भवानी दयाल संन्यासी
डॉ. हसमुख परमार
10 सितम्बर, 1892, ई. को दक्षिण अफ्रीका
के जोहांसबर्ग में जन्मे भारतीय मूल के भवानी दयाल संन्यासी ने भारत और दक्षिण
अफ्रीका दोनों देशों को अपनी कर्मभूमि बनाया। तेरह वर्ष की उम्र में पहली बार वे
दक्षिण अफ्रीका से भारत अपने पैतृक गाँव, बिहार के रोहतास जिले के बहुआरा आये थे।
एक बार भारत आने के बाद तो उनका भारत-दक्षिण अफ्रीका की यात्रा का सिलसिला बना ही
रहा। अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सेवी, प्रवासी भारतीयों के अधिकारों के प्रति
प्रतिबद्ध, प्रबुद्ध लेखक, कुशल संपादक, राष्ट्रवादी, आर्यसमाजी, शिक्षा के प्रबल
समर्थक व प्रचारक, सत्याग्रही आदि भवानी दयाल संन्यासी के व्यक्तित्व और
कार्यक्षेत्र की मुख्य पहचान रही। भारत, भारतीय और भारतीय भाषा की सेवा के लिए
सदैव सक्रीय रहने वाले संन्यासी जी ने प्रवासी भारतीयों तथा हिन्दी की सेवा को तो
अपने जीवन का मूल उद्देश्य ही बनाया जिसके चलते हिन्दी का वैश्विक प्रचार-प्रसार
तथा विदेशी धरती पर रहने वाले भारतीयों की समस्याओं के हल हेतु संघर्ष, इस महान शख़्सियत
के जीवन का पर्याय ही कहा जा सकता है।
हिन्दी के असाधारण सेवक भवानी दयाल
संन्यासी की अपने समय में भारत तथा दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार
में अहम भूमिका रही। इस हिन्दी सेवी ने वैश्विक धरातल पर हिन्दी प्रचार का जो
महत्वपूर्ण कार्य किया वो हिन्दी भाषा के विकास व विस्तार के इतिहास में विशेष
उल्लेखनीय है। डॉ. राकेश कुमार दुबे ने अपने एक आलेख में भवानी दयाल संन्यासी को
हिन्दी के प्रथम वैश्विक प्रचारक बताते हुए लिखा है- ‘‘हिन्दी भाषा के प्रचारक के
साथ ही उसके साहित्य संवर्धन में, उसके आरंभिक काल में न केवल भारत वरन् विश्वस्तर
पर जिन व्यक्तियों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है उसमें भवानी दयाल संन्यासी का
नाम अग्रणी है।’’ पहली बार भारत आने के पश्चात किसी शिक्षक या शिक्षा संस्था से
ज्यादा स्वयं की मेहनत, अध्ययन व हिन्दी प्रेम से हिन्दी की विशेष समझ विकसित करने
वाले संन्यासी जी ने अपने पैतृक गाँव में बच्चों को पढ़ने के लिए, विशेषतः इन्हें
हिन्दी की शिक्षा देने हेतु पाठशाला शुरू की।
दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों
की समस्याओं के समाधान हेतु, एक दूसरे से कटकर अलग-अलग रहने वाले इन प्रवासी
भारतीयों को संगठित करने हेतु संन्यासी जी ने इनके लिए एक भाषा, हिन्दी का ज्ञान
देने व इसके प्रयोग पर बल देते हुए, इस भाषा के प्रचार के लिए दक्षिण अफ्रीका में
अलग-अलग जगह पाठशालाएँ शुरू की। बच्चों के अतिरिक्त प्रौढों को भी हिन्दी का विशेष
ज्ञान देने के लिए हिन्दी का पाठ्यक्रम निर्धारित कर रात्रि-पाठशालाएँ खोलीं। यह शिक्षा
बिल्कुल निःशुल्क दी जाती थी। इस तरह दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी प्रचार-प्रसार की
पहल संन्यासी जी द्वारा हुई। ‘‘हिन्दी प्रचार के लिए उन्होंने एक बड़ा प्रभावशाली
कार्यक्रम चलाया। वे भारतीय बस्तियों में अलग-अलग स्थानों पर मिलन गोष्ठियाँ
आयोजित करते और उन गोष्ठियों से प्रवासी भारतीयों में देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम,
स्वाभिमान की भावनाएँ भरते। विभन्न प्रवासी भारतीय इन विषयों पर हिन्दी में ही
भाषण देते। इस कार्यक्रम से तीन प्रयोजन पूरे होते थे- पहला हिन्दी का प्रचार,
दूसरा राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण और तीसरा संघ शक्ति का गठन। धीरे-धीरे जब
प्रवासी भारतीयों में हिन्दी का प्रचार हो गया तो भवानी दयाल जी ने कई हिन्दी
संस्थाओं की स्थापना की।’’ (महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग, पं. श्रीराम
शर्मा, पृ. 3.104)
भवानी दयाल जी द्वारा किया गया संपादन व
लेखन कार्य भी उनके हिन्दी प्रचार का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। 1922 ई. में
संन्यासी ने नेटाल से ‘हिंदी’ नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकाली जो विदेशी धरती पर
रहने वाले भारतीयों में अत्यन्त लोकप्रिय हुई। हिन्दी के प्रचार के साथ-साथ
प्रवासी भारतीयों की समस्याओं व इसका समाधान भी इस पत्रिका का एक महत् उद्देश्य
रहा। अपने हिन्दी प्रेम तथा राजनीतिक सूझबूझ के चलते वे दक्षिण अफ्रीका में
गाँधीजी के ‘इंडियन ओपिनियन’ के हिन्दी संपादक भी रहे। नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) से
प्रकाशित होने वाले ‘अमृतसिंधु’ नामक मासिक पत्र का संपादन संन्यासी जी करते रहे।
दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से 1916 में ‘धर्मवीर’ साप्ताहिक पत्र शुरू हुआ। जो
हिन्दी अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुआ। 1917 से इसका संपादन भवानी दयाल
जी ने किया। ‘‘लगभग दो वर्ष तक इन्हों ने धर्मवीर के संपादन में बिताया। धर्मवीर
के द्वारा दलित और पीड़ित प्रवासी भारतीयों को अपने मानवीय अधिकारों के प्रति
जागरूक करना, वैदिक धर्म और आर्य-संस्कृति का संदेश सुनाना, समाज में प्रचलित सड़ी-गली
रूढ़ियों के विरुद्ध बगावत फैलाना, जात-पात और ऊँच-नीच की भावना को भुलाकर भेदभाव
मिटाना, स्त्रियों को समाज में समानाधिकार दिलाना और मातृभाषा हिन्दी की पताका
फहराना इन्हों ने अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया था।’’ (उद्धृत -पत्रिका-‘प्रवासी
जगत’ केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, जुलाई-सितम्बर-2018, आलेख- ‘हिन्दी के प्रथम
वैश्विक प्रचारकः भवानी दयाल संन्यासी, डॉ. राकेश कुमार दुबे, पृ. 200)
संन्यासी जी सामाजिक-राजनीतिक कार्यों
में सक्रीय होने के साथ-साथ एक लेखक भी थे। इनका लेखन शौकिया नहीं था। हिन्दी
प्रचार, राष्ट्रप्रेम, प्रवासी भारतीयों में जागरूकता पैदा करना आदि इनके लेखन का
उद्देश्य था। इसके लिए लेखन को उन्होंने माध्यम बनाया।इस प्रबुद्ध लेखक ने कई
पुस्तकें लिखीं। यथा, दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास, सत्याग्रही महात्मा
गाँधी, हमारी कारावास की कहानी, वैदिक धर्म और आर्य सभ्यता, नेटाली हिन्दू,
प्रवासी की आत्मकथा, वैदिक प्रार्थना, ट्रांसवाल में भारतवासी आदि। ‘‘प्रवासी
आत्मकथा की भूमिका डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने लिखी है। तो ‘वैदिक प्रार्थना’ की
भूमिका शिवपूजन सहाय ने। सहाय ने तो यहाँ तक लिखा है कि उन्हों ने देश के कई लोगों
की लाइब्रेरियाँ देखी हैं, लेकिन संन्यासी की तरह किसी की निजी लाइब्रेरी नहीं थी।’’ हिंदी के असाधारण सेवक भवानी दयाल संन्यासी (archive.org) पुस्तकों के अतिरिक्त
संन्यासी द्वारा विविध विषयों को लेकर लिखे लेख भी काफी महत्वपूर्ण है। इससे
संन्यासी जी के अपने समय में प्रभाव व महत्त्व का अनुमान किया जा सकता है।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की
समस्याओं के समाधान हेतु सदैव सक्रिय रहने वाले संन्यासी उनके सबसे विश्वसनीय व
लोकप्रिय व्यक्ति रहे। इनके प्रयत्नों से दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों में
अदम्य साहस और जागरूकता आई। ‘‘जिन्हों ने दक्षिण अफ्रीका में रह रहे प्रवासी
भारतीयों को एक सूत्र में आबद्ध किया तथा अनाचार और अत्याचार के विरुद्ध समर्थ
मोरचा खडा करने के लिए उन्हें संगठित किया। स्वामी भवानी दयाल संन्यासी पहले
व्यक्ति थे जिन्हों ने दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों में जागरण का शंख
फूँका।’’ (महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 3.102) संन्यासी
जी गाँधी जी के अधिक निकट रहे। ये भी इनके महत्त्व और प्रभाव का प्रमाण है। गाँधी
जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में चलाए गए सत्याग्रह आंदोलन में उनकी विशेष भूमिका
रही। दक्षिण अफ्रीका में उनके नाम पर कई संस्थान है। फिजी के भारतीयों की
स्वतंत्रता के लिए भी उन्होंने काफी संघर्ष किया जिसके कारण फिजी की आर्यप्रतिनिधि
सभा ने उनके नाम पर ‘भवाली दयाल आर्य कॉलेज’ की स्थापना की। डरबन में इनके नाम पर
भवानी भवन है।
दक्षिण अफ्रीका में जनजागरण के कार्य के साथ-साथ भारत में भी भवानी जी की लोकसेवा अविस्मरणीय रही है। भारत के बंग-भंग आंदोलन में भी इन्हों ने शिरकत की और आंदोलन को सफल बनाने हेतु देश में घूम घूम कर जनजागृति का कार्य किया। गाँधी जी के असहयोग आंदोलन तथा स्वदेशी प्रचार के कार्य से भी वे जुड़े रहे। देश व देशवासियों की सेवा करने वाले संन्यासी जी को कारावास भी मिला। ‘‘1939 ई. में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधि रूप में जब संन्यासी भारत आये और भारत में जब उनकी गतिविधियाँ बढ़ी तो अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया। वे हजारीबाग जेल में रहे। वहाँ उन्होंने ‘कारागार’ नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की जिसके तीन अंक जेल से हस्तलिखित निकले। उसीमें एक अंक सत्याग्रह अंक भी था जिसे अंग्रेज सरकार ने गायब करवा दिया था।’’ स्वामी भवानी दयाल संन्यासी - विकिपीडिया (wikipedia.org)
समाजसेवा और हिन्दी सेवा ही भवानी दयाल
जी के जीवन का एक मात्र ध्येय था, यही उनका धर्म था। भौतिक सुख-सुविधा से बंधे
रहना इनका स्वभाव नहीं था। पिता के अवसान के बाद जब विमाता के साथ पिता की संपत्ति
को लेकर कलह हुआ तो भौतिक संपत्ति से इन्हें वितृष्णा हो गई। हिन्दी के मध्यकालीन
भक्ति-साहित्य तथा स्वामी दयानंद के ‘सत्यार्थप्रकाश’ से प्रभावित होने वाले
आर्यसमाजी भवानी दयाल तप और त्यागपूर्ण जीवन जीते हुए आजीवन लोकसेवा के कार्य से
जुड़े रहे। आर्य समाज के प्रचार में भी उनका विशेष योगदान रहा। अपने गाँव में ‘वैदिक
पाठशाला’ की स्थापना, सासाराम शहर में आर्यसमाज की स्थापना में सहयोग, बिहार आर्य
प्रतिनिधि सभा तथा आर्यावर्त पत्र से जुड़ना इसके प्रमाण हैं।
9 मई, 1950 ई. को अजमेर में इस महान
राष्ट्रवादी, आर्यसमाजी, हिन्दी के वैश्विक प्रचारक तथा प्रवासी भारतीयों के नायक
भवानी दयाल संन्यासी का निधन हुआ। कर्मवीर और यात्रावीर संन्यासी की भारत और
दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में विशेष पहचान रही है।
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
ભવાની દયાલ સન્યાસી વિશે અને તેમના સાહિત્યમાં પ્રદાન વિશે ખૂબ સરસ માહિતી આપી સર આભાર 🙏
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय व्यक्तित्व पर बहुत सुन्दर, सारगर्भित आलेख।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई।