शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

अंक के बहाने....

 


हिन्दी और हम : बहुल संदर्भ

प्रो. हसमुख परमार

किसी भाषा के हमारे जीवन व्यवहार के विविध आयामों में व्यवहृत होने पर उस भाषा के एकाधिक रूप विकसित होते हैं। इसी तरह किसी भाषा का, भाषा के किसी रूप का, भाषारूप की किसी विशेष प्रयुक्ति का अधिकाधिक विकास इसकी प्रयोग बहुलता पर निर्भर होता है। एक बात और, कि भाषा प्रयोक्ता का भी एक नैतिक और सामाजिक दायित्त्व होता है कि वह अपने द्वारा प्रयुक्त भाषा तथा उसके किसी खास रूप का उचित-व्यवस्थित प्रयोग करें और सदैव अपने से और अन्य से इसी ‘उचित भाषा प्रयोग’ का आग्रह रखें। क्योंकि जहाँ एक ओर भाषा प्रयोक्ता भाषा को विकसित करता है वहाँ दूसरी ओर भाषा चाहे कोई भी हो, कुछ अपवादों को छोड़कर वह अपने प्रयोग के मामले में प्रयोक्ता के लिए सक्षम और विकसित होती ही है। “भाषा अपने प्रयोक्ताओं की संप्रेषण संबंधी किसी भी माँग की न तो अवमानना करती है और न उसकी आकांक्षाओं को धोखा ही देती है। वह हर परिस्थिति का सफलता के साथ सामना करने में सक्षम है। इसलिए भाषाविद् यह मानते हैं कि अपनी आंतरिक प्रकृत्ति में कोई भाषा न तो अक्षमया अपूर्णहोती है और न ही अपने व्यवहार में ‘अविकसित’ या असांस्कृतिकअक्षमया ‘अविकसित’ होते हैं-प्रयोक्ता। ....अतः जो व्यक्ति हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की तुलना में अविकसितया अक्षम’ कहते हैं वे वस्तुतः इन भाषाओं के प्रयोक्ता के सामाजिक दायित्त्व और भाषा संबंधी अस्मिता पर ही अँगुली उठाते हैं।” (अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान : सिद्धांत एवं प्रयोग, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, पृ. 53)

वैसे हर भारतीय के लिए उनकी अपनी मातृभाषा तथा हिन्दी उनके सामाजिक व्यवहार का एक मुख्य व मजबूत माध्यम रहा है। उनकी अस्मिता का एक महत्त्वपूर्ण आधार बना हुआ है; किंतु आज भूमंडलीकरण, जो हमारी प्रांतीय भाषाओं-बोलियों के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय भाषाओं के लिए भी एक चुनौती है, जिसके प्रभाव से प्रभावित हमारा जीवन-समाज-संस्कृति तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार व उसके बढ़ते वर्चस्व के दौर में ‘अपनी भाषा’, अपनी राष्ट्रभाषा’, ‘अपनी भारतीय भाषा’ से लगाव तथा उसकी आवश्यकता-उपयोगिता को लेकर वर्षों पहले व्यक्त भारतेन्दु जी की भाषा संबंधी यह संवेदना आज भी बड़ी प्रासंगिक है –

 

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल ।।

हिन्दी के अनेक रूप देखने में आते हैं, जिनमें उसके लघुत्तम रूप (व्यक्ति बोली) से लेकर बृहतर रूप (अंतरराष्ट्रीय भाषा) तक समाविष्ट हैं। भारत के एक बड़े भूभाग से जुड़े लोगों की मातृ‌भाषा के साथ-साथ हिन्दीतर प्रांतों-प्रदेशों में भी खूब प्रचारित-प्रसारित व व्यवहृत यह ‘हिन्दी भाषाराष्ट्र की अस्मिता, राष्ट्रीय अखंडता तथा एकता की एक ठोस आधारशिला है, शिक्षा-मीडिया-रोजगार-प्रशासनिक कामकाज की भाषा है, हजारों साहित्यकारों और बहुसंख्य भारतीयों की अभिव्यक्ति और अनुभूति का माध्यम है।

हम देखते हैं कि हिन्दी भाषा अपने विभिन्न रूपों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा जैसे हिन्दी क्षेत्रों में; हिन्दी प्रदेश के बाहर महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, कर्नाटक, आंध्र में कुछ छोटे-छोटे क्षेत्रों में तथा मारिशस, फीजी, सूरीनाम, ट्रिनीडाड जैसे देशो में प्रयुक्त हो रही है।

हिन्दी के प्रबल समर्थक व बड़े प्रचारक महात्मा गाँधी हिन्दी को हृदय की भाषा बताते हैं। हम जानते हैं कि राष्ट्र की एकता-अखंडता तथा उसे अक्षुण्ण बनाए रखने में हिन्दी भाषा की एक महती भूमिका रही है। वैसे भी भारतीय भाषाओं में हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। इतना ही नहीं यह भारत की एक प्रतिनिधि भाषा भी है और इसके सार्वदेशिक स्वरूप का आधार भारतीय समाज-भारतीय जनमानस है। हिन्दी का अखिल भारतीय रूप उसके सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा रूप से जुड़ा है। “लोक व्यवहार के स्तर पर हिन्दी का व्यवहार कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कोहिमा से कच्छ तक जन साधारण की संपर्क भाषा के रूप में देखा जा सकता है। इसका प्रयोग विशेषकर तीर्थ स्थानों, रेल्वे प्लेटफॉर्मों, अंतर्राजीय बस अड्डों, प्रमुख व्यापारिक एवं औद्योगिक केंद्रों आदि में दिखाई देता है। भारतीय संविधान के अनुसार हिन्दी संघ की प्रमुख राजभाषा है। राजभाषा होने के कारण हिन्दी प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा बन गई है। कार्यालयी भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग दिनोंदिन बढता जा रहा है।” (वही-पृ.28)

हिन्दी के विकास में, इसकी समृद्धि में केवल किसी प्रांत विशेष के, किसी वर्ग विशेष के हिन्दीसेवियों का ही योगदान नहीं रहा बल्कि हिन्दी को सम्पर्क भाषा व राष्ट्र‌भाषा के रूप में स्थापित-विकसित करने में समग्र भारतीय समाज का एक सामूहिक व मिला जुला प्रयास रहा है। “अपने अंतर्देशीय स्वरूप, समृद्ध परंपरा नव जागरण में एक भाषा की खोज और इस कार्य हेतु हिन्दी के ग्रहण की बदौलत चेतना तथा विदेशी सत्ता से स्वाधीनता संघर्ष, और इससे परिपुष्ट हिन्दी देश के प्रत्येक राज्य, प्रत्येक जन-जन में और अधिक लोकप्रिय बनी। स्वएवं राष्ट्रकी भावना से प्रेरित होकर समस्त देशवासियों ने हिन्दी को राष्ट्र‌भाषा, सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर इसके विकास में और संविधान में इसे प्रतिष्ठापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।” (हिन्दी भाषा इतिहास और स्वरूप, डॉ. राजमणि शर्मा. पृ. 353)

यह बात भी संदेहरहित है कि आज बहुल रूपों में प्रयोग-व्यवहार की दृष्टि से हिन्दी की अच्छी खासी स्थिति होने के बावजूद कहीं कहीं खासकर अहिन्दी प्रदेशों के भाषा व्यवहार में हिन्दी का थोड़ा बहुत संघर्ष, कुछ राजनीतिग्रस्त स्थितियाँ तथा कुछ भारतीयों की अंग्रेजी भाषा के मोह उसकी गुलामी वाली मानसिकता के चलते हिन्दी का अहित भी हुआ है, और हो रहा है जो एक चिंता का विषय है। फिर भी एक सकारात्मक दृष्टि रखते हुए पूरी उम्मीद है हिन्दी के उज्ज्वल तथा और ज्यादा बेहतर भविष्य की।

विपुल मात्रा में हिन्दी में साहित्य का सृजन-लेखन हुआ है। लगभग हजार-ग्यारह सौ वर्षों की हिन्दी साहित्य परंपरा में संवेदना-विषय वस्तु के साथ-साथ भाषिक रूप-स्वरूप में भी बदलाव होता रहा है। मध्यकाल के पूर्व हिन्दी साहित्य की भाषिक विशेषताओं में काफी वैविध्य रहा। “सिद्धों की भाषा अर्ध मागधी अपभ्रंश से प्रभावित है। नाथों की सधुक्कड़ी  भाषा में राजस्थानी, पंजाबी आदि कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं। जैन कवियों की भाषा अपभ्रंश है, जिसमें हमें प्राचीन हिन्दी के दर्शन होते हैं। वीरगाथाएँ डिंगल भाषा में लिखी गई हैं, तो विद्यापति की पदावली में मैथिली भाषा की मंजुलता मिलती है। अमीर खुसरो की हिन्दवी में हमें आधुनिक खड़ी बोली के दर्शन होते हैं।” (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त सुगम इतिहास, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. 13) इसके बाद हिन्दी के इस रूप का विकास उसकी ब्रज, अवधी प्रभृति बोलियों से लेकर खड़ी बोली के मानक रूप से जुड़ा है। मध्यकाल के हिन्दी साहित्य में विशेषकर ब्रज और अवधी के संस्कारित पक्ष को तो आधुनिक साहित्य में खड़ी बोली के मान्य रूप को देखते हैं।

मीडिया या संचार क्रांति के इस दौर में हिन्दी के संचारभाषा रूप काफ़ी विकसित तुआ। विविध संचार माध्यमों की भूमिका भी आज हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण रही है।

भारत की प्रतिनिधि भाषा हिन्दी भारत के बाहर फैलकर अनेक देशों में भी असंख्य लोगों के मध्य पारस्परिक व्यवहार का माध्यम बनने की वजह से एक अंतरराष्ट्रीय भाषा, विश्वभाषा के रूप में अपनी एक पहचान बना रही है। असल में ‘अंतरराष्ट्रीय भाषाके एक सामान्य व व्यावहारिक अर्थ-आशय के लिहाज से तो हिन्दी तथा कुछ अन्य विदेशी भाषाएँ अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्य व स्वीकृत हैं, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय भाषा की बुनियादी व सैद्धांतिक विभावना को देखने पर किसी भाषा क अंतर्राष्ट्रीय रूप की चर्चा थोड़ी विचारणीय है। डॉ. रामेश्वरद‌यालु अग्रवाल के मतानुसार “ प्रश्न यह है कि क्या संसार में कोई भाषा सच्चे अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय भाषा कहलाने की अधिकारीणी है। सच्ची अंतरराष्ट्रीय भाषा वही कहला सकती है जिसे विश्व के सारे ही राष्ट्र पारस्परिक व्यवहार के लिए प्रयुक्त करने को सहमत हों।” इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनियाभर में व्यवसाय की एक बड़ी भाषा अंग्रेजी है। इस दृष्टि से ‘विश्व भाषा’ की स्थिति से ज्यादा समीप अंग्रेजी जरूर रही है, किन्तु  हिन्दी भी भारतेतर देशों में व्यवहृत होने के कारण ‘विश्व भाषा’ के रूप में अपनी पहचान बना रही है, अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी जगह निश्चित कर रही है।

हिन्दी के वैश्विक व्याप-विस्तार में प्रवासी भारतीयों की मुख्य भूमिका रही है। “संयुक्त राष्ट्र की ‘विश्व प्रवासन रिपोर्ट’ 2022 के अनुसार सन् 2020 में दुनियाभर में सबसे बड़ी प्रवासी आबादी भारतीयों की थी। मैक्सिको, रूस और चीन का स्थान इसके बाद आता है। प्रेमचंद ने कहा है कि मनुष्य में मेल-मिलाप के जितने साधन हैं, उनमें सबसे मजबूत असर डालने वाला रिश्ता भाषा का होता है। भारतीय भाषाएँ विशेषकर हिन्दी भारत से बाहर रहने वाली इस उभरती भारतीय  ‘सोफ्ट पावर’ को परस्पर जोड़ने, संवाद करने और अपने बीच के सांस्कृतिक अंतराल को पाटने और उन्हें एक सूत्र में जोडने का माध्यम बनी।” (डॉ. शुभंकर मिश्र, अंतिम मन पत्रिका-सितम्बर-2024, पृ.24)

एक समय था जब हमारे यहाँ हिन्दी कम्प्यूटिंग तथा रोमनेतर लिपियों में कम्प्यूटर के प्रयोग की बात बड़ी खास व आश्चर्यजनक लगती थी, पर पिछले डेढ़-दो दशक से देवनागरी व अन्य भारतीय भाषाओं-लिपियों के कम्प्यूटर में बढ़ते प्रयोग को देखकर यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आज कम्प्यूटर के लिए रोमन लिपि या अंग्रेजी भाषा ही नहीं बल्कि देवनागरी और हिन्दी भी आदर्श लिपि व भाषा बनी हुई है। कम्प्यूटर प्रोग्राम के अनुकूल देवनागरी या हिन्दी में आज कम्प्यूटिंग कार्य कठिन नहीं है। हिन्दी कम्प्यूटिंग का विकास जहाँ एक ओर हिन्दी की क्षमता को रेखांकित कर रहा है, वहाँ दूसरी ओर हिन्दी में इंटरनेट व  कम्प्यूटर संबंधी कामकाज हिन्दी भाषा के वैश्विक विस्तार को भी बढ़ा रहा है।

 

प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

(गुजरात)

 

4 टिप्‍पणियां:


  1. ज्ञानवर्धक आलेख। बधाई।

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  2. बहुत ही सुंदर एवं ज्ञानवर्धक आलेख।
    विश्व हिन्दी दिवस की बधाई 💐💐💐

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  3. महत्त्वपूर्ण आलेख, प्रो. परमार जी को बधाई -शिवजी श्रीवास्तव

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  4. आपका हिन्दी प्रेम एवं हिन्दी सेवा
    सराहनीय। 🙏💐👌 SONA

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