‘मन पसंद मौसम’
से ‘रिहाई’
डॉ. पूर्वा
शर्मा
कविता....सिर्फ़
कविता....बस! कविता ही कविता...कविता ही करना और कविता को ही
जीना....अर्थात् जीवन ही कवितामय.....तो फिर शेष क्या रहा?.... अगली यात्रा की
योजना.....जिसमें विदाई के वक्त भी साथ में सिर्फ़ कविता की दो-एक किताब....अर्थात्
कविता-अनुराग के साथ ही अंतिम यात्रा.... ।
उपर्युक्त पंक्तियों
को सार्थक करने वाले काव्य सेवी एवं काव्य समर्पित कवियों की सूची में एक नाम
शामिल है – ‘डॉ. सुधा गुप्ता’ । सुधा जी के लिए जीवन का एक ही अर्थ है -
कविता । बारह-तरेह वर्ष की उम्र से ही काव्य सृजन में जुटी सुधा जी का पहला संग्रह 1954 में
प्रकाशित हुआ और अब तक उनकी कुल पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । गत सत्तर
वर्षों की काव्य साधना के साथ-साथ उनका काव्य-प्रेम और प्रगाढ़ हो चला तथा कवयित्री
आज भी सिर्फ कविता में ही रची बसी रहना चाहती है । उनका कवित्व साहित्य की अन्य
विधाओं में भी साफ़-साफ़ दिखाई देता है । सुधा जी के काव्य फलक पर एक नज़र डालने पर
15 हाइकु संग्रह एवं 6 अन्य जापानी काव्य संग्रह (ताँका,चोका आदि), 16 कविता
संग्रह, 4 बाल-गीत संग्रह तथा 2 पूजा गीत संग्रह – यानी कुल 43 पद्य-पुष्प मिलते
हैं ।
सहृदय कवयित्री
सुधा जी का हाइकुकार रूप पाठकों के समक्ष ज्यादा उजागर हुआ है, लेकिन एक सिद्धहस्त
हाइकुकार के अनेकों हाइकु से गुजरने के पश्चात् उनकी संवेदनशील कविताओं में गोते
लगाना एक अलग ही अनुभव रहा । प्रकृति प्रेमी सुधा जी की कोमल कान्त पदावली वाले
अनेकों हाइकु की तुलना में यह रचनाएँ नितांत भिन्न नज़र आई । व्यक्ति और समाज की
पीड़ा को अभिव्यक्त करती इन कविताओं में प्रेम, विरह, स्मृतियाँ, अकेलापन, आशावादी
स्वर, आक्रोश,
सामाजिक सरोकार, दंगे, मानवीय संवेदना, दहेज प्रथा, बाल श्रमिक, विधवा, दलित, घरेलू नारी एवं
वृद्ध जीवन.......... और न जाने ऐसे तो जीवन के और कितने ही रूप-रंग नज़र आते हैं।
सच कहें तो हाइकु से इतर यह काव्य संसार एक अलग ही दुनिया; सच की दुनिया
दिखाता है । इन काव्य संग्रहों से गुज़रना एक अनूठी एवं अविस्मरणीय यात्रा है ।
डॉ. सुधा गुप्ता के कविता
संग्रहों – चाँद की कंदील (1983), एक काफ़िला नन्हीं नौकाओं का (1983) तथा बूढ़ी सदी और
डैने का टूटा आदमी (1984) – में अनेक
छोटी-बड़ी कविताएँ संगृहीत है । संवेदनाओं के विभिन्न धागों से बुने इन काव्य
संग्रहों में से कुछ रंग-बिरंगी कतरने यहाँ प्रस्तुत है ।
सुधा जी की
बहुत पहले लिखी कविताएँ उनके जीवन संग्राम में कहीं ‘अनमनी’ सी, छिपी पड़ी रही और
फिर उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘चाँद की कंदील’ में प्रकाशित हुई । इन कविताओं में
ज़िन्दगी को यातना का शिविर, चुइंग गम जैसी अलग-अलग उपमाएँ देकर, उसमें जीवन
की विविध संवेदनाओं - पीड़ा, बेबसी, ख़लिश,
चुभन, उदासी, विरह आदि को बड़े ही सहज रूप में व्यक्त किया है । कवयित्री के मन की
हथेली वॉन गॉग की तरह जलती मोमबत्ती पर टिकी है और उनका मन कह उठता है –
मैं / चारों ओर
घिरते अँधरे को देखती हूँ / और चाहती हूँ / कोई /
किसी ओर से / एक बार / सिर्फ़ इक बार/ मुझे / आवाज़ लगा ले!
(चाँद की कंदील, पृ. 64)
‘एक काफ़िला
:नन्हीं नौकाओं का’ संग्रह से गहन अर्थ लिए कुछ छोटी कविताएँ देखिए –
१)कहाँ-कहाँ हो
आया मन / दो पल में / क्या-क्या पा, / खो आया मन / दो पल में ।
२)हौले से /
तुमने तपता मेरा हाथ छुआ /और / पूछा– / ‘अब कैसी हो ?/ ....झपकी आई थी ।
३)फूल / मुझे
बहलाने आये / मेरे पास बैठकर / हिचकी भर-भर / रोने लगे ।
४)मेरे
हिरना-मन / कैसे / और / कब / तुम बन गये कोल्हू के बैल ?/ आँखें मूँद / चलते जाते
हो-चलते जाते हो, / नीरस / इस दुष्चक्र से / ऊबते नहीं ?
आप देख सकते
हैं कि उपर्युक्त सभी नन्हीं रचनाएँ इतने कम शब्दों में कितना कुछ बयाँ करती है ।
एक अन्य कविता ‘दुविधा’ में शब्द और रिश्ते का संबंध देखिए -
मेरे-तुम्हारे
बीच / कुछ मुर्दा शब्द पड़े हुए हैं....
मेरे होठों से
/ तुम्हारे कानों तक की यात्रा / इनके नसीब में नहीं थी....
इन्हें दरिया में बहाना है / या / धरती में सुलाना है ?
(बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी, पृ.
17-18)
एक लंबी कविता
‘गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम’ में एक अलग ही विषय – बच्चे के स्कूल से कॉलेज
प्रवेश करने तक की यानी बड़े हो जाने की कथा है । माँ के अंतर्मन की व्यथा को
कवयित्री ने लगभग डेढ़ सौ पंक्तियों में बखूबी पेश किया है । हृदय को आनंद देने
वाले मनभावन क्षण
हमारे मन पसंद सुहावने मौसम की तरह बड़ी शीघ्रता-तत्परता से गुज़र जाते हैं ।
प्रस्तुत कविता
में शीर्षक के नीचे की पंक्ति में लिखा है –
‘दुनिया की हर एक माँ के लिये एक कविता’ ।
दरअसल यह कविता प्रत्येक माँ का अनुभव है । दुनिया की हरेक माँ इससे
प्रभावित है,
कोई कम तो कोई
ज्यादा ।
“जिनमें तुम्हारी जान बसती थी / अब कुम्हला गये हैं / गुजर गया है बहार का काफ़िला.... /
जिनके आने वाले बसंत के एक-एक दिन की गिनती करती तुम्हारी अंगुलियाँ / ख़ुशी से लरजती थीं”
(‘बूढ़ी सदी और डैने
टूटा आदमी’, पृ. 83)
बच्चों में तो सदा माँ की जान ही बसती
है, यह पंक्तियाँ
बहुत कुछ कह गई । नारी का सार तत्व माँ है, इससे ज्यादा
सुख का अनुभव किसी भी नारी को अपने अन्य किसी भी रूप से प्राप्त नहीं हो सकता ।
“तुम्हारे अकेलेपन का संदेश लाये हैं’/ तुम्हें एकदम फ़िज़ूल –बेकार की चीज़.....”
(‘बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी’, पृ. 84)
माँ को इस बात का अंदेशा हो चुका है कि
अब उसे अकेले ही गुज़र-बसर करना है । माँ को फ़िज़ूल –बेकार की चीज़ कहकर बच्चे यह
साबित करना चाहते हैं कि अब उन्हें किसी भी कार्य में माँ की आवश्यकता नहीं है ।
माँ तो फ़्लैश बैक में अपने बच्चे के जन्म से लेकर अभी तक का सफ़र देखते हुए सोच रही
है कि उसने तो बच्चे के जीवन में बहुत ही अहम भूमिका निभाई है, लेकिन यह बच्चे –
“स्कूल की दीवार फाँद कर / विश्वविद्यालय-परिसर में गुम हो जाते हैं”
(‘बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी’, पृ. 85)
दरअसल यह बच्चे स्कूल की ही नहीं, माँ के आँचल और
उसके प्यार की दीवार फाँदकर उसके सुरक्षा कवच से भी दूर हो जाना चाहते हैं । अब उसे माँ
साथ नहीं बल्कि अपने हम उम्र वालों के साथ ही समय व्यतीत करना पसंद है । कविता में
इस भाव का एक का चित्र कुछ इस प्रकार से हुआ है –
“और आगे पीछे तुम्हारे गुड्डे-गुड़ियों का / नन्हा काफ़िला चलता था / तुम्हारा आँचल थामे......
कितना तरस जाती थीं तुम / पल दो पल अकेले रह पाने के लिये”
(‘बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी’, पृ. 86)
और आज अकेलेपन
में माँ पत्रिका,
समाचार-पत्रों
आदि में जबरदस्ती आँखें गढ़ाए अपना वक्त गुज़ार रही है । बच्चे का इंतज़ार व्यर्थ है, अब उसे माँ की
बात या तकलीफ़ सुनने में कोई रुचि नहीं । उसकी आँखों में यह बात पढ़कर माँ चुपचाप
अपने आँसुओं को भी उससे छिपा लेती हो । अपना मन बहलाने के लिए कभी ईश्वर के भजन या
इधर-उधर की, ज़माने की बातें करती है लेकिन
–
“उस समय भी मन तुम्हारा कहीं चुपचाप / बुदबुदाता है / गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम....
(‘बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी’, पृ.
88)
माँ का
बुदबुदाना इस बात का संकेत है कि उसे अब भी वही मौसम पसंद है जो बीत चुका है ।
आख़िरकार कब तक अपनी पसंद के मौसम जीवन में बने रहेंगे ? अतः यही कहना
मुनासिब होगा कि - ‘गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम’ ।
एक स्त्री का
जीवन सदा ही चुनौतीपूर्ण रहा है । एक स्त्री को अपने जीवन की मुक्ति किस तरह से और
कैसे चाहिए उसका चित्रण ‘रिहाई’ कविता में दिखाई दिया है । इस कविता में स्त्री
संवेदना का स्वर देखिए –
“मुझे तो / मेरी दादी-माँ ने / पहली घुट्टी की जगह भी / नसीहत पिलाई थी !....
तुमने नसीहतों का मृदु विष दे-दे कर / कमज़ोर / डरपोक, निस्तेज, निःसत्व / स्त्रिनुमा मशीन में बदल दिया....
(‘एक काफ़िला
:नन्हीं नौकाओं का’, पृ.110-111)
स्त्री अपने
जीवन से रिहाई चाहती है । विदाई का वक्त आ जाने पर वह अपनी सफ़र की साड़ी में अमलतास
के कुछ रंग डालना चाहती है और इमली की छाँह में कुछ पल सुस्ताना चाहती है । साथ
में कविता की एक या दो किताब भी ले जाना चाहती है । इस तरह से वह खुद तय करना
चाहती है कि वह कहाँ जाना चाहती है और अपने साथ क्या ले जाना चाहती है । वह कहती
है कि उसके पास कनफ़ैस करने के लिए कुछ नहीं है –
“मैंने / ज़िन्दगी का स्वाद चखा ही नहीं / तो स्वीकार क्या करूँ......
(‘एक काफ़िला :नन्हीं नौकाओं का’, पृ.114)
कवयित्री के
शब्द चयन (ट्रैंक्वालाइज़र)पर गौर कीजिए –
“नैतिकता के ट्रैंक्वालाइज़र दे-देकर / एक समूची, खूबसूरत संभावनाओं से भरी / ज़िन्दगी / तुम डकार गये”
(‘एक काफ़िला :नन्हीं
नौकाओं का’, पृ. 114)
कौन उसकी इस
विदाई में शामिल होगा इस बात से स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता । उसे चुपचाप नाव पर
बैठकर पहली बार ‘उसकी मर्ज़ी’ से चप्पू चलाना है, उसे तट पर छूटतों का मोह भी नहीं
है । आगे की संवेदना देखिए –
“तुम्हारी आँखों में आँसू ? ओह ! शायद, शिकार हाथ से निकलने की पीड़ा है..... अब, अंतिम वक्त तो बख्श दो”
(‘एक काफ़िला
:नन्हीं नौकाओं का’, पृ. 115)
यहाँ कविता की
गहन संवेदना और प्रतीकात्मक शैली को आप देख सकते हैं । यहाँ पर वर्णित दोनों
कविताओं - ‘गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम’ और ‘रिहाई’ में शब्दों की बुनावट एवं गूढ़
अर्थ, संवेदना की गहनता और प्रतीकात्मक शैली से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सुधा जी
की कविताएँ साधारण मनुष्य की संवेदना कहती असाधारण कविता है । सुधा जी की अन्य कुछ
कविताओं में जीवन-दर्शन, चिन्तन और बाह्य जीवन के साथ जीवन की अंतर्यात्रा की
यात्रा का संकेत दिखाई देता है ।
सुधा जी ने
अपनी आत्मकथा में कहा है – “एक विचार मन को बार-बार कचोटता था कि मेरी कविता को
सहृदय पाठक बहुत कम मिले”(एक पाती : सूरज के नाम, डॉ. सुधा
गुप्ता, पृ. 551) सुधा जी की इस बात को लेकर मन
में कुछ विचार उठते हैं । पहला – क्या सच में संवेदनशील पाठक इतने दुर्लभ है ?
दूसरा – क्या कविता समझने वाले पाठक कम है, या फिर – संवेदना-चिंतन-दर्शन से
ओत-प्रोत रचनाओं के गहन अर्थ तक पहुँच पाना कहाँ तक संभव है । कई बार कुछ रचनाओं
की सरल शब्दावली में भी अर्थ की अत्यधिक गहनता अथवा प्रतीकात्मक भाषा के कारण यह
रचनाएँ साधारण पाठक के समझ से परे होती हैं । यही कारण है कि पाठक उसकी गहराई तक
नहीं पहुँच पाता, उसके मर्म को पकड़ नहीं पाता । सुधा जी के काव्य के विषय में यह
तीसरा विचार एकदम सही लगता है ।
डॉ. सुधा
गुप्ता जी का काव्य संसार बहुत ही व्यापक है । यहाँ कुछ कविताओं के माध्यम से आप
समझ चुके होंगे कि सुधा जी की कविताएँ शिल्पगत विशेषताओं जैसे भाषा, शैली , बिम्ब,
प्रतीकों आदि की उत्कृष्टता को छूते हुए विचार और
मनुष्य की संवेदना, दर्द एवं सामाजिक दर्द को अपना बनाती हुई कुछ ऐसे स्तर
पर पहुँचती हैं जहाँ पर पहुँच पाना हर किसी के बस की बात नहीं ।
डॉ. पूर्वा
शर्मा
वड़ोदरा
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