दलितोत्थान में डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता का अवदान
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
पत्रकारिता जगत में डॉ. अम्बेडकर एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में विद्यमान हैं। यह एक सफल पत्रकार और प्रभावी सम्पादक थे। स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री तथा संविधान निर्माता के साथ-साथ ये दलित पत्रकारिता के जनक भी माने जाते हैं। डॉ० अम्बेडकर का मानना था कि दलितों को जागरुक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए पत्रकारिता अति आवश्यक है । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सर्वप्रथम एक पाक्षिक अखबार ‘मूकनायक’ (31 जनवरी 1920) से पत्रकारिता जगत में वे प्रवेश करते हैं। यह पत्र मराठी भाषा में था। ‘मूकनायक’ के साथ ही इन्होंने कई अन्य पत्र एवं पत्रिकाओं का सम्पादन किया, जिसके माध्यम से इन्होंने शोषित एवं दलित समाज में जागृति उत्पन्न की व इन्हें संगठित कर अपने हक के लिए आन्दोलित किया।
डॉ. अम्बेडकर ने अपने सभी पत्र मराठी भाषा में
ही प्रकाशित किए क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र था और मराठी वहाँ की जनभाषा
थी। इसका एक कारण यह भी था कि दलित समाज के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे लोग नहीं थे और वह
मराठी के अलावा शायद ही अन्य भाषा समझ पाते इसीलिए इन्होनें मराठी भाषा में ही अपनी
पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इनके प्रमुख पत्रों में- ‘मूक नायक (1920), बहिष्कृत
भारत(1927), समता (1928 जनता(1930) तथा प्रबुद्ध भारत (1956) आदि हैं।
मूकनायक
डॉ. अम्बेडकर द्वारा संपादित ‘मूकनायक’ पहला
दलित मराठी पाक्षिक पत्र था । 31 जनवरी 1930 को इन्होंने इसका पहला अंक सम्पादित किया
जिसमें इन्होंने अछूतों पर होने वाले अत्याचारों को प्रकट किया। इस पत्र के संपादन
में डॉ. अम्बेडकर के साथ ‘पाडुराम नंदराम भटकर’ भी थे । इस पत्र के शीर्ष भाग पर ‘संत
तुकाराम’ के वचन ( काय करूं आतां धरूनियां भीड । निःशक हें तोंड तजविलें ॥ / नव्हे
जगीं कोणी मुर्कियांचा जाण सार्थक ल्याजून नव्हे हिताI) अंकित थे। मूकनायक पूर्णतः
मूक दलितों की आवाज थी जिसमें उनकी पीड़ाएँ बोलती थीं। मूकनायक’ के पहले अंक में इन्होंने
‘मनोगत’ शीर्षक से एक लेख छापा और और इसके प्रकाशन के औचित्य के बारे में लिखा था कि
‘बहिष्कृत लोगों पर हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय के उपाय सोचकर उनकी भावी
उन्नति व मार्ग के सच्चे स्वरूप की चर्चा करने के लिए वर्तमान पत्रों में जगह नहीं
अधिसंख्य समाचार पत्र विशिष्ट जातियों के हित साधन करने वाले हैं कभी-कभी उनका आलाप
इतर जातियों को अहितकर होता है।’ इसी संपादकीय में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं,
“हिन्दू समाज एक मीनार है। एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल और एक दूसरे तल में जाने
का कोई मार्ग नहीं है जो जिस तल में जन्म लेता है उसी तल में मरता है।" देखा जाए
तो डॉ. अम्बेडकर की यह टिप्पणी वर्तमान का भी यथार्थ है। जो पूर्वाग्रह मीडिया जगत
में अम्बेडकर के समय था वह आज भी काफी हद तक दिखाई देता है। अम्बेडकर का मानना था कि
दलितों व अछूतों के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ दलित पत्रकारिता ही संघर्ष कर सकती
है। स्वयं अम्बेडकर की पत्रकारिता कैसे इस सवाल पर मुखर है इसे ‘मूकनायक’ के अगस्त
1920 के अंक में देखा जा सकता है, ‘कुत्ते बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं वे
बच्चों का मल भी खाते है। उसके बाद वरिष्ठों स्पृश्यों के घरों में जाते हैं तो उन्हें
छूत नहीं लगती। वे उनके बदन से लिपटते चिपटते हैं। उनकी थाली तक में मुँह डालते हैं
तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती है लेकिन अछूत उनके घर में काम से भी जाता है तो वह
पहले से ही बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है । घर का मालिक दूर से देखते ही कहता
है- अरे-अरे दूर हो, यहाँ बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा पड़ा है, तू उसे छूवेगा ।’
अम्बेडकर ने इस पत्र में दर्जनों टिप्पणियाँ लिखी और 1923 तक यह पत्र निकलता रहा। अम्बेडकर
के विलायत चले जाने और आर्थिक अभाव के कारण 1923 में इस पत्र को बंद करना पड़ा लेकिन
यह पत्र दलितों में नयी चेतना का संचार करने व उनमें नयी चेतना फैलाने के उद्देश्य
में सफल रहा।’
बहिष्कृत
भारत
मूकनायक के बंद होने के कुछ वर्षों बाद (अप्रैल
1927) अम्बेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ नाम से दूसरा मराठी पाक्षिक अखबार निकाला। यह पत्र
बंबई से
प्रकाशित होता था। इस पत्र का भी प्रवेशांक सम्पादकीय ‘मनोगत’ था, जो मूकनायक का था।
इस पत्र के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर अछूतों की
समस्याओं और शिकायतों को सामने लाने का कार्य किया। साथ ही वह इसके माध्यम से अपने
आलोचकों को भी जबाब देते थे। वह अछूतों की कमजोरियों को भी भली-भाँति जानते थे और उनकी
इस पत्र में खुलकर आलोचना करते थे । ‘बहिष्कृत भारत’ के दूसरे अंक (मई 1927) की सम्पादकीय
टिप्पणी में इसे देखा जा सकता है, ‘आचार-विचार और आचरण में शुद्धि नहीं आयेगी, अछूत
समाज में जागृति और प्रगति के बीज कभी नहीं उगेंगे। आज की स्थिति पथरीली बंजर मनः स्थिति
है। इसमें कोई भी अंकुर नहीं फूटेगा इसीलिए मन को सुसंस्कृत करने के लिए पठन-पाठन व्यवसाय
का अवलंबन करना चाहिए ।’ अम्बेडकर ने ‘बालगंगाधर’ के नारे "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध
अधिकार है।" पर एक सम्पादकीय लेख में लिखा कि ‘बालगंगाधर तिलक’ अछूतों के बीच
पैदा होते तो यह नारा नहीं लगाते कि ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ बल्कि वह कहते
हैं कि ‘छुआ-छूत का उन्मूलन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
‘बहिष्कृत भारत’ में प्रकाशित बाबा साहेब के
अग्रलेखों में उनके चिंतन, अद्वितीय तर्कशक्ति तथा लेखन कौशल की अनुभूति सहज ही हो
जाती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन व विश्लेषण कर उन्होंने प्रतिष्ठित ब्राम्हण
वर्ण द्वारा स्वयं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिए अपनायी गई धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों
का तर्क के आधार पर विरोध किया । उन्होंने दलितों से आग्रह किया कि वे उन्हें तिलांजलि
देकर स्वयं का उद्धार करें। अपने इन लेखों में उन्होंने जाति भेद, अस्पृश्यता, अंधविश्वास
तथा कुप्रथाओं पर चोट की तथा दलित शिक्षा के लिए प्रोत्साहन किया।
स्पष्ट है कि इस पत्र ने दलितों में अलख जगाने
का महत्वपूर्ण कार्य किया, किन्तु इसके मात्र 34 पाक्षिक अंक ही निकल सके और आर्थिक
कठिनाइयों के कारण 1929 में इसे बंद करना पड़ा।
समता
‘बहिष्कृत भारत’ के बाद अम्बेडकर ने एक हिंदी भाषी
पत्र ‘समता’ का भी संपादन जून 1928 (29 जून) में शुरू किया। यह पत्र समाज में समता
लाने के उद्देश्य से पाक्षिक रूप में निकाला गया। यह पत्र मूलत: अम्बेडकर द्वारा स्थापित
संस्था ‘समाज समता संघ’ (समता सैनिक दल) का मुख्य पत्र था। इसके संपादन का कार्यभार
डॉ. अम्बेडकर
द्वारा नियुक्त ‘देवराज विष्णु नाइक’ द्वारा किया जाता था किन्तु आर्थिक अभाव के चलते
यह पत्र भी लगभग 2 वर्ष के अंतराल में बंद हो गया।
जनता
समता पत्र बन्द होने के कुछ दिन बाद ही डॉ. अम्बेडकर इसका पुनः प्रकाशन जनता नाम से प्रारंभ किया 24
फरवरी 1930 को इस पाक्षिक का पहला अंक प्रकाशित हुआ। 31 अक्टूबर 1930 से यह साप्ताहिक
बन गया। 1944 में डॉ अम्बेडकर ने ‘आम्ही शाशनकर्ती जमात बनणार (हम शासक कौम बनेंगे)"
शीर्षक से प्रसिद्ध लेख लिखा। अम्बेडकर द्वारा सम्पादित यह ऐसा पत्र था जिसमें दलित
समस्याओं को बखूबी से उठाया गया। यह पत्र 1956 में लगभग 26 वर्षों तक लगातार प्रकाशित
होता रहा और दलितों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा।
प्रबुद्ध
भारत
‘प्रबुद्ध भारत’ डॉ अम्बेडकर का अंतिम व पाँचवा
महत्वपूर्ण पत्र था जिसका प्रकाशन 4 फरवरी 1956 को शुरू किया गया। वैसे तो यह जनता
का ही द्वितीय संस्करण था जिसका नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया गया था। यह पत्र
आरंभ से अंत साप्ताहिक रहा और हर अंक में पत्रिका के शीर्ष की दूसरी ओर लिखा होता था
डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रस्थापित । साप्ताहिक शब्द के नीचे, "बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि, सर्वं शरणं गच्छामी" छपा रहता था | इस पत्र के मुख्य शीर्ष
पर ‘अखिल भारतीय दलित फेडरेशन’ का मुखपत्र छपता था। डॉ अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण के
बाद इस पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। किन्तु
अप्रैल 2017 महात्मा फुले की जयंती के उपलक्ष्य में बाबा साहब के पौत्र ‘‘प्रकाश अम्बेडकर’
ने ‘प्रबुद्ध भारत’ को नए सिरे से शुरू करने की घोषणा की और 10 मई 2017 को इसका पहला
अंक प्रकाशित हुआ। तथा यह पाक्षिक शुरू हुआ।
अन्ततः स्पष्ट है कि अपने इन पत्रों के माध्यम
से डॉ. अम्बेडकर ने दलित
समाज को कीचड़ के गर्त से निकालकर मुख्य धारा में जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इन
पत्रों में प्रकाशित इनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ भारत की समाज व्यवस्था में मुठभेड़ के
रूप में देखी जानी चाहिए। डॉ० अम्बेडकर की पत्रकारिता किसी पर्यवेक्षक की तरह नहीं
थी किन्तु वह बहस में हस्तक्षेप करते हुए यथास्थिति को बदलने का प्रयास करते थे।
सन्दर्भ –
1.
चंचरीक, कन्हैयालाल,
आधुनिक भारत का दलित आन्दोलन (2008), दिल्ली
यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन।
2.
चौबे, डॉ. कृपाशंकर हिन्दी पत्रकारिता के शिल्पकार।
3.
नैमिशराय, मोहनदास. दलित
पत्रकारिता; एक विमर्श सामाजिक न्याय निम संदर्भ ( खण्ड: 6)- 2017, दिल्ली, अनन्य प्रकाशन |
4.
नैमिशराय, मोहनदास. भारतीय दलित आन्दोलन का इतिहास (2013), इलाहाबाद, राधाकृष्ण
प्रकाशन।
www.wikipedia
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
पीएच.डी.
शोधछात्र
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार पटेल
विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
ज्ञानवर्धक उम्दा आलेख। बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक,उम्दा आलेख। बहुत बहुत बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंसुदर्शन रत्नाकर
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