ढोला-मारू : एक प्रसिद्ध प्रेमगाथा
डॉ. हसमुख परमार
साहित्य जगत में शिष्ट साहित्य के साथ-साथ लोकभाषाओं में
रचित साहित्य की भी विशेष पहचान व ख़्याति रही है । शताब्दियों से लोकरंजन और लोकजीवन
की सहजाभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में विकसित लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य, लोकसुभाषित
जैसी लोकविधाओं की मौजूदगी को साहित्यिक शोध-समीक्षा के क्षेत्र में भी हम बखूबी देख
रहे हैं ।
लोकगीत की अपेक्षा आकार में बड़ी लोकगाथा में प्रेम, वीरता, इतिहास, कल्पना, धर्म-अध्यात्म, योग-साधना
प्रभृति विषय से संबंधी किसी कथा की पद्य शैली-गीत शैली में प्रस्तुति होती है। कथात्मकता
और गीतात्मकता, इन दो तत्वों की प्रधानता के चलते लोकसाहित्य के कुछ विशेषज्ञों
ने इस लोकविधा को कथात्मक गेय काव्य, कथागीत, गीतकथा, आख्यानगीत, लोकमहाकाव्य जैसे नामों से अभिहित किया है ।
भारतीय लोकगाथाओं
की दीर्घ व दृढ़ परंपरा में एक विख्यात प्रेमगाथा के रूप में ‘ढोला मारू’ का नाम विशेष
रूप से लिया जाता है। मूलतः राजस्थान की और लोकप्रियता के लिहाज से वहाँ की सर्वोपरि
इस लोकगाथा में राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू (मारवणी) की प्रेम कहानी वर्णित है।
एक कथा के रूप में इसकी सर्वाधिक महत्ता को लेकर राजस्थान में एक दोहा प्रसिद्ध है-
सोरठियो दूहो
भलो, भली मारवण की बात ।
जोबन-छाई धण
भलि, ताराँ छाई रात ।।
मुख्य रूप से राजस्थान की जमीन पर प्रचलित व विकसित ‘ढोला
मारू’ की कथा का प्रचार-प्रसार राजस्थान के साथ साथ ब्रज, छत्तीसगढ़ तथा
और भी कई प्रांत-प्रदेश में हुआ है। अलग-अलग क्षेत्रों में ‘ढोला मारू’ नाम से प्रचलित
गाथा के कथा-प्रसंगों में थोडा बहुत अंतर अवश्य मिलता है। वैसे भी लोकसाहित्य का विकास
मुख्यतः मौखिक रूप में होता है, अत: कथात्मक लोकविधाओं से संबंधित रचनाओं की कथावस्तु में
समय के साथ एक ही प्रदेश तथा अलग-अलग प्रदेशों में लोगों द्वारा, लोकगायकों
द्वारा थोड़ा-बहुत परिवर्तन होता रहता है ।
प्रेम जीवन का प्राण-तत्व है, अत:
साहित्य में इसकी प्रधानता स्वाभाविक है। साहित्य,
चाहे शिष्ट साहित्य हो या लोकसाहित्य, उभय
की दीर्घकालीन परंपरा में प्रमुख व स्थायी विषय के रूप में प्रेम की विशेष उपस्थिति
रही है। ‘ढोला मारू’ का मूल प्रतिपाद्य प्रेम ही है। ढोला और मारू का बाल विवाह, युवावस्था
में ढोला का मालवणी से दूसरा विवाह , ढोला के प्रथम विवाह की बात जानते ही मालवणी का सपत्नीभय
व चिंता, तत्पश्चात विरह, मारू का वियोग और ढोला के दूसरे विवाह की जानकारी से इसमें
वृद्धि, मारू से मिलने की ढोला की उत्कंठा और व्याकुलता,
ढोला और मारू का मिलन आदि प्रसंगों व भावस्थितियों का विस्तार
इस लोकप्रिय रचना की कथा है ।
नरवर के राजा नल का पुत्र साल्हकुँवर जो ढोला के नाम से
जाना जाता है और मारू यानी मारवणी पूगल के राजा पिंगल की पुत्री। नल और पिंगल दोनों
के परिवार के बीच हुई एक मुलाकात के दौरान ढोला और मारू का विवाह सम्पन्न होता है।
“कहा जाता है कि पूगल में अकाल पड़ने पर राजा पिंगल विवश होकर नल के राज्य में
चले गये थे। तभी पिंगल की रानी ढोला पर रीझ गई थी और उसने मारवणी से उसका विवाह कर
दिया था ।” यह बाल विवाह था क्योंकि विवाह के समय ढोला की उम्र थी तीन वर्ष और मारू की उम्र
डेढ़ वर्ष। इतनी कम उम्र में लड़की को ससुराल में रखना वैसे भी ठीक नहीं था, अत:
पिंगल और उनकी पत्नी बेटी मारू को लेकर घर लौट जाते हैं। समय गुजरता है। ढोला को अपने
इस विवाह का स्मरण नहीं रहा । परिवार में से भी किसी के द्वारा यह बात ढोला को बताई
नहीं जाती और युवावस्था में ढोला का दूसरा विवाह मालवा की राजकुमारी मालवणी से कर दिया
जाता है।
मालवणी और ढोला का दाम्पत्य जीवन प्रसन्नता के साथ व्यतित
हो रहा था, ऐसे में एक दिन मालवणी को ढोला के प्रथम विवाह की बात का पता चलता है। अब मालवणी
को चिंता इस बात की थी कि मारवणी कभी भी यहाँ आ सकती है या उसका संदेश लेकर कोई न कोई
नरवर जरूर आ सकता है। सौतियाडाहवश मालवणी ने पूगल और नरवर के बीच के मार्ग को भी अपने
अधिकार में कर लिया जिससे कि पूगल से कोई भी व्यक्ति ढोला का संदेश लेकर नरवर में प्रवेश
न कर सके। ऐसे में एक दिन एक व्यापारी नरवर से पूगल आता है और पिंगल और मारू को ढोला
के विवाह की बात बताता है। राजा पिंगल और विरहग्रस्त मारू द्वारा अपना संदेश ढोला तक
कुछ ढाढियों के माध्यम से भेजा जाता है। ढाढियों से मारू का प्रेम संदेश सुनकर मारू
से मिलने को उत्सुक ढोला मालवणी के उसे रोकने के अनेक प्रयासों के बावजूद वह पूगल पहुँचता
है। पूगल में कुछ समय रहने के पश्चात वह अपनी पत्नी मारू को लेकर नरवर आने के लिए लौटता
है। मार्ग में आई हुई कई मुश्किलों का सामना करते हुए अंतत: ढोला मारू सहित कुशल क्षेम
नरवर पहुँचता है और अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुख-शांति से अपना जीवन जीता है ।
इस लोकप्रसिद्ध प्रेमगाथा का लोक एवं लोकसाहित्य विषयक
ग्रंथों के अलावा हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथ, विशेषत: हिन्दी साहित्य का इतिहास
(सं.डॉ. नगेन्द्र) में भी आदिकालीन हिन्दी साहित्य के अंतर्गत ‘लौकिक साहित्य’ से संबद्ध
रचनाओं में ‘ढोला-मारू रा दूहा’ का परिचय दिया
गया है। “ग्यारहवीं शताब्दी में रचित यह एक लोकभाषा-काव्य है ‘दूहा घणाँ पुराणां अछइ’ पंक्ति इसकी प्राचीनता की ओर संकेत करती है
। ........मूलतः दोहों में रचित इस लोककाव्य को सत्रहवीं शताब्दी में कुशलराय वाचकने कुछ
चौपाइयाँ जोड़कर विस्तार दिया। इसमें ढोला नामक राजकुमार और मारवणी की प्रेमकथा का वर्णन
है । ....... इस काव्य में नारी हृदय की अत्यंत मार्मिक व्यंजना मिलती है। प्रेम का सात्विक, किंतु
सरस पक्ष इसमें विस्तार से प्रस्तुत हुआ है। कवि ने मारवणी के भावों की व्यंजना में
संस्कृत के प्रेम-काव्यों की परंपरा का प्रभाव भी ग्रहण किया है। ऋतुओं की सरसता के
संदर्भ में मालवणी और मारवणी के विरह-वर्णन ह्रदय पर स्थायी प्रभाव डालते हैं ।”
ढोला, मारवणी और मालवणी को लेकर कथा का अंत सुखद है, यानी
रचना सुखांत। बहुत ही सहज-स्वाभाविक तथा कहीं-कहीं तो बहुत रोचक ढंग से यह कथा दोहा
छंद में वर्णित है। रस की दृष्टि से इसमें वियोग शृंगार की प्रधानता है। स्त्री ह्रदय
की भावानुभूति की सहजाभिव्यक्ति, स्थानीय वैशिष्ट्य का उल्लेख व वर्णन, प्रेमवर्णन
के साथ-साथ नीति व उपदेश के कतिपय संदर्भ,
विषयानुरूप-भावानुरूप भाषा-प्रयोग आदि इस गाथा की उल्लेखनीय
विशेषताएँ हैं ।
संदर्भ ग्रंथ
1. लोकसाहित्य विमर्श,
डॉ. द्विजराम यादव,
डॉ.विजय कुमार
2. हिन्दी साहित्य का इतिहास,
सं. डॉ. नगेन्द्र
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
सुन्दर, सुखान्त कथा की बहुत सरस प्रस्तुति, हार्दिक बधाई !
जवाब देंहटाएं"ढोला"शब्द का इस्तेमाल गीतों में भी खूब हुआ है ।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति। सुदर्शन रत्नाकर
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