बुधवार, 30 जुलाई 2025

सामयिक टिप्पणी

 



एक थी रिधन्या!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

एक थी रिधन्या। लेकिन रुकिए! यह किसी पुराने ज़माने की कोई सुखांत कहानी नहीं। बल्कि आज, इक्कीसवीं सदी, के तमिलनाडु के तिरुप्पुर की 27 साल की नवविवाहिता रिधन्या की दुखांत गाथा है। उसने दहेज की बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी दे दी!

रिधन्या के परिवार ने दहेज में सोने के 300 सिक्के और 70 लाख की वॉल्वो कार दी थी। 2.5 करोड़ शादी का खर्च दिया था। फिर भी उसके पति और सास-ससुर ने 200 और सोने के सिक्कों की माँग कर उसे प्रताड़ित किया। पति के घर में रहना नारकीय हो चुका था। पिता के घर भी तो नहीं लौट सकती थी। वहाँ से उसे सहन करने और समझौता करने की सीख जो मिली थी! यों, शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न हद से गुज़र गया तो 29 जून, 2025 को उसने आत्महत्या कर ली! कहानी खतम, पैसा हजम?!

भारत में आर्थिक तरक्की और कानूनी सुरक्षा के बावजूद दहेज की जड़ें आज भी कितनी गहरी हैं! 1961 के दहेज निषेध अधिनियम के बावजूद दहेज-दानव लगातार और अधिक दुर्दांत होता गया है। तमिलनाडु जैसे सुशिक्षित राज्य में इंसानियत पर भौतिकवाद को इस तरह भारी पड़ते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है! रिधन्या का मामला कोई अकेला नहीं है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, देश भर में 2022 में 6,000 से ज्यादा दहेज से जुड़ी मौतें हुईं। यानी, अकेला कानून कुछ नहीं कर सकता। हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है। दहेज की माँग (जिसे अक्सर उपहार या पारिवारिक सहायता के नाम पर छिपाया जाता है) लालच और हकदारी का जहरीला चक्र बनाती है। दूसरे परिवारों का उदाहरण देते हुए रिधन्या के ससुरालवालों का करोड़ों की कथित माँग इसका सबूत है।

रिधन्या की कहानी आर्थिक असमानता, पुरुषवादी सोच और सामाजिक दबाव के मेल की कहानी है। उसके गारमेंट व्यवसायी पिता ने भारी-भरकम दहेज दिया, लेकिन ससुराल वालों का लालच खत्म नहीं हुआ। यह मामला दिखाता है कि दहेज सिर्फ पैसों का लेन-देन नहीं, बल्कि एक ऐसी भयावह काली शक्ति है जो महिलाओं को गुलाम बनाती है और उन्हें शादी में सौदेबाजी का सामान बना देती है। रिधन्या ने पिता को भेजे अपने अंतिम ऑडियो संदेश में अपनी पीड़ा और शारीरिक-मानसिक यातना का जिक्र किया है।  उससे इस क्रूर सच का पता चलता है कि पीड़िताएँ कितनी अकेली और असहाय होती हैं। उसका कहना कि- मैं बोझ नहीं बनना चाहती - दिखाता है कि समाज बेटियों पर परिवार की तथाकथित इज्जत बचाने का कितना बड़ा बोझ डालता है!

इस त्रासदी का आर्थिक पहलू भी अहम है। तमिलनाडु को औद्योगिक प्रगति और मानव विकास सूचकांक के लिए जाना जाता है, फिर भी वह रूढ़िगत प्रथाओं का शिकार है!

भव्य विवाह और दहेज से वहाँ प्रचलित शादी के बाजारीकरण की संस्कृति (विकृति!) को समझा जा सकता है। ऐसे अनेक परिवार सामाजिक दबाव में अपनी हैसियत दिखाने के लिए कर्ज में डूब जाते हैं, फिर भी माँगें खत्म नहीं होतीं। क्या यह अचरज की बात नहीं कि इस दहेज के भिखारी परिवार की मासिक आय 20 लाख बताई जा रही है! कहना न होगा कि दहेज का रिश्ता जरूरत से ज्यादा, वर्चस्व की चाहत से है।

सयानों की मानें तो, दहेज के मामलों में सिर्फ 34 प्रतिशत में सजा होती है। साथ ही, घरेलू हिंसा का कलंक अक्सर पीड़िताओं को चुप करा देता है। रिधन्या के साथ भी तो यही हुआ न कि  माता-पिता ने उसे बोलने के बजाय सहने की सलाह दी! आखिर कब तक समाज इस तरह बहू-बेटियों की बलि लेता रहेगा?

रिधन्या की मौत समाज के लिए एक चेतावनी है। यह हमें उस भारत की सच्चाई से रू-ब-रू कराती है, जो आधुनिकता और रूढ़ियों के बीच झूल रहा है। ऑडियो संदेशों में कैद रिधन्या की आवाज़ हमसे सुनने, कदम उठाने और यह सुनिश्चित करने की माँग करती है कि कोई और बेटी अपनी जिंदगी खत्म न करे। समाज को यह मानना होगा कि बेटियों की कीमत सोने या कार से नहीं, उनकी गरिमा से है। 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

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