दीपोत्सवी आलोक से आलोकित –
घर, आँगन और अंतःकरण
प्रो. हसमुख परमार/
‘सात वार और नौ त्यौहार’ यानी हमारे यहाँ, विशेषत: हिन्दू धर्म में पर्व एवं त्यौहारों का बाहुल्य। इन
पर्व-त्यौहारों में कुछ सांस्कृतिक हैं , कुछ राष्ट्रीय, तो कुछ किसी देवी-देवता या महापुरुष की पुण्य स्मृति में
मनाये जाते हैं। सिर्फ कैलेंडर की किसी विशेष तिथि तथा छुट्टी के दिन का नाम ही
त्यौहार नहीं है बल्कि सदियों से भारतीय जनजीवन का अभिन्न अंग रहे ये त्यौहार
हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक,
सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना से पूरित गौरवगाथा का एक मुख्य
व महत्त्वपूर्ण अध्याय है। हमें हमारी उज्ज्वल परंपराओं व आदर्शों और मूल्यों से
जोड़े रखने, हमारे
विचार एवं व्यवहार में सामूहिक भावना, संवेदना, परहित वृत्ति प्रभृति के विकास में इन
त्यौहारों की महती भूमिका रही है।
कहते हैं, और यह हमारा अनुभूत सत्य भी है कि त्यौहार हमें रिफ्रेश
करते हैं। कभी-कभी दैनिक जीवन की ऊबाऊ परिस्थितियों से हमें बाहर निकाल कर,
हमारे मन को एक नयी उमंग तथा ऊर्जा से भरने वाले ये त्यौहार,
हमें नवजीवन प्रदान करने वाले बड़े स्फुर्तिदायक अवसर होते
हैं। त्यौहार का आनंद-उल्लास हमारे जीवन की, हमारे समाज की कई विषमताओं एवं समस्याओं से हमें मुक्त करने
में सहायक बनते हैं। “दैनिक तालिका के शांतिपूर्ण जीवन से जब मनुष्य ऊब जाता है,
तो उसमें उत्क्रांति लाने के लिए वह तरह-तरह के उपाय करता
है। उन्हीं उपायों में से एक उपाय पर्व-त्यौहार भी है।
प्रमुख भारतीय त्यौहारों की फेहरिस्त में सबसे पहले नाम
लिया जाता है दिवाली का। हमारे सभी त्यौहारों में इस त्यौहार की शान,
स्थान व महत्व कुछ निराला ही है। एक नहीं,
दो नहीं, पूरे पाँच दिनों का यह प्रकाश पर्व सबके लिए आशा व आनंद का
संदेश लेकर आता है। पाँच दिवसीय त्यौहार में प्रत्येक दिवस का एक विशेष महत्व है।
कई मान्यताएँ, कई पौराणिक कथा-प्रसंग इस महापर्व से जुड़ें हैं। रामायण से जुड़ी
मान्यतानुसार लंका विजय के बाद तथा अपनी वनवास अवधि को पूरा कर श्रीराम जब अयोध्या
लौटते हैं तो उनके स्वागत में अयोध्यावासियों द्वारा दीपकों की रोशनी कर अपने आनंद
को प्रकट करने के दिवस को दिवाली से जोड़ा जाना। एक और मान्यता है जिसमें महाभारत
को लेकर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की पूर्णाहूति की खुशी के संदर्भ को भी दिवाली
से जोड़ा गया है। इस बात से भी हमअनभिज्ञ नहीं हैं कि जैन संप्रदाय में दिवाली के दिन
दीपमालिका सजाकर भगवान महावीर स्वामी का निर्वाणोत्सव मनाया माता है।
उजाले के साथ उजाले की ओर अग्रसर.... प्रकाश के इस सुंदर पर्व की तैयारियाँ कुछ दिन पहले से ही
शुरू हो जाती हैं। सफाई, पुताई, शोपिंग
की व्यस्तता । तत्पश्चात पाँच दिवसीय पर्व में दीपकों के प्रकाश से पूरा वातावरण
प्रकाशित। दरअसल घर-आँगन की सफाई के साथ-साथ, उसे रोशनी से जगमग करने के साथ-साथ हमारे अंतः करण की
शुद्धता-सफाई, मन-चित्त
को प्रकाशित करने का भी यह पर्व है। घर-आँगन की सफाई से ज्यादा कठिन है मन की
सफाई। हमारे बाहरी वातावरण को स्थूल प्रकाश से रोशन करना तो सरल है पर हमारे भीतर
को -हमारे अंतः करण को – हमारे स्व-स्वयं को प्रकाशित करना उतना सरल नहीं। आओ !
संकल्प करें कि इस दिवाली हम अपने मन में पल रही-बढ़ रही कुत्सित वृत्तियों-विकारों के डस्ट को साफ करें। मन के दोष-मलिनता के अंधकार को, अज्ञान के तिमिर को मनुष्यता की ज्योति से दूर कर अपने अंतः करण को प्रेम,
सौहार्द-भाईचारा, परोपकारी वृत्ति के प्रकाश से प्रकाशित करें। हमारे रोम-रोम
में प्रकाश का तेज, मन में ज्ञान की रोशनी का अनुभव करें। हम अपने चर्मचक्षु से बाहरी प्रकाश को
देख सकते हैं, बाहरी
स्थूल वस्तु व दृश्यों को देख सकते हैं लेकिन हमारे आंतरिक उजाले को देखने के लिए
तो हमें अपने दिव्यचक्षु-अंतरचक्षु खोलने की मरूरत है। इस बात को लेकर एक दैनिक
समाचार पत्र के एक स्तंभ लेखक लिखते हैं कि ‘दिवाली अंतरचक्षु खोलने का दिव्य अवसर है।’
दिवाली – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का त्यौहार है। ‘अंधकार
पर प्रकाश की जीत’ का पर्व है।
एक तरफ ज्ञान है यानी प्रकाश। और दूसरी तरफ अज्ञान यानी अंधकार। अंधकार
एक ऐसा आवरण है जो सारी चीजों को ढँक देता है और प्रकाश आते ही सारी चीजें स्पष्ट
दिखाई देती ही हैं। यही काम अज्ञान और ज्ञान का है। यह पर्व मनुष्य के इसी विकास
की यात्रा है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने एक निबंध- ‘अंधकार से जुझना है!’ में मनुष्य की जिज्ञासा वृत्ति,
इसकी चेतना का विकास व विवेक की चर्चा करते हुए प्राचीन काल
से भारतीय संस्कृति के केन्द्र में रहे ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ सूत्र के परिप्रेक्ष्य में हमारे इस प्रमुख त्यौहार दिवाली
के महत्व व संदेश को स्पष्ट करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश की प्राप्ति हेतु अज्ञान
रूपी अंधकार को दूर करने, इससे लड़ने, जूझने
की बात बताई है।
उजाले के साथ-साथ स्त्री के मान का,
सम्मान का त्यौहार....
पर्व-त्यौहार-व्रत-उत्सव अबालवृद्ध के आनंद तथा उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक भावना की अभिव्यक्ति के अवसर हैं। त्यौहार को मनाने में,
उससे जुड़े विधि-विधान, धार्मिक कृत्य आदि को संपादित करने में स्त्री-पुरुष उभय की
सहभागिता रहती है। बावजूद इसके हमारे ज्यादातर व्रत व त्यौहार के केन्द्र में
स्त्री ज्यादा रही है। त्यौहार की पूर्व तैयारी से लेकर इसके संपन्न होने तक
स्त्री की भूमिका खास होती है। इन दिनों दिवाली के साथ-साथ कुछ समय पूर्व मनाए गए
नवरात्रि,
शरद पूर्णिमा, तीज, करवा चौथ आदि व्रत-त्यौहार में स्त्री की केन्द्रीयता को हम बखूबी देखते हैं।
नवरात्रि में शक्ति की आराधना, करवा चौथ में अपने सुहाग हेतु स्त्री द्वारा पूजा-अर्चन,
दिवाली में लक्ष्मी की पूजा। ये सब एक संदेश है स्त्री के
मान-सम्मान का ।
अप्प दीपो भव: बात दीपक की हो, दीपों के पर्व की हो, दीपोत्सव और उसके आलोक की हो और उसीके निमित्त ज्ञान-अज्ञान रूपी
प्रकाश-अंधकार की चर्चा। बाहरी उजाले के साथ मनुष्य के अंतर्मन के उजाले तथा दीपक
की तरह प्रकाशित होकर अपने विकासमार्ग पर अग्रसर होने की चर्चा के प्रसंग में,
गौतम बुद्ध और लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उनके द्वारा दिये
गए एक मंत्र अप्प दीपो भवः को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा। ‘अप्प दीपो
भव:’
अर्थात् अपना दीपक खुद बनो। अपना प्रकाश स्वयं बनो । किसी और
से आशा,उम्मीद रखे बिना, औरों पर निर्भर रहे बगैर अपना प्रकाश खुद बनो और स्वयं के साथ-साथ औरों के लिए
भी प्रकाशित हो। न ज्यादा अनुकूल स्थिति, न वातावरण, न कोई मार्गदर्शक, न प्रोत्साहन – फिर भी अपनी लीक बनाने वाले इस ‘अप्प दीपो
भवः’
की परंपरा के कई दीपक हमारे समाज में,
हमारे इतिहास में जगमगा रहे हैं। जो अपने ज्ञान व कर्म के
प्रकाश से दूसरों का मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं। आत्मज्ञान और अंतरात्मा के
प्रकाश से ये ‘दीपक’
जीवनपथ पर अग्रसर हुए.....
Bahut sundar, congratulations sir🙏😊
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव पर्व की हार्दिक बधाई । इस लेख के माध्यम से दीवाली पर्व की विस्तार से जानकारी दी गई है दोनों लेखकों को साधुवाद ।
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