स्त्री : परिचय
आनन्द तिवारी
चपल रेखा सुहासिनी-सी,
मधुर भाष भाषिनी-सी।
रणचंडी अबला कामिनी-सी,
भोर भवित निर्वासिनी-सी।
बस यही है गान तान
का,
अमिट जीवन सुकुमारी
बालिका।
दरश में है समान
प्रेमिका,
विरह में है समान
लतिका।
अमर पुष्प शीर्ण-सी,
टूटने पे जीर्ण-सी।
हिमपात में है शुष्क-सी,
बरसात में है नम-सी।
नियमबद्ध है राग
रूढ़ियों का,
समयबद्ध है विचार
पीढ़ियों का।
अटल है बदलाव नियति
का,
अपरिहार्य आरूढ़
है बोझ दर्प का।
निर्जन वन गरिमा-सी,
ईश्वर की अनुपम महिमा-सी।
सस्वर बजती रागिनियों-सी
,
श्रांत विश्रांति
की गलियों-सी।
झर झर करता स्वर
झरने का ,
कल कल करता मन विहंग
का ।
दीप प्रज्वलित रहता
है सपनों का ,
अश्रु स्रावित नीर
सूचक है कुछ खोने का।
तीव्र पवन सम गामिनी-सी,
स्वयं पूरित अनुपम
मंदाकिनी-सी,
बनके जीवन की अपूर्ण
सुंदरी-सी,
कभी कभी किसी की
सुहागिनी-सी।
अपराजित सहनशील नाम
दूसरा करुणा का,
मनभावित स्वच्छ निर्मल
प्रकाश है अरुणा का।
वस्त्र धारित करना
सम्मान है निज तन का,
पुष्प अर्पण करना
जैसे विश्वास है ईश्वर का।
अमर अटल वृक्ष वल्लरी-सी,
सामने सबके शील झल्लरी-सी।
ज्ञान में अनुश्रुति
सरस्वती-सी,
स्नेह में मधुपुरित
प्रेमिनी-सी।
आभाष नहीं है पुरुष
की कठोरता का,
विलास है सबकुछ प्रमाण
मनुष्यता का।
टुकड़ों के लिए श्रापित
द्वेष झगड़े का,
सबकुछ तरित जीवन
समान पशुता का।
काली अमावस की अंधियारी-सी,
श्वेत पूर्णिमा की
नवल चाँदनी-सी,
अश्रु की बहती सिसकती
नदी-सी,
झेलकर सबकुछ अडिग
द्वीप-सी।
सह जाय जो सब भार
वह ढाल है राणा का,
थरथरा के रख दे जो
चट्टान वह मौसम है जाड़ा का।
क्या कभी कोई बनता
है सहारा, बेसहारा का
डुबकी लगा के तर
जाते हैं ऐसा तेज है निर्मल धारा का।
पतित पावनी बहती
निर्मल गंगा-सी,
हर बात का प्रतिउत्तर
मन चंगा-सी।
दुखों का सार है
प्रत्यक्ष माया-सी,
परिचय देती है करके
वज्रनाद व्योम-सी।
बजता है ढोल होता
है ढोंग आलाप अपने अधिकारों का।
एकतरफा काला चिट्ठा
सूचक है इनके खोखले विचारों का ।
वहित सबकुछ दिखावा
है सहनशीलता जूठे सामानों का ,
बर्ताव है श्रेष्ठता
का बहाना है अफसाना झूठे अपमानों का।
अबाधित गतिशील समय-सी,
विश्व में व्यापित
शहद-सी।
मधुर मीठी हृदय चासनी-सी,
विराजित पुष्पों
की कोमल आसानी-सी।
विपत्ति में आभाष
है ह्रदय की कठोरता का,
साथ है सुख में, हर दुख में सिर्फ नारी का।
एहसास है पावन प्यार
और स्नेह अपनेपन का,
सम्मान करना उनका
सम्मान है खुद का।
ममता से पूर्ण है
लगती है क्षीर-सी,
स्वच्छंद करे शंखनाद
तो चुभती है पीर-सी।
सजी है शगुन है तो
लगती है मंगल-सी ,
श्वेत है अबोध है
फिर भी अमंगल-सी।
सबकुछ बदल गया बरसा
बादल बदलाव का,
सोच न बदली बदला
न मौसम अहंकार का,
अभिमान है सदा रहेगा
पुरुष अधिकारी समाज का ,
परिचय दिया जाता
है जब झुकता है मस्तक नाम का।
प्रकृति निरुपमा
अद्वितीय सौंदर्य-सी,
क्रोध में ज्वलित
रूप काली रौद्र-सी।
अधिकारों की हकदारिनी
नहीं है पुष्प-सी,
लड़ेगी और जीतेगी
बनके माँ दुर्गा शक्ति-सी।
एक पावन त्यौहार
है नारीत्व मातृ शक्ति का,
सिखलाता है जीवन
का सार पर्व है भक्ति का।
संकल्पित हम दहन
करेंगे तत्व अपने दुर्गुणों का ,
सब मिलके बोलो जय
हो जय हो सदा नारी शक्ति का।
आनन्द तिवारी
शोध छात्र,
हिंदी विभाग
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय
बड़ौदा
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