उपन्यास 'सप्तस्वर' : सामाजिक मूल्यों का प्रत्यावर्तन
(उपन्यास-दुर्गा
पांडेय)
इंद्रकुमार दीक्षित
साहित्य,
संस्कृति कला और संगीत की परम्परा जिस समाज में जड़ से लेकर
अधुनातन स्वरूप तक अविच्छिन्न होती है, वह समाज उतना ही
समृद्ध औरअपराजेय माना जाता है।विद्यालय, परिवार, समाज और उसके विश्वास
इस परम्परा के पोषक एवं संरक्षक होते हैं।
मानव जीवन की सार्थकता
मानवोचित गुणों को धारण करके लोक कल्याण
करने में निहित है। 'सर्व भूत हिते रता:' और 'वसुधैव कुटुंबकम' जैसे आप्त कथनों की मूल भावना यही है।'व्यक्ति के विकास में ही समाज का विकास समाहित है'
इस संकल्पना से अनुप्राणित
हमारी भारतीय
संस्कृति एवं साहित्य के क्रोड में सर्वोत्कृष्ट मानव मूल्य- प्रेम,
त्याग,
सत्य,
अहिंसा करुणा, साहस, पराक्रम, औदार्य, बन्धुत्व, समता, सहिष्णुता, सौहार्द्र तथा सर्व- धर्म समाहार भाव पल्लवित और पुष्पित
होते रहे हैं। विश्व में कहीं भी अन्यत्र इसकी मिसाल नहीं मिलती।यही कारण है कि आज
भी दूर्वादल की भाँति हमारी संस्कृति
सदियों से अनेक कशाघातों को सहते हुए भी अदमनीय, अजेय और निरंतर प्रसरणशील बनी हुई है। यह विशेषता हमारी
ग्राम्य संस्कृति में प्रचुरता से
फूलती फलती रही है,
परंतु वर्तमान
द्वंद्वात्मक भौतिकवादी युग के प्रभाव स्वरूप जहाँ नैतिक मूल्यों तथा सामासिक संस्कृति
का ह्रास हुआ है वहीं ज्ञान- विज्ञान की विपुल उन्नति के बावजूद व्यक्तिगत
एवं सामाजिक शुचिता का सतत और अविरल
प्रवाह कहीं न कहीं अवरुद्ध प्रतीत हो रहा है।
यह स्थिति समाज के
स्वस्थ तथा प्रगतिशील स्वरूप के विकास में बाधक है।एक तरफ वर्जनाहीन उन्मुक्त मानव आचरण का बोल बाला है
वहीं दूसरी ओर कट्टर
रूढ़िवादी,प्रतिगामी शक्तियाँ सर उठा रही हैं, विचारों में संघर्ष
के साथ परिवार में सदस्यों के बीच
सहज संवाद तथा मूल्यों का संकट निरंतर बढ रहा है, रोजगार और रोजी- रोटी की खोज में गाँव छोड़
नगरों, महानगरों में पलायन का सिलसिला जारी है,
संस्कृति एवं मानव मूल्यों के पोषक संयुक्त परिवार निरंतर टूट रहे हैं,
खेती किसानी, पशुधन तथा वनोपज पर आधारित कुटीर और लघु उद्योगों से सम्पृक्त
ग्रामीण परिवेश भुतहा और उजाड हो गया है,
महानगरों की अपार जन- संकुल भागम- भाग,
तनाव पूर्ण जीवन शैली, प्रदूषित वातावरण तथा
केवल अपने लिये जीने की पैशाचिक
सोच ने जीवन की सुख-शांति को छीन लिया है,इस सबका समाधान तलाशती
वैदूष्य और संवेदना की प्रतिमूर्ति श्रीमती दुर्गा पांडेय
जी की औपन्यासिक कृति 'सप्त स्वर' उमस भरे वातावरण
में शीतल- मंद बयार के सुखद झोंके की तरह मेरे सामने है।
उपन्यास 'सप्त स्वर' में लेखिका ने
अपने पुरखों व पूर्वजों की जन्म भूमि रामपुर गाँव जहाँ
उनकी खेती बारी जमींदारी फैली हुई है
के इर्द गिर्द के परिवेश का कथात्मक ताना- बाना बुना है
और उसे अपने साहित्यिक विवेक के
कौशल में ढाल कर इतनी बारीकी और निपुणता
से प्रस्तुत किया है कि सब कुछ मानों एक जीवंत फिल्म के रूप में मानस पटल पर चलता हुआ प्रतीत
होता है,पर कौशल यह कि इस सम्पूर्ण कथा वृतांत को स्वयं न कहकर काशी में अपने साथ पढ़ी,
बढ़ी और खेली अपनी
मुंहबोली सहेली सुधा (जिससे गंगा घाट
पर हुई अचानक की मुलाकात गाढी दोस्ती में बदल जाती है) के मुँह से कहलवाकर
लेखिका अपनी सशक्त लेखनी
के माध्यम से पाँच खंडों में सुविस्तृत उपन्यास के शक्ल में ढाल देती है।
'खण्डहर' नामक पहले खण्ड में शादी के कुछ अरसे बाद परित्यक्ता का दंश
झेलने को विवश सुधा काशी की गृहस्थी की
सारी जिम्मेदारियों को निपटाकर मुक्त होने के बाद
अपनी समवयस्क
विधवा छोटी भाभी के साथ
अपने बाबा 'हरिबंश धर 'के चार पुत्रों और एक परित्यक्ता बेटी 'सुहासिनी बुआ' 'बाबूजी' 'बबुआ'जी '
चाचा' और 'काका'
के गाँव
रामपुर पहुँच कर अपने
उस खण्डहरनुमा मकान , बागीचे और कुंए का स्मृति सूत्र पकड़ कर बचपन में बिताए पुराने दिनों की मधुर स्मृतियों में खो जाती
है। कथा सूत्र यहीं से आगे अगली पीढ़ी की ओर बढ़ता है जिसमें कथा
उद्घोषिका बाबूजी की छोटी बेटी 'मैं' उनके पुत्रों सरकारी चिकित्सक की सेवा
निवृत्ति के बाद गाँव में ही निजी
डिस्पेन्सरी डाल बस जानेवाले बड़े भैया
जिनकी पत्नी बड़ी भाभी ( विवाहित दो पुत्रियों की माँ),
इलाहाबाद हाईकोर्ट के नामी वकील पर बनारस बस गये दूसरे
पुत्र छोटेभैया(दोनोंदिवंगत) की पत्नी छोटी भाभी
जिन्होंने अपनी सन्तानों सुपर्ण - चित्रा (इन्जीनियर) और सुकांत (बी एच यू से मेडिकल डिग्री लेकर सरकारी
चिकित्सक) के सुविधा के लिहाज से अपने अपने हिस्से में खुला और सुविधाजनक घर
बनवाकर जमीन सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियों
की देख भाल के लिये गाँव आती रहती हैं,
चाचा के एक मात्र पुत्र सुव्रत - हेमा जो बी एच यू में
डाक्टर हैं ,काका
के पुत्रों जिसमें बड़े सत्यकाम (हाईकोर्ट
में वकील) और छोटे सत्यव्रत- नीता वहीं अपने हिस्से की जमीन पर विद्यालय चलाते और
घर बनाकर खेती बारी देखते हैं,बबुआ जी की एक मात्र पुत्री सुवर्णा दीदी जो उनके
हिस्से की माल्किन हैं भी बनारस ही रहतीं हैं उनके पति असमय चल बसे पर
उनके सास ससुर ने चाची की सहमति से अभय जी
से उनका पुनर्विवाह करा कर दीदी की गृहस्थी बसा दी।इन सभी परिवारों जो बाबा
हरिवंशधर के संयुक्त परिवार के वंशज हैं, में अब भी आपस में अटूट प्रेम व लगाव है जो उन्हेंअलग अलग
परिवेश में रहने के बावजूद इस खण्डहर के
समीप खींच लाता है।
पूरी कथा अपने में अन्तर्निहित अन्य अंतर्कथाओं ,उप कथाओं के साथ बाबा हरिवंश धर के वंशजों
के अलावा गाँव में रहने वाले संपन्न ठाकुर
परिवार जिसकी प्रतिनिधि सुगन्धा
भाभी और उनके पुत्र (सह नायक) वीरविक्रम
सिंह,
पुरोहित पं
रामानन्द के पौत्र वरुण और अरुण उनकी माँ
वसुधा भाभी,बाबा के समय पशुधन की देख भाल करने
वाले सीताराम यादव के वंशजों जगन और सोहन
तथा इनके संबंधियों के बीच घूमती हुई आगे बढ़ती है, और अपने अगले सोपान 'प्रत्यावर्तन' में प्रवेश करती है।
अनेक जीव धारियों(प्राणियों एवं
पौधों) में 'पीढियों
का प्रत्यावर्तन' एक जरूरीऔरप्राकृतिक नियम है। बाबा
हरिवंशधर की संस्कारशील पीढ़ी जो उनके लोक कल्याणार्थ संस्कृत ज्ञान एवं आयुर्वेद
पांडित्य परम्परा को संजोते हुए विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिकतम ज्ञान से समृद्ध
अनुभव अर्जित कर रही थी,अपनी जड़ों से जुड़ने के लिये अपने पैतृक गाँव
में प्रत्यावर्तित होने की प्रेरणा
गहराई से महसूस करने लगती है। इसकी अगुआई करते हैं गाँव
के स्कूल के प्रबंधक चचेरे भाई सत्यव्रत के अभिभावकत्व में सरकारी विभाग में कार्यरत नवयुवक डा सुकांत,
हैदराबाद की बहुराष्ट्रीय कम्पनी के इन्जीनियर ठाकुर साहब के पौत्र वीर विक्राम सिंह और राज्य
सचिवालय में अधिकारी पुरोहित परिवार के वरुण। गाँवकी बुनियादी जरूरतों तकनीकी
शिक्षा, स्वास्थ्य, उन्नत
खेती,
कृषि आधारित उद्योग, हस्त शिल्प आधारित व्यवसाय,उत्तम सड़कें , बिजली, ,पशुपालन और
डेयरी में रोजगार के प्रभूतअवसर की
संभावनाओं को भाँप कर अपनी माताओं के साथ छुट्टियों में गाँव
आकर ये युवक गहराई से विचार विमर्श करते हैं और पूँजी जुटाकर ठोस योजना बनाकर गाँव की
सूरतबदलने की प्रक्रिया में लग जाते हैं।
उपन्यास के तीसरे खण्ड 'रूपांतरण' के लिये तैयार होकर
डा सुकांत व वीरविक्रम अपनी अच्छी खासी नौकरी को छोड़कर गाँव में
अपना भविष्य
आजमाने के लिये हास्पिटल तथा जैविक
खाद बनाने के कारखाने का शुभारंभ करते हैं। कहते हैं कि 'जहाँ चाह है वहाँ राह है' इसी समय गोरखपुर,
कसया, मुज़फ्फ़र पुर हाई वे
के साथ लिंक के लिये गाँव से होकर बनने वाली रोड और राजकीय पाली टेकनिक का खुलना इनके
संकल्प को पर लगा देते हैं। सबसे पहले
सबकी साझी जमीन पर डाक्टर
सुकांत की देख रेख में 'हरिवंश स्मारक
आरोग्य धाम' का
निर्माण होता है जिसमें गाँव के रोगियों को मामूली खर्च पर इलाज की सुविधा
मुहैया कराई जाती है, उधर वीर विक्रम सिंह अपनी जमीन पर सूखे पत्तों, गोबर , बेकार डंठलों , पुआल आदि का उपयोग कर 'जैविक खाद बनाने का कारखाना' स्थापित करते हैं साथ ही एक बड़े फ़ार्म पर फूलों की खेती का भी श्रीगणेश करते
हैं,
बाबा के पुराने पशुपालक सीताराम यादव के वंशज जगन यादव उन्हीं के नाम पर'
'सीताराम गौशाला'
और डेयरी' की नींव डालते हैं, स्थानीय पालिटेक्नीक से निकले विभिन्न ट्रेड्स में दक्ष लड़के और लड़कियों को
स्थानीय संस्थाओं में रोजगार मिलने लगता है,स्कूल ,हास्पीटल, खाद कारखाने में बाहर से आये डाक्टरों,
नर्सों और विशेषज्ञों को काम मिलने लगता है। गाँव के नवयुवक
नव- युवतियों में भविष्य को लेकर आत्म विश्वास जागता है,
वे कठोर परिश्रम और
लगन से गाँव के कायाकल्प में जुट जाते हैं।प्रदेश सरकार का ध्यान भी गाँव के विकास की ओर जाता है,स्वास्थ्य मन्त्री
के साथ बी एच यू के हेड डा श्रीधर शर्मा 'हरिवंश स्मारक आरोग्य धाम' का लोकार्पण करते हैं और युवाओं के इस लोक कल्याण कारी
कार्य की प्रशंसा करते हुए मंगलमय भविष्य की कामना करते हैं।
चौथे खण्ड 'सप्तस्वर' जो उपन्यास का नाम भी है, में कथा का क्रम आगे बढ़ता है,विक्रम के पूर्व
कार्यस्थल हैदराबाद जहाँ मनो विज्ञान में
डॉक्टरेट उसकी पत्नी मृणालिनी अपने माता
सुलभा पिता जगदीश राय और छोटी बहन डाक्टर
मधूलिका के साथ रामपुर पहुँचती है जो विक्रम के साथ विछोह जन्य जीवन बिता
रही है,
का मधूलिका(साली) के प्रयास से हृदय परिवर्तन होता है और वह पति के साथ गाँव में
रहने को राजी हो जाती है।मृणाल के आने से
सुगन्धा और विक्रम का घर आनन्दातिरेक से सराबोर हो जाता है,
उधर डाक्टर सुकांत
का प्यार बीएचयू के हेड श्रीधर शर्मा और अलका की बेटी डा. अरुणिमा भी झिझक छोड़ अपने मंगेतर के गाँव स्थित हास्पीटल में सेवा देने को राजी होकर
विवाह के लिये अपनी स्वीकृति प्रदान कर देती है, डा शर्मा की मानसिक
रूप से रुग्ण बेटी शिवानी जो बचपन से जिद्दी और उत्तेजित स्वभाव के कारण सबके परेशानी का सबब होती है,
वरुण के सम्पर्क
में आकर उसके व्यवहार में आशातीत परिवर्तन होता है वह आत्मनिर्भर और शान्त होने
लगती है वरुण के प्रति उसके आकर्षण को
देखकर शर्मा दम्पति अपनी दोनों बेटियों
अरुणिमा को सुकांत के और शिवानी को वरुण के साथ व्याह देते हैं,
वरुण भी गाँव में
खुले सभी संस्थानों काआर्थिक लेखा जोखा रखने
तथा जीविका के लिये शर्मा जी की मदद से पैट्रोल पम्प खोल कर रामपुर में ही
स्थापित होने के लिये राजी हो जाता है। आगे शिवानी गाँव में ही योगाभ्यास केंद्र खोल कर लोगों को योग
की शिक्षा देने लगती है। अरुणिमा - सुकांत के विवाह समारोह में सुपर्णा दीदी का
मुंबई में कार्यरत पुत्र जयंत की मुलाकात
जब विक्रम की डाक्टर साली मधुलिका से होती है तो वह उसे प्यार करने लगता है दोनो
ही बाहर का कैरियर छोड़ गाँव के हास्पीटल
में सेवा करने का व्रत लेकर परिजनों की रजामन्दी से परिणय- सूत्र में बँध जाते हैं और गाँव के
हरिवंश स्मारक आरोग्य मंदिर हास्पीटल का काम आगे बढाने में योगदान करते हैं ।धर परिवार के साथ गाँव भर के परिवार जुड़कर मानों एक बड़े स्वर्गिक परिवार की सृष्टि करते हैं जहाँ सभी अपने पूर्व पीढ़ी( माता- पिता) की आशाओं
-आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करते हुए उनके आशीर्वाद के
साथ एक दूसरे के सुख- दुख के सहभागी होकर
सहज प्रेम लुटाते हुए संतुष्टि और आनन्द का अनुभव करते हैं। कुछ ही समय बाद
प्रणय की रसवंती शाखों मृणालिनी- विक्रम
पर वसन्त के दो युग्म फूल (शिशु)खिलते हैं जिनमें से एक अरुणिमा - सुकांत को सुश्रुत के रूप में तथा दूसरा विश्रुत के
रूप में मृणालिनी- विक्रम की गोद में किलकते हुए छोटी भाभी तथा सुगन्धा भाभी के
आँचल को खुशियों से भर देते हैं।
गाँव के जीवन रूपी वीणा के तार चारों नवयुवक जोड़ोंअरुणिमा सुकांत,
मृणालिनी- विक्रम, मधूलिका- जयंत और
शिवानी- वरुण की दक्ष एवं सधी अंगुलियों
का स्पर्श पाते ही सप्त - सुरों की मधुर ध्वनि में बज उठते हैं।
"जीवन रूपी वीणा के तारों पर उँगलियाँ कैसे चलें ताकि स्वर
भंग की संभावना कम से कम हो।अत: चित्त को स्थिर रखकर अब सारे प्रयास इस शिविर को
सुन्दर से सुन्दर और आदर्श रूप देने के लिये ही किये जाते हैं।जन्म से मृत्यु तक
का यह सफर एक शिविर ही तो हैऔर यही एक अवसर है जब इंसान अपने कर्मों से अपने भाग्य
का निर्माण स्वयं करता है।" मेरी नज़र में तो लेखिका ने अपनी लेखनी से इस
उपन्यास में गांधी के 'रामराज्य'
और विनोबा
'ग्राम -स्वराज्य'
की कल्पना को साकार किया है।
पाँचवें खंड 'अनुगूंज'
जो इस कथा- वृतांत का
उपसंहार है, में
उक्त चारों खंडों में बज रही लोक कल्याण
के लिये समर्पित सद्प्रयासों और उनके
परिणाम रूपी रागिनी कीअनुगूंज ही सुनाई पड़ती है।अन्तिम कड़ी
में रामपुर गाँव के
हॉस्पिटल में प्राण- पण से रोगियों की सेवा में प्रवृत्त चिकित्सकों की
सुकीर्ति सुनकर राज्य के मुख्यमन्त्री का गाँव की ओर सेआयोजित
वार्षिक समारोह में पहुँच
कर उनके कार्य की प्रशंसा,
करते हुए अनुदान और
सम्मान की घोषणा कर इस महत् कार्य को निष्पत्ति तक पहुंचाना इसकी सुखद परिणति है।
यद्यपि इस कथात्मक कृति
में कोई दमदार खलनायक चरित्र उपस्थित नहीं है जो नायक अथवा सहनायकों को कडी
प्रतिस्पर्धा दे सकता हो, तथापि गाँव के परिवेश में व्याप्त अशिक्षा, काहिलपन
,
नशाखोरी, अन्धविश्वास ईर्ष्या- द्वेष, हठ, मिथ्याभिमान , चुगलखोरी, दलाली,
अस्वच्छ्ता, निर्धनता, बेरोजगारी और दिखावा ही बड़े खलनायक की भूमिका निभा रहे हैं जिनके प्रतीक
विक्रम के पिता ठाकुर रंजीत सिंह,
रूपा का शराबी
पूर्वपति , निरीह
किसानों का जमीन हड़प बैठे शोषण के पर्याय नशाखोर
अंगद सिंह जैसे लोग आखिर किस खलनायक
से कम थे जिनसे
सुकांत और विक्रम की पूरी टीम को पग- पग
पर रूबरू होना पड़ा।इसके बावजूद गाँव के युवा वर्ग को हीरोगिरी,
मोबाइल के कुटेव और
कुत्सित राजनीति में पड़नेसे बचाते हुए
उनको योग , खेल
,
तकनीक और सदाचरण के
प्रशस्त पथ पर लाकर विकास शील समाज के मुख्य धारा में स्थापित करने
का संकल्प प्रदर्शित करने के लिये लेखिका
के सद्विवेक की प्रशंसा की जानी चाहिये।
उप कथानकों में कई
प्रसंग मर्म को छू लेने वाले हैं
जैसे सुहासिनी बुआ और उनके पति का
प्रसंग ,
रूपा व उसके पूर्व शराबी पति का प्रसंग,
सेविका चम्पा और छोटू का प्रसंग आदि।
दूसरी ओर शिल्प के स्तर पर
देखा जाय तो उपन्यास का कथानक कसी हुई साफ
-सुथरी हिन्दी में पात्रों के बीच
संवादात्मक है। जरूरत के अनुसार विकल्प के
रूप किन्हीं किन्हीं स्थलों पर
पात्रों की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार उनके मुँह से अंग्रेजी शब्दों का
प्रयोग कराया गया है ,उन्हें कुछ और कम किया जा सकता है।
कथा की भाषा में प्रवाह और रोचकता
के साथ सस्पेंस का बना रहना पाठक
में उपन्यास को पढ़ने की उत्सुकता जगाता है।
कुल मिलाकर देखा जाय तो श्रीमती दुर्गा पांडेय की यह
औपन्यासिक कृति गाँवों की आत्मा को स्पर्श
कर उनके समग्र विकास की दिशा और
दशा तय करने में नवयुवकों के समवेत प्रयास
के अन्यतम दस्तावेज के रूप में स्वागत योग्य है।इस कृति की सर्जना के लिये
श्रीमती पांडेय के श्रमसाध्य प्रयास एवं समर्पण- भाव के
लिये मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
***
उपन्यास का नाम : सप्तस्वर, लेखिका का नाम : दुर्गा पान्डेय,
प्रकाशक का नाम :अक्स AKS पब्लिशिंग हाउस, 208 बैंक एन्क्लेव,लक्ष्मीनगर,नईदिल्ली, मूल्य : ₹ 299
***
इंद्रकुमार दीक्षित
पूर्व मन्त्री नागरी
प्रचारिणी सभा देवरिया
5/45,
मुंसिफ कालोनी, देवरिया
रामनाथ(उत्तरी) देवरिया-274001
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