हिन्दी
लोकगीतों में होली के विविध रंग
डॉ.
पूर्वा शर्मा
लोकगीत,
लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य एवं लोकसुभाषित प्रमुख लोक विधाएँ हैं। इसमें कोई संदेह
नहीं कि प्रारंभ से ही संवेदना, शैली एवं मात्रा-परिमाण की दृष्टि से लोकगीत को
लोकसाहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्वीकार किया गया है। “लोकसाहित्य
के अंतर्गत लोकगीत का प्रमुख स्थान है। जनजीवन में उसकी प्रचुरता तथा व्यापकता के कारण
इसकी प्रधानता स्वाभाविक है। लोकसाहित्य के जिन विभिन्न प्रकारों का उल्लेख पहले
किया गया है, उनमें पचास प्रतिशत से भी अधिक लोकगीतों की संख्या समझनी चाहिए।”
(भरथरी लोकगाथा की परंपरा, डॉ. रामनारायण धुर्वे, पृ. 49)
लोकसाहित्य
के मर्मज्ञों ने अलग-अलग आधारों पर लोकगीतों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। इन
अध्येताओं ने मनुष्य जीवन में संपादित किए जाने वाले विविध संस्कार,
प्रकृति के अंतर्गत विविध
महीने और ऋतुएँ, धार्मिक जीवन से जुड़े विविध देवी-देवता-व्रत-त्यौहार,
साहित्य के अलग-अलग रस, समाजव्यवस्था में
विविध जातियाँ, श्रमजनित विविध क्रियाएँ प्रभृति को ध्यान
में रखते हुए गीतों के विभिन्न भेद-उपभेद निर्धारित किए हैं। वैसे तो हर प्रकार के
लोकगीत का लोक में विशेष महत्त्व रहा है, किंतु यदि होली से
संबंधित गीतों की ओर दृष्टिपात किया जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन
गीतों का रंग, मिज़ाज़ एवं गाने वालों का उत्साह कुछ अलग ही
होता है। लोक की धार्मिक भावना, इनके आनंद-उत्साह-उमंग,
सामाजिक-पारिवारिक जीवन संबंधी संदेश आदि के मामले में होली-गीत बेजोड़
है।
लोकगीतों
के वर्गीकरण में हम देखते हैं कि होलीगीत को ज्यादातर ऋतुगीतों की श्रेणी में रखा
गया है,
अपितु होली हमारे प्रमुख त्यौहारों में से एक है और इस त्यौहार के
अवसर पर लोक में गाए जाने वाले गीतों को यदि त्यौहार संबंधी गीतों में स्थान दें
तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। “इस त्यौहार (होली) से संबंधी गीतों को एक तरह से
पर्व या उत्सव संबंधी गीतों की कोटि में रखा जा सकता है। किंतु इन गीतों व
त्यौहारों का संबंध फाल्गुन महीने एवं वसंतऋतु से होने के कारण इनको फाग-फगुआ या कहीं-कहीं
वसंत गीत नाम देकर इन्हें ज्यादातर ऋतु संबंधी गीतों में स्थान दिया गया है।” (लोकगीत
: स्वरूप एवं प्रकार,डॉ. हसमुख परमार, पृ. 64)
दिवाली,
होली, रामनवमी, जन्माष्टमी आदि त्यौहार भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग है। ये
त्यौहार हमारे जीवन में विशेष महत्त्व रखते हैं। बड़े ही आनंद-उत्साह से मनाया जाने
वाला होली का त्यौहार होलिका दहन के साथ-साथ एक दूसरे को रँगने और इन रंगों में अपनी
समस्याओं, राग-द्वेष आदि को भूलाकर मस्ती में खो जाने वाला त्यौहार है। इस माहौल
में कंठ से अनेक गीत फूट पड़ते हैं। “होली
के अवसर पर गाए जाने वाले इन गीतों की गति, उनकी
भाषा का बंध, स्वरों का संधान अत्यंत मीठा होता है। होली के
गीत गाते समय ढोल, मंजीरे, झाँझ आदि
बजाए जाते हैं। लगभग सारे गीत उमंग एवं उत्साह के साथ गाए जाते हैं।” (हिन्दी
साहित्य का बृहत् इतिहास, खंड-16, पृ. 68
)
अनेक
स्थानों पर वसंत पंचमी के दिन से ही होली के गीत गाने का प्रारंभ हो जाता है। “आगरा
के गाँवों में बसंत से ही होली आरंभ हो जाती है। जगह-जगह पर फाग गाए जाते हैं।”
इसी तरह भोजपुरी होली गीत के सन्दर्भ में “माघ मास की शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) के
दिन से फगुआ का गान प्रारंभ किया जाता है।” (उद्धृत हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक
अध्ययन,
डॉ. गिरीशसिंह पटेल पृ. 202)
होली
के गीत भारत की लगभग सभी बोलियों में मिलते हैं। इन गीतों में वसंत एवं फाग की प्राकृतिक शोभा के साथ-साथ त्यौहार से प्रभावित-उत्साहित
लोक जीवन की विभिन्न भावानुभूतियाँ व्यक्त होती हैं। होली के गीतों में
धार्मिक-पौराणिक विविध पात्रों से जुड़े प्रसंग एवं होली खेलते पात्रों का वर्णन मिलता
है। विशेषतः प्रेम-शृंगार से संबद्ध पौराणिक
पात्रों के जीवन प्रसंगों को होली के गीतों में गाया जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा
गोपियों के चीर हरण वाले प्रसंग का वर्णन निम्न मालवी गीत में देखिए –
“सँवारे
को चरित सुनो री।
इक
समे ब्रज को सब सखियाँ करत फिरत होरी होरी।
मज्जन
हेत धँसी जमुना में कोई साँवरी कोई गोरी,
करत
फिरत जल में झकझोरी।।
सँवारे
को चरित सुनो री।।1।।
ताही
समय ब्रज राज सरवरो आय तहाँ पहुँचोरी,
लेकर
चीर कदम के ऊपर चढ़ि गयो, नन्द किशोर
मुदित
आनंद भयो री।
सँवारे
को चरित सुनो री।।2।।”
(उद्धृत,
मालवा के लोकगीत सं. डॉ. आशा पाण्डे, डॉ.
दिलीप चौहाण, पृ.120-121)
एक
और मालवी गीत में पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन के मधुर क्षणों की प्रस्तुति शंकर-पार्वती
के होली खेलने के वर्णन के माध्यम से हुई है –
“गोरा
तेरा भाग बड़ा शिवशंकर खेले होरी।।टेक।।
बरस
दिना के बारह महीना, मस्त महीना की होरी।
देखो
री मस्त महीना की होरी।।
अरुन
वरन को रंग बनायो, कनक की पिचकारी।
भर
पिचकारी बदन पर डारी, भीज गई गोरा प्यारी।।”
(उद्धृत,
मालवा के लोकगीत सं. डॉ. आशा पाण्डे, डॉ.
दिलीप चौहाण, पृ.120-121)
राधा-कृष्ण,
कृष्ण-गोपियाँ एवं राम-सीता के होली खेलने का वर्णन लगभग सभी भाषा-बोलियों के होली
गीतों का विशेष आकर्षण रहा है। रंग भरी पिचकारियों के साथ हवा में उड़ते अबीर-गुलाल में मुरली, डफ, मंजीरा आदि
वाद्यों की धुन पर थिरकते कृष्ण-राधा के और राम-सीता से
संबंधित कुछ गीत देखिए –
बजे
नगारा दसों जोडी, हाँ, राधा किशन खेलै होरी
दूनौ
हाथ धरै पिचकारी, धरे पिचकारी, धरे पिचकारी
*
* * *
आज
बिरज में होरी रे रसिया-होरी रे,
रसिया
बरजोरी रे रसिया... आज बिरज में।
कउन
के हाथ पिचकारी सोहे
कउन
के हाथ कमोटी रे रसिया.... आज आज बिरज में
कान्हा
के हाथ पिचकारी सोहे
राधा
जी के हाथ कमोटी रे रसिया
आज
बिरज में होरी रे रसिया।।
*
* * *
चलो
बरसाने खेलो होरी,
ऊँचो
गाँव बरसाने
कहिए
तहाँ बसै राधा गोरी।
पाँच
बरस के कुँवर कन्हैया
सात
बरस की राधा गोरी।
*
* * *
होरी
खैलै रघुवीरा अवध में होरी।
केकरा
हाथ कनक पिचकारी,
केकरा
हाथ अबीरा।
राम
के हाथ कनक पिचकारी
सीता
के हाथ अबीरा
होरी
खैले रघुबीरा अवध में होरी।
होली
के गीतों में धार्मिक पात्रों का उल्लेख तो मिलता ही है, साथ ही कई ऐसे गीत मिलते
हैं जिनमें शृंगार की अभिव्यंजना हुई है। शृंगार को उद्दीप्त करने में वैसे भी
वसंत की भूमिका अहम होती है, युवा वर्ग के साथ-साथ वृद्ध भी इस प्रभाव से मुक्त
नहीं रहते –
“होली
मयँ बाबा दिवर लगैं।”
(लोकसाहित्य
का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेशगुप्त, पृ.
143)
शृंगार
संबंधित एक और गीत इस प्रकार है –
“होली
खेलन आओ रे रंगीलो साजन,
ऊँचो
खालो जोत के तू क्या बोओ रे
ऊँचो
खालो जोत के मैंने बाग लगाओ रे
निब्बू,
नारंगी, केतकी, चम्पा की कलियाँ रे।
*
* * *
कोठे
ऊपर कोठारी हुआँ चोर पहुँचो रे
मैं
तोसे पूछऊँ मलनियाँ तेरो क्या-क्या लूटो रे
माल
खजाना छोड़ के मेरो जोबन लूटो रे।।”
(लोकसाहित्य
का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेशगुप्त, पृ.
143)
वसंत
के आते ही हर तरफ सुन्दर पुष्पों के खिलने और वातावरण में सुगंध फ़ैलने से चारों ओर
खुशनुमा माहौल नज़र आता है। इस ऋतु के साथ होली के त्यौहार के आने से लोकजीवन में
पूरी तरह से हर्षोल्लास छा जाता है। वसंत के आगमन के साथ लोगों पर होली का रंग
चढ़ने लगता है और इस उत्साह उमंग से भरे इन लोगों के कंठ से होली की मस्ती, नशा एवं
वसंत की मादकता-सुन्दरता आदि से भरी विविध अनुभूतियाँ गीतों के माध्यम से प्रकट
होती है। ऐसे माहौल में विविध वाद्य यंत्रों का बजना, होली का आनंद एवं नशा, वसंत के
रंग में रंगी प्रकृति, मनुष्य एवं मनुष्येतर जीवों पर इसका प्रभाव, होली खेलने का
नयनाभिराम दृश्य जैसे कई विषय बिन्दुओं को रेखांकित करने वाले एक कवि का मालवी गीत
का स्मरण यहाँ होता है जिसे बताना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा –
झाँझ
मँजीरा ढपली बाजे, बाजे ढम ढम ढोल,
कुदरत
के भी मस्ती चढ़गी, देखो आँख्या खोल,
आनंद
आयो रे,
हाँ,
के आनंद आयो रे
अब
नवो नसों होली को छायो रे,
आनंद
आयो रे।
*
* * *
घणी
खुशी में छोरा छोरी, हाथों में पिचकारी हे,
तरे
तरे का रंग उडाया, बणग्या वी फुलवारी हे
फूल
कली, ने कली फूल में, बईग्या सब बेभोल
आनंद
आयो रे।
(अक्षत
पत्रिका, बसंत-2018, सं. डॉ. श्रीराम परिहार, गीत - नवो नसों होली को, डॉ. शिव
चौरसिया, पृ. 51)
होली
के गीत स्त्री-पुरुष दोनों द्वारा गाए जाते हैं। समूह में गाए जाने वाले इन गीतों
में पर्याप्त विषय-वैविध्य प्राप्त होता है। इस संदर्भ में राजस्थानी होली गीतों
को लेकर ‘जैसलमेर के शृंगारिक लोकगीत’ पुस्तक के लेखक भूराराम सुथार का मत है – “होली
के पर्व पर पुरुषों द्वारा गाये जाने वाले गीतों को ‘फाग’ और स्त्रियों के गीतों को
‘लूर’ के नाम से जाना जाता है।”
कबीर
और जोगीडा भी होलीगीत के ही भेद हैं। होली के अवसर पर गाये जाने वाले उन गीतों को
कबीर के नाम से जाना जाता है जिनमें गालियाँ गाई जाती हैं। ‘अररर अररर भइया, सुन लेउ मोर कबीर। ‘जोगीडा’ में विविध वाद्यों को बजाते हुए नाच-गान के साथ एक टोली गाँव में घर-घर
घूमती है। कबीर गीत के संबंध में डॉ. श्रीधर मिश्र का मत है – “ये कबीर बड़े
अश्लील होते हैं। जैसे उनको एक सुन्दर मौका मिला हो और वे अपने मन की कसक निकाल
रहे हो। यह एक ऐसा अवसर है कि जब समाज लोगों की दमित यौन भावना को सामाजिक एवं अश्लील
मानते हुए भी उस दिन उसकी अभिव्यक्ति की छूट देता है।” (लोकसाहित्य विमर्श, डॉ. द्विजराम यादव, डॉ.
विजय कुमार, पृ. 76)
होली
के पर्व की विविध रस्में एवं कहीं-कहीं जीवन दर्शन का पुट भी इन गीतों में मिलता
है।
शृंगार
वर्णन के अंतर्गत संयोग-वियोग दोनों पक्षों की उपस्थिति इन गीतों में दिखाई देती
है। अपने पिया के संग होली खेलने का आनंद कुछ और ही होता है –
“होली
खेलूं,
होली खेलूं सांवरिया के संग
पकडे
गुलाल मले हाथ पर
अरे
हाँ,
भौं में भर देंगे रंग,
होली
खेलूं सांवरिया के संग”
जहाँ
एक ओर अपने प्रियतम के साथ होली खेलने का आनंद है वहीं दूसरी ओर विरहाग्नि में
जलने वाली प्रिया को यह त्यौहार, वसंत की यह मादक ऋतु और अधिक कष्ट दे रही है। वियोगिनी
की इस पीड़ा की अनुभूति को निम्न गीत में देखा जा सकता है –
“पिया
बिन बैरिन होरी आई।’
विरहिणी की दशा का मर्मस्पर्शी वर्णन इस राजस्थानी गीत में प्रकट हुआ है –
“फागण
आय गयो,
ओरां
रा सायबा चंग बजावै जी
ज्यारी
गीत ज गाये घर नार।
ओरां
रा सायबा घरा बसै
ओरां
रा सायबा होली खेलै
ज्यारे
लूट रमै घर नार
फागण
आय गयो।”
राष्ट्रीय
भावधारा से भी होली गीत अछूते नहीं रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति की चाह,
स्वतंत्रता संग्राम, देश प्रेम, स्वातंत्र्य सेनानियों का स्मरण एवं इनके साहस और
बलिदान के कई संदर्भ इन गीतों में वर्णित है। निम्न गीत में स्वतंत्रता संग्राम के
वीर कुँवर सिंह के पराक्रम को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है –
भोजपुरी
अइसे होली मचाई
गोली
बारूद के रंग बनाए तोपन की पिचकारी
बीच
भोजपुर में फाग मचल वा
खेलें
कुँवर सिंह भाई।
(लोकसाहित्य
विमर्श, डॉ. द्विजराम यादव, डॉ. विजय कुमार, पृ. 76)
उत्तर
भारतीय होली गीतों में व्यक्त राष्ट्रीय भावना के संबंध में डॉ. गिरीश सिंह पटेल
का मत है – “इस प्रदेश (उत्तर भारत) में पाए जाने वाले होली गीतों में राष्ट्रीय
भावना जगाने वाले गीत भी पाए जाते हैं। इनमें हमारे देश की परंपरा,
संस्कृति के बारे में गीत गाये जाते हैं। महात्मा गाँधी, नहेरु, महाराणा प्रताप, शिवाजी
महाराज, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि से संबंधित लोकगीत गाए
जाते हैं, भले ही इनकी संख्या कम हो पर इनकी गायन शैली रोचक
एवं ओजपूर्ण होती है। इन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, लगता है कि श्रोता हाथ में ढाल-तलवार लेकर रणभूमि में उतर जाए और दुश्मनों
की बोटी-बोटी कर डाले।”
इस
प्रकार हम देख सकते हैं कि लोकजीवन से जुड़े होली के लोकगीत सांस्कृतिक दृष्टि से
बहुत महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही यह लोक की विविध अनुभूतियों को गहनता एवं तीव्रता
से अभिव्यक्त करने में भी सक्षम है।
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
होली विषयक लोकगीतों का विस्तृत परिचय .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ....
बधाई 💐
होली,विवाह उत्सव और दूसरे तीज त्यौहार पर गाये जाने वाले लोक गीतों का हिंदी फिल्मों में भी बहुत उपयोग हुआ है । मूल लोक गीतों में कुछ शब्दों की नई कारीगरी करके ख़ूब गीत रचे गये है और बहुत लोकप्रिय हुए है । पूर्वा का ये लेख लोक गीत सम्बन्धी बहुत अच्छी जानकारी पाठकों को उपलब्ध करवाने में सफल सिद्ध होगा ।
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