प्रेमचंद के साहित्य से गुजरते हुए......
अनिता मंडा
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रेमचंद के लिए लिखते हैं “प्रेमचंद
शताब्दियों से पड़-दलित, अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज़ थे। पर्दे में कैद और पद-पद पर लांछित और
असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे, गरीबों और बेकारों के महत्व के प्रचारक थे। उत्तर भारत की
समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन,
आशा-निराशा, सुख-दुख और सूझ-बूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम
परिचायक आपको नहीं मिल सकता।”
वाराणसी जिले के एक गाँव लमही में 31 जुलाई, 1880 को अजायब लाल और आनन्दी देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ जो
हिन्दी साहित्य का सबसे उजला सितारा बना। नाम दिया गया धनपत राय। पास के ही मदरसे
में उर्दू में तालीम शुरू हुई। सात वर्ष की आयु में माँ का ममतामयी
आँचल सिर से उठ गया व सौतेली माँ से कभी बनी नहीं। बालक
धनपत बचपन से ही कहानी उपन्यास पढ़ने के शौकीन थे। दिन भर किताबों की दुकान पर बैठ
पढ़ते रहते। पंद्रह की उम्र में विवाह हो गया और एक वर्ष बाद ही पिता का साया भी
साथ छोड़ गया। सौतेली माँ, दो सौतेले भाई, पत्नी आदि सारे परिवार का बोझ किशोर धनपतराय के कंधों पर आ गया।
प्रेमचंद ने मुश्किल हालात में भी अपनी शिक्षा पूरी की।
ट्यूशन पढ़ाई। लाइब्रेरी में पढ़ने के बदले काम किया पर किताबों से नाता बनाये रखा।
1908 में नवाबराय नाम से लिखा ‘सोजे-वतन’ देश भक्ति पूर्ण कहानियों का संग्रह प्रकाशित किया। लेकिन
अंग्रेजी हुकूमत को यह कैसे मंजूर होता। नतीजन प्रेमचंद के सामने ही उनके संग्रह
की सारी प्रतियाँ ज़ब्त करके जला दी गई। ततपश्चात वे हिन्दी में प्रेमचंद नाम से
लिखने लगे।
डॉ. नगेन्द्र उनकी पहली कहानी ‘सौत’, 1915- सरस्वती में प्रकाशित; को मानते हैं। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त- ‘पंच परमेश्वर’, 1916 को पहली मानते हैं। प्रेमचंद नाम से पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ लिखी।
एक मिशनरी स्कूल से उन्होंने अंग्रेजी सीखी,
बहुत सारा अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया,
अनुवाद भी किया। 20 वर्ष की आयु में सरकारी जिला स्कूल बहराइच में शिक्षक बने।
बाद के वर्षों में शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर भी बने।
1921 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर नौकरी छोड़ बनारस लौटे। 1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की। 1930 में जनवादी पत्रिका के सम्पादन के उद्देश्य से हंस पत्रिका
का सम्पादन किया।
8 अक्टूबर, 1936 में प्रेमचंद 56 वर्ष की अल्पायु में स्वर्ग सिधार गए। अपार संघर्षों और
रचनात्मक प्रतिबद्धता के चलते 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें और हज़ारों लेख, सम्पादकीय आदि अपनी विरासत में छोड़ गए।
इतनी विशद विरासत से गुजरते हुए प्रेमचंद क्यों याद आते हैं,
ऐसा क्या दिया उन्होंने जो आज भी वे प्रासंगिक लगते हैं?
एक सदी से अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी प्रेमचंद
क्यों पाठकों की पसंद बने हुए हैं? इन्हीं सवालों पर अपनी दृष्टि से बात करते हुए चलिए देखते
हैं प्रेमचंद की कुछ कहानियों व उनकी कालजयी रचना गोदान की कुछ बातें।
यथार्थोन्मुखता
प्रेमचंद जिस समय लेखन में आये उस समय तिलिस्म,
अय्यारी, पौराणिक विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही थी। उस चली आ रही
परम्परा को तोड़ कर उन्होंने सामाजिक समस्याओं को अपनी कहानियों का विषय बनाया।
प्रारम्भ में रशियन
लेखक टॉलस्टॉय का काफी असर उन पर दिखता है। प्रारंभिक कहानियाँ आदर्श स्थापित करती
दृष्टिगोचर होती हैं। जैसे ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी में वे कथानायिका आनन्दी का हृदय परिवर्तन करवाते हैं
व परिवार की एकता व सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए वह अपना अपमान भुला
देती है व पितातुल्य ससुर के मुँह से तारीफ़ निकलती है कि बड़े घर की बेटी की बात ही
अलग है। यहाँ आनन्दी परिवार को विघटित होने से बचाने के लिए अपने आत्मसम्मान की
कुर्बानी दी देती है व आदर्श स्थापित करती है।
अपनी लेखन यात्रा में आगे बढ़ते हुए प्रेमचंद यथार्थवादी हो
जाते हैं। कहानी ‘पूस की रात’ व
अंतिम कहानी ‘कफ़न’
में वो कोई आदर्शात्मक समाधान नहीं सुझाते। कफ़न में तो
निरन्तर शोषण व भुखमरी से उपजी संवेदनहीनता का बिभत्स दृश्य दिखाते हैं। घीसू और
माधव कफ़न के लिए मिले पैसों से अपनी भूख शांत करते हैं फिर नैतिकता उनमें कहीं
शर्मिंदगी पैदा नहीं कर पाती। कहा जाता है कि चेखव के प्रभावस्वरूप बाद के समय में
वे अतिरिक्त विवरणों को छोड़कर एकदम विषय पर केंद्रित लिखने लगे। इसे ही चेखोवियन
शैली कहा जाता है।
सरसता
आज युवा पीढ़ी की पढ़ने की आदत कम हो गई है लेकिन फिर भी
प्रेमचंद सबसे अधिक पढ़े जाते हैं तो इसके पीछे कारण है उनकी आसान भाषा और सरसता।
आम जन जीवन से जुड़े विषय और मुहावरेदार भाषा रोचकता बनाए रखती है। ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी के उदाहरण से ही देखते हैं कि मात्र 5 वर्ष बड़े भाई अपने छोटे भाई पर कितना अधिकार भाव रखते हैं।
परिपक्वता का आवरण ओढे बड़े भाई का भी मन होता है कि वह खेलें-कूदें। लेकिन स्वयं
ही आदर्श स्थापित न कर पाने की स्थिति में वे छोटे भाई को कैसे सीखा पाएँगे। यही
सोचकर वह हमेशा नकली गम्भीरता ओढ़े रहता है। छोटी-छोटी वाक्य संरचना व हर दो
पंक्तियों में मुहावरे सजाते हुए कहीं कहीं जबरदस्त व्यंग्य का सा आनन्द देते हैं।
विषय-व्यापकता व मानव मनोविज्ञान की गहरी पैठ
प्रेमचंद के साहित्य से गुजरते हुए उनकी रचनाओं के विषयों
की विविधता पर हमारा सहज ही ध्यान जाता है। ‘ईदगाह’ का हामिद हो या ‘बूढ़ी काकी’ में वृद्धा। बालमन से लेकर वृद्धावस्था तक का ऐसा सुंदर
विश्लेषण उनकी कहानियों में मिलता है कि पाठक मुग्ध रह जाता है।
बूढ़ी काकी से एक उद्धरण देखते हैं-
“बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी
में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित
करने का,
रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ,
नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर
वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो
ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था,
वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं”
पाँच वर्ष का हामिद मेला देखकर अपने बालसुलभ मन को खिलौनों
के प्रलोभन से कैसे बचाता है, कैसे मजबूरियाँ बचपन की मासूमियत छीन लेती हैं?
ईदगाह कहानी आज भी समाज से अपने सवाल पूछती है।
“सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। उधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं- सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोलना ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हैं। कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!”
सामाजिक चेतना वाला पाठक वर्ग निर्मित करना:- प्रेमचंद से पहले हिन्दी साहित्य में किसी ने इतने व्यापक स्तर पर सामाजिक समस्याओं को नहीं उठाया था। जिस सजीवता से उन्होंने भारतीय समाज विशेषकर ग्रामीण भारतीय समाज को पाठकों के समक्ष उपस्थित किया उससे पाठकों में सामाजिक चेतना का अंकुर प्रस्फुटित हुआ। वे स्वयं गाँधी जी के आंदोलनों के समर्थक बने। ‘सेवासदन’ उपन्यास में सामाजिक सुधारों के प्रयासों को आवाज़ दी। ठाकुर का कुआँ, सद्गति आदि कहानियों में वे निरन्तर जाति-व्यवस्था पर कुठाराघात करते रहे। ‘निर्मला’ उपन्यास में बेमेल विवाह से उपजी समस्याओं को दर्ज किया तो ‘गबन’ उपन्यास में स्त्रियों के आभूषण प्रेम जैसे विषय से उपजी हालत से पाठक वर्ग को रू-ब-रू करवाया।
गोदान- महाकाव्यात्मक उपन्यास-
जिस प्रकार शुक्ल जी ने सूरदास के लिए लिखा है कि “सूरदास
वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आये थे” उसी प्रकार कहा जा सकता है कि प्रेमचंद भारतीय
ग्रामीण समाज का कोना-कोना झाँक आये थे। प्रेमचंद ने स्वयं अपने बचपन में सौतेली
माँ का दुर्व्यवहार सहन किया था शायद इसीलिए उनके साहित्य में जगह-जगह यह चीज़ लौट
कर आती है। विधवा विवाह का न केवल साहित्य में समर्थन किया बल्कि अपने जीवन में भी
उतारा। गरीबी, अशिक्षा,
पाखंड, बेरोजगारी, सूदखोरी, अकाल,
भ्रष्टाचार,
दहेज, विधवा-विवाह , मृत्यु-भोज आदि को विषय बनाकर निरंतर लिखते रहे।
गोदान की इच्छा लिए एक भारतीय किसान जीवन भर गाय का सुख
नहीं देख पाता। फिर भी अपनी मृत्यु पर गाय का दान देखना चाहता है ताकि स्वर्ग में
स्थान मिल सके। पत्नी धनिया इतनी मुखर है कि गाय न रहने पर पंडित को गाय की रस्सी
देकर कहती है इसे ही गऊ दान समझो।
गोदान उपन्यास में हर तरह के पात्र मिल जाएँगे। इतने बड़े
स्तर पर वैचारिकी के साथ पात्रों के मूल स्वभाव से न्याय करना प्रेमचंद के ही बस
की बात थी।
आज वैश्वीकरण के बावजूद किसानों की समस्याएँ जस की तस हैं।
अन्नदाता आज भी पसीना बहाकर भी अभावों में जीने को बाध्य है इसलिए कहीं न कहीं
प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं।
तीस वर्षों के लेखन में उन्होंने इतने नायाब नगीने हिन्दी
साहित्य को दिए। हिन्दी भाषा को ऊँचाइयाँ दी। ईश्वर उन्हें पंद्रह बीस साल और दे
देता तो यह यात्रा कितनी आगे तक पहुँचती कल्पना ही की जा सकती है। क्योंकि 1916 से 1936 बीच उनकी विचारधारा निरन्तर आगे बढ़ती रही है। वे भारतीय
समाज के सच्चे पथ-प्रदर्शक व हिन्दी के सच्चे कलम के सिपाही हैं।
अनिता मंडा
दिल्ली
*
बहुत बढ़िया। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद की जीवन यात्रा
उनका साहित्य योगदान
अद्भुत आनंद।
निश्चय ही प्रेमचंद हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। बहुत अर्थपूर्ण आलेख ।
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