिलने के लिए बीएचयू के बिड़ला छात्रावास पहुँचा। मैंने अभी छात्रावास के बरामदे में कदम रखा ही था कि अचानक सामने से आकर हृदयपाल सिंह ने 'कहो बब्भन' बोलते हुए मेरी गरदन पकड़ ली। मैं तो हक्का बक्का रह गया। मुझे तो कल्पना भी नहीं थी कि वर्षों के बाद हृदयपाल सिंह मुझसे ऐसे मिलेगा। सुबह वह अपने कमरे से निकलकर मुँह में ब्रश लिए बाथरूम की ओर जा रहा था और अचानक मुझे देख लिया था। दूसरे छात्रों ने उसे अलग किया।

हृदयपाल सिंह ने मेरी गरदन पकड़ी थी, उसका दुख मुझे नहीं था। बल्कि वर्षों बाद अपने प्यारे मित्र की यह दशा (दुर्दशा) देखकर मैं अंदर तक हिल गया था। उसके शरीर का, चेहरे का सारा तेज समाप्त हो चुका था। कंकाल जैसा लग रहा था। जहाँ तक मुझे ख्याल है, उसका छोटा भाई भी उस समय हिन्दी में एमए कर रहा था। वह भी बिड़ला छात्रावास में ही रहता था। शायद वही मुझे अपने कमरे में ले गया। कुछ दूसरे छात्र भी कमरे में आ गए। उन्हें मैंने अपना परिचय दिया और उनसे हृदयपाल सिंह की इस हालत का कारण पूछा। उन लोगों ने मुझसे कहा - मिश्रा जी, इनकी समस्या का कोई अंत नहीं है। देश का प्रधानमंत्री ब्राह्मण क्यों है? प्रदेश का मुख्यमंत्री ब्राह्मण क्यों है? शिक्षामंत्री ब्राह्मण क्यों है? बताइए इनकी इस समस्या का क्या हल है!

बारिश का मौसम था। गंगा नदी में भयानक  बाढ़ आई हुई थी। अस्सी तथा लंका क्षेत्र में पानी सड़कों पर आ गया था। हृदयपाल सिंह की हालत देखकर मैं रात भर बहुत परेशान रहा। दूसरे दिन सुबह हृदयपाल के शोध-निर्देशक डा त्रिभुवन सिंह जी के घर पहुँचा। कल की घटना उन्हें बताई और उसका इलाज कराने का आग्रह उनसे किया। उन्होंने कहा - कैसी बात करते हैं! डाक्टर और दवा की बात करने पर वह सिर फोड़ने को तैयार हो जाएगा। कल शाम को यहाँ आया था। एक थैले में बूट पालिश और ब्रश लिए हुए था। कह रहा था कि दिल्ली जाऊँगा और वहाँ इंडिया गेट पर बूट पालिश करूँगा। मैंने उसे खाना लिखाया। फिर वह चला गया। साथ में थीसिस के चैप्टर भी थे। मुझे चिंता है। बाढ़ के पानी में थीसिस के पन्ने ही न फेंक दिए हों।

समय बीतता गया। एक-डेढ़ वर्ष के बाद कहीं से पता चला कि हृदयपाल सिंह की पीएचडी पूरी हो गई है और उसके गुरु डा त्रिभुवन सिंह जी ने उसे असम में किसी कालेज में रखवा दिया है। यह जान कर मन को राहत मिली।

ऐसे ही समय बीतता रहा। लगभग दो वर्ष बाद मैं शंकर चौबे के साथ अस्सी चौराहे पर खड़ा था। शाम का समय था। सामने नजर गई तो देखा हृदयपल सिंह हमारी ओर चला आ रहा है। उसका स्वास्थ्य पहले से अच्छा दिख रहा था। वह हँसते हुए हमारे पास आ खड़ा हुआ। यह अनहोनी-सी घटना थी। एक तो वर्षों बाद हम हृदयपाल सिंह को हँसते हुए देख रहे थे। दूसरे वह बड़े सहज ढंग से हम दोनों से मिला था। हम तीनों एक चाय की दुकान में गए। चाय पीते-पीते हमने बहुत सारी बातें कहीं। उसी बीच हृदयपाल सिंह को न जाने क्या सूझा कि वह बहुत भावुक होकर बोल पड़ा - ब्राह्मणों के कोप ने मुझे खा लिया। उसका यह वाक्य सुनकर हम तो स्तब्ध रह गए। मैंने कहा - यह क्या बोल रहे हो! हम क्यों तुम पर कोप करेंगे! हम तो हमेशा ही तुम्हारे मित्र हैं।

काफी देर तक तरह-तरह की बातें करने के बाद हम लोग विदा हुए। दुबारा फिर कभी हम तीनों की ऐसी मुलाकात नहीं हो पाई। कारण जीवन में असफल होने के बाद शंकर चौबे भी अपने गाँव जवहीं चले गए। बनारस से उनका भी नाता लगभग समाप्त हो गया। जीवकोपार्जन के लिए मैं चौखंबा सुरभारती में प्रूफ रीडिंग का काम करता था। एक बार किसी काम से मैं नागरी प्रचारिणी सभा में गया। वहाँ फिर हृदयपाल सिंह से मुलाकात हो गई, जिसकी उम्मीद नहीं थी। पूछने पर पता चला कि वह वहाँ अस्थायी तौर पर क्लर्क की नौकरी कर रहा है। फिर मन को चोट पहुँची। यह बदनसीब आदमी कालेज की नौकरी छोड़कर अस्थायी क्लर्की कर रहा था। सबसे दुखद बात यह थी कि इतने पढ़े-लिखे व्यक्ति की वहाँ कोई कदर न थी। बाद में और एक-दो बार मिलने गया। सभा के ही एक आदमी ने बताया कि जो भी उसका वेतन है, वह पूरा वेतन एक साथ ले नहीं पाता। उसके पास जो भी पैसा आता था, वह सब उड़ा देता था। इसी लिए आफिस वाले उसे महीने भर थोड़ा-थोड़ा पैसा देते थे। आदत उसकी वही थी। खाना कम खाना। चाय अधिक पीना और भाँग खाना।

मेरे मन में ख्याल आया कि इसको यहाँ से निकालना चाहिए। मैंने सोचा, प्रकाशक के यहाँ इसकी योग्यता के मुताबिक कोई काम मिल जाए तो अच्छा! मैं जहाँ काम करता था, वहाँ के मालिक से उसके बारे में बात की। वे तैयार हो गए और मिलने के लिए कहा। दूसरे दिन मैं हृदयपाल से मिला। उसको अपनी योजना बताई। मेरी बात सुनते ही वह भला आदमी भड़क उठा। मैं नागरीप्रचारिणी सभा नहीं छोड़ने वाला हूँ। नागरीप्रचारिणी सभा मेरी माँ है। माँ को कोई छोड़ता है! मैं समझ नहीं पाया कि यह आदमी किस मिट्टी का बना है।

वर्ष 1988 में मैं गुजरात चला आया। फिर कभी हृदयपाल सिंह से मुलाकात नहीं हो सकी। वर्षों बाद ट्रेन में बीएचयू के एक छात्र से मेरी मुलाकात हो गई। वह हृदयपाल सिंह को जानता था। उसी ने बताया कि हृदयपाल सिंह नागरीप्रचारिणी सभा के मंत्री सुधाकर पांडेय से झगड़ कर सीतापुर अपने गाँव चले गए। उसी ने बताया था कि अब वे नहीं रहे। सच क्या था, वह तो पता नहीं। यह उस लड़के की कही हुई बात थी।

खंडित रूप में ही सही, परंतु मैं हृदयपाल सिंह के जीवन से जुड़ा रहा हूँ। एक होनहार युवक के जीवन की यह परिणति मुझे भाव-विभोर और विचलित करती रही है। आज अपने मन की पीड़ा को शब्दबद्ध करके थोड़ा हल्कापन महसूस कर कहा हूँ।

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315

आणंद (गुजरात)

1 टिप्पणी:

  1. अद्भुत आपबीती और वो भी शुरू से अंत तक एक उत्तेजना से पढ़ने को बाध्य करता हुआ ।
    जिंदगी के रंग कई ये
    ज्यादा लाल कम हरे रे
    चौरास्ते हर मोड़ पर मिले
    न जाने कौन किस मोड़ पे मिले रे

    आपकी इस जीवन्त आपबीती से हमें भी कुछ सीखने को मिला इसमें कोई संदेह नहीं ।
    नमन व्याकरणेश्वर डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्र जी
    तोलेटी (हिन्दी) चंद्र शेखर, विशाखापत्तनम

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