शुक्रवार, 31 मार्च 2023

दोहे

 



अनिता मंडा

 

बचपन-मन झुलसा रही, अलगावों की आँच।

कोरे कागज़ पर लिखा, पाए क्या हम बाँच।।

 

घटनाओं का अब कहो, लिखता कौन बयान।

गूँगी हुई ज़बान तो, बहरे हैं सब कान।।

 

सम्बन्धों की देहरी, दिखती लहूलुहान।

घुटी-घुटी सी साँस को, मिले न रोशनदान।

 

पहरेदारी साँच पर, झूठ को लगे पंख।

दमे भरी हर साँस है, कौन बजाए शंख।।

 

मन-जंगल में खिल गए, जब यादों के फूल।

अनजानी सी सब डगर, ख़ुद को जाएँ भूल।।

 

वादों के परचम तले, मची हुई है भीड़।

खाली चोंचें भागती, ढूँढ़ रही हैं नीड़।।


अनिता मंडा

दिल्ली 


5 टिप्‍पणियां:

फरवरी 2025, अंक 56

  शब्द-सृष्टि फरवरी 202 5 , अंक 5 6 परामर्शक की कलम से : विशेष स्मरण.... संत रविदास – प्रो.हसमुख परमार संपादकीय – महाकुंभ – डॉ. पूर्वा शर्...