काल
के
कपाल
पर
हस्ताक्षर
: हरिशंकर
परसाई
राजेन्द्र
चन्द्रकान्त
राय
(भाग-पाँच)
हरि ने
चारों ओर
देखा। तेज
हवा चल
रही थी।
बाल उड़
रहे थे,
फर-फर।
दूर धुँधले -धुँधले से पहाड़ दिख
रहे थे।
नीली सी
घाटियां नज़र
आ रही थीं। हरियाली
आगे जाकर,
उन घाटियों
में लुढ़क
सी गयी
थी और
लंबा-चौड़ा
नीला आसमान,
पहाड़ों के
पार जाकर
कहीं जैसे
ढल गया
था।
हवा के
थपेड़ों को
मुँह पर
झेलते हुए
हरि ने
कहा- दादा,
एक बहुत
उम्दा कवि
हुए हैं,
सुमित्रानंदन पंत...। हमने उनकी बहुत
सी कवितायें
पढ़ी हैं।
स्कूल की
किताबों में
भी और
टिमरनी की
लायब्रेरी में
भी। उनकी
एक कविता
सुनाने को
जी चाह
रहा है,
इस वक़्त...। सुनोगे दादा....?
- हाँ,
सुनाओ हरि,
तुम्हारे मुँह
से हर
बात अच्छी
लगत है,
हमें...।
- तो
सुनो, दादा...! तुम भी सुनो
डोरीलाल...हम
सुना रहे
हैं एक
कविता...।
कविता समझते
हो न्...?
- हाँ,
समझते हैं
भईया जी...। कवता माने गाना...। हम भी गात
हैं। गांव
में तो
समझ लो
भईया जी
कि हर
कोई गात
है...चाहे
जैसो बने,
मनौ गात
जरूर...।
- तुम
भी गाते
हो...! अरे
वाह, तब
तो तुमसे
ही पहले
सुनते हैं...। सुनाओ अपनी कविता
दोस्त...।
डोरीलाल लजा
गया- नईं
भईया जी,
आप पैले
सुनाओ...।
हमाओ गाना
तो एंसई
आय, गंवई
जैसो...।
हम बाद
में सुना
दैहैं...।
- अच्छा
तो ठीक
है, चलो
हम ही
सुनाते हैं...।
हरि ने लय
में गाया-
छोड़ द्रुमों की
मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से
भी माया,
बाले!
तेरे बाल-जाल में
कैसे उलझा
दूँ लोचन?
भूल अभी से
इस जग
को!
- मतलब
समझे दादा...?
- मतलब
भी समझात
चलौ हरि,
तबई तो
कविता को
मजा है...।
- दादा,
कवि पंत
जी एक
सुंदरी से
कह रहे
हैं, कि
भाई माना
कि तुम्हारे
केश बहुत
सुंदर हैं,
पर पेड़ों
की कोमल
छाया और
प्रकृति के
जादुई आकर्षण
को छोड़
कर हम,
तुम्हारे घुधराले-काले केशों
में अपनी
आंखों को
कैसे उलझा
दें..? मतलब
कि प्रकृति
की सुंदरता
के सामने
सारी सुंदरताएं
फीकी हैं...। संसार प्रकृति का
ही रूप
है, इसलिये
मैं तुम्हारे
लिये इस
संसार को
नहीं बिसरा
सकता।
- अरे
वाह, बड़ी
अच्छी बात
कही है,
तुम्हाये पंत
जी ने...।
- कवि
और लेखक
अच्छी बातें
ही कहा
करते हैं
दादा...।
डोरीलाल तुम
समझे कि
नहीं...?
- समझ
गए भईया
जी...।
समझ गए...। पढ़े नईंयां, मनौ
समझत सब
हैं...।
पढ़े-लिखों
की संगत
में रहत
हैं न्,
जेईसे...।
- हाँ,
न समझ पाओ तो
बता देना,
हम और
अच्छे से
समझाने की
कोशिश करेंगे...। अब आगे का
छंद सुनो-
तज कर तरल
तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों
को,
तेरे भू्र भ्रंगों
से कैसे
बिधवा दूँ
निज मृग
सा मन?
भूल अभी से
इस जग
को!
- जरा
ध्यान से
सुनना दादा...!
कवि कहते
हैं कि
नदियों की
लहरों और
सतरंगी इंद्रधनुष
के रंगों
को त्याग
कर तुम्हारी
भौहों के
कटाक्ष रूपी
तीरों से
अपने मन
रूपी हिरण
को मैं
कैसे घायल
हो जाने
दे सकता
हूँ। मैं
तुम्हारे लिये
इस संसार
को नहीं
भूल सकता।
यह बहुत
प्यारा है।
बहुत सुंदर
है।
श्यामलाल दादा अब
रंग में
आ चुके थे, बोले-
वाह हरि
बाबू, का
बात कही
है...! बहुतई
उम्दा...।
- दादा,
जो लोग
जगत् को
मिथ्या कहते
हैं, कवि
उन पर
भी इस
वाले छंद
में कटाक्ष
कर रहा
है। यह
जरा समझने
वाली बात
थी...।
- हम
समझ रहे
हैं, हरि
बाबू, तुम
हमें ऐंसई
ना समझो...।
- ठीक
है तो
अब आगे
सुनायें...?
- हाँ,
सुनाओ...।
कोयल का वह
कोमल बोल,
मधुकर की वीणा
अनमोल,
कह तब तेरे
ही प्रिय
स्वर से
कैसे भर
लूँ सजनि,
श्रवण?
भूल अभी से
इस जग
को!
- इसमें
तो समझाने
वाली कोई
बात नहीं
है। सब
सीधा और
सरल है।
दादा ने
कहा- हाँ,
ऐहे तो
हमईं समझा
सकत हैं...सुनलो..., कोयल
की कूक
बीना जैसी
कोमल है।
तब हम
तुम्हारे प्यारे
लगने वाले
बोलों से
अपने कान
काये भर
लैं...? ठीक
है न...?
- बिल्कुल
ठीक है
दादा...।
बल्कि अद्भुत्
है...।
वाह, क्या
समझाया है
आपने...! दादा,
आप कहते
ज़रूर हो
कि हम
पढ़े-लिखे
नहीं हैं,
पर आपके
पास बड़ी
बुद्धि है...। कविता का इतना
सरल अर्थ...!
वाह क्या
कहने...!
श्यामलाल दादा विभोर
हो गये।
गर्दन झुका
कर थोड़ा
शरमाये भी।
- अब
आखिरी का
छंद सुनिये
दादा...।
डोरीलाल सुन
रहे हो
न्...!
- हाँ,
भईया जी
सुन रहे
हैं...।
बहुतई नोनो
लग रओ
है...।
कभुं सुनी
नईं ऐंसीं
बातें, जेईसे...!
- तो
सुनो...।
उषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से
उतरा जल,
ना, अधरामृत ही
के मद
में कैसे
बहला दूँ
जीवन?
भूल अभी से
इस जग
को!
- समझ
गये दादा...!
- न
भैया...जे
तो तुम्हें
जरा समझाने
पड़है...।
- उषा
कहते हैं,
सबेरे के
लाल सूरज
को। सस्मित
माने मुस्कान।
किसलय का
मतलब हुआ
पंखुरियां। सुधा-रश्मि माने
चंद्रमा की
किरणें और
अधरामृत माने
होठों का
रस...।
कवि कह
रहे हैं
कि प्रातःकाल
का सूर्य
निकलते ही
फूलों की
पंखुरियां मुस्कुराने
लगती हैं।
चंद्रमा से
शीतल रस
टपकता है।
तब मैं
तुम्हारे होठों
के रस
के नशे
में अपना
जीवन कैसे
डुबो दूं...!
संसार को
कैसे भूल
जाऊं। तुम
खूबसूरत हो,
परंतु संसार
तुमसे भी
ज्यादा खूबसूरत
है। और
प्रकृति की
सुंदरता तो
सबसे पवित्र
सुंदरता है...।
- वाह
हरि, वाह!
क्या लिखा
है, तुमाये
इन कबि
जी ने...। नाम का बताओ
तुमने...?
- सुमित्रानंदन
पंत।
- हाँ,
नाम भी
सुंदर है,
सुमितरानंदन पंत।
- सुमित्रानंदन
माने सुमित्रा
जी के
पुत्र। याने
की लक्ष्मण...।
- हाँ,
लखन भैयाई
ऐंसी बात
कर सकत
हैं...।
अरे जब
सूर्पनखा उनके
सामने सुंदरी
बनके आई
रही, तब
उनने ओहे
भी ऐंसोई
कैह के
भगा दओ
रहो...।
नाक और
काट लई
रही...।
- हाँ,
तो इनका
भी वही
नाम हुआ।
तो दादा,
उनके छंद
का अर्थ
तो यह
हुआ, लेकिन
इसका तात्पर्य
तो जरा
और भी
घना है...। जरा और भी
बड़ा है।
- तो
का अरथ
अलग होता
है और
तातपर्र अलग...?
- हाँ।
जो बात
सीधे-सीधे
समझ में
आ जाये,
वो अर्थ।
और जब
कविता का
असली संकेत
कुछ और
हो, जरा
सोच-विचार
कर उसे
पकड़ना पड़े,
तो वो
होता है
कविता का
तात्पर्य।
- हूँ,
अब जा
बात हमें
नईं पता...।
- हम
बता रहे
हैं...।
अभी पता
चल जायेगा...। कवि असल में
यह कहना
चाहता है
कि, आदमी
को अपने
तक ही
सीमित न
रहना चाहिये।
उसे संसार
को देखना
और समझना
चाहिये। वह
अपने को
प्यार करे
और अपनी
प्रेमिका को
ही प्यार
करता रहे,
तो उसके
सरोकार बहुत
सीमित हो
जायेंगे। स्त्री-पुरुष का
प्रेम कोई
बुरी बात
नहीं है।
वह सृष्टि
और प्रकृति
का ही
हिस्सा है।
पर अपने
प्यार के
घेरे को
तोड़ कर
बाहर भी
आना पड़ेगा।
बाहर आने
से ही
मनुष्य बड़ा
बन सकेगा।
संसार में
जंगल हैं,
पेड़-पौधे
हैं। नदियां-तालाब हैं।
पशु-पक्षी
हैं। फूल-पत्ते हैं।
सूरज-चांद
है। तारे-सितारे हैं।
बादल और
वर्षा है।
इन सबसे
प्रेम करो।
प्रेम करना
सीखो। बड़े
बनो। व्यापक
बनो। कटघरे
न बनाओ। बाड़े न
बनाओ। जो
बने हैं,
उन्हें भी
तोड़ो। उन्हें
फैलाओ। विशाल
करो। बाहें
फैलाओ। औरों
के होना
सीखो। औरों
का होना
जानो। अपने
होने में,
सिर्फ़ खुद
हो सकते
हो। सबका
होने में
सब भी
होंगे, तुम
भी होगे।
पहले से
कुछ अलग
होगे। पहले
से ज्यादा
बड़े होगे।
बड़े बनो।
छोटे नहीं।
बिंदु से
विराट हो
जाने की
तरफ बढ़ो।
बिंदु से
घटोंगे तो
अदृश्य हो
जाओगे...।
दिखोगे तक
नहीं...।
श्यामलाल दादा
भौंचक होकर
अपने हरि
को देख
रहे थे।
इस हरि
से उनकी
पहचान न
थी। हरि
का यह
रूप नया
था। हरि
का कहना
जब पूरा
हो गया,
तो वे
बोले- हरि,
तू तो
कितना बड़ा
हो गया
रे, हम
सबसे...!
- नहीं
दादा...! हम
वही हैं...आपके हरि...।
इस तरह
हरि ने,
श्यामलाल दादा
का मन
जंगल की
परेशानियों और
हिंदु-मुस्लिम
भेदभाव वाली
छोटी-छोटी
बातों से
हटा कर,
बहुत ऊंचाई
पर पहुंचा
दिया था।
मन के
विकारों को
निकालने का
हुनर हरि
के पास
बचपन से
ही था।
बुरी चीजों
को निकालना
है, तो
उस जगह
को अच्छी
चीजों से
भर दो।
अंधेरा और
गाढ़ा होने
लगा था।
डोरीलाल ने
कहा- भईया
जी अब
ऐंसौ करौ
कि लौट
चलौ...।
कल-वल
घूम लईयौ...। अंधेरौ हो गओ
है...।
नदिया अब
नै दिखाहै...। कुईंयन की जघा
कहानी...।
पांव-आंव
घुस गऔ
तो बड़ी
परासानी हो
जाहै...।
- ऐसा...!
अच्छा तो
चलो। कल
फिर इस
तरफ आयेंग...।
वे लौट
पड़े।
लौट कर
पटियों पर
बिस्तर लगाया।
लेटने पर
पटिये हिले-डुले। पूरा
एक तख़्ता
तो था
नहीं, जो
एक बार
जमता तो
जमा रहता।
जरा सा
भी हिलने
पर पटिये
भी हिल
पड़ते थे।
करवट लेने
में भी
आशंका बनी
रही कि
कहीं नीचे
न गिर न पड़ें।
दिन भर
की घनी
थकान ने
गहरी नींद
में सुला
दिया। हिलने-डुलने वाले
पटियों पर
ही वे
मजे से
सो गये।
शायद इसीलिये
कहा गया
है-
नींद न
देखे टूटी
खाट
भूख न
देखे सूखा
भात
इश्क न
देखे जात-कुजात
पर आधी
रात के
बाद, अजब
तरह की
आवाज़ों को
सुन कर,
हरि की
नींद टूट
गयी। आँखें
खोलीं। पर
अंधेरे में
कुछ दिखायी
नहीं दे
रहा था।
पटिये वाले
घर की
झिरी में
से, बाहर
की चांदनी
का हल्का-हल्का उजाला
अंदर आकर
फैल गया
था। उन्होंने
अपने कानों
को उन
आवाज़ों की
दिशा में
थिर किया।
पहले लगा,
कि टपरे
के बाहर
कहीं से
आवाज़ आ
रही है।
फिर शरीर
जब कुछ
और चैतन्य
हो गया,
तो समझ
में आया
कि बाहर
से नहीं,
अंदर से
ही वे
आवाज़ें उत्पन्न
हो रही
हैं। हफर
यह भी
आभास होने
लगा कि
वे उत्पन्न
भर नहीं
हो रहीं,
बल्कि इधर-उधर सरक
भी रही
हैं। भाग
रही है।
भागते-भागते
ठहर भी
जाती हैं।
महीन सी
संगीतमय चूं-चूं भी
बीच-बीच
में सुनायी
देने लगती
है।
और जरा
देर हो
जाने के
बाद हरि
को यह
भी समझ
में आया
कि पटियों
के नीचे
से ही
आवाज़ें आ
रही हैं।
आती हैं,
रुक जाती
हैं। सरसराहट
सी भी
होती है।
चूं-चूं
भी। धप्प-धप्प...।
सर-सर...। चूं-चूं...।
डोरीलाल की
बात याद
आयी, ‘जंगल,
दिन में
तो अच्छौ
लगत है,
मनौ रात
खौं डरात
भी है...।’
उधर श्यामलाल
दादा के
खर्राटों की
आवाज़, उन
अज्ञात आवाज़ों
के साथ
मिल कर
जुगलबंदी सी
कर रही
थी।
हरि ने
आवाज़ लगायी-
दादा...!
दादा ने
नहीं सुना।
- दादा...!
नहीं सुना।
तीसरी बार जरा
जोर से
कहा- दादा...!
श्यामलाल दाद हड़बड़ा
कर उठ
बैठे और
फटकार लगाने
वाली आवाज़
में बोले-
कौन है
रे दईमारे...?
- अरे
हम हैं
दादा, हरि...।
- हरि...? दादा ने अपनी
आवाज़ को
सामान्य बना
कर पूछा-
हाँ, का
हुआ...।
- जरा
अपनी माचिस
जलाईये...।
ये आवाज़ें
काये की
आ रही है...?
- हओ...।
दादा ने
भी कान
लगाकर सुना-
हाँ, आ
सी तो
रई है...। सोये रईयो, उठियो
ना। हम
अबई देखे
लेत हैं...।
श्यामलाल दादा
ने माचिस
जलायी। तीली
की रोशनी
में चारों
ओर देखा।
कुछ न
दिखा। आवाजें
भी गायब
हो गयीं।
तीली बुझ
गयी। अंधेरा
छा गया।
आवाजें़ फिर
आने लगीं।
दादा ने
दूसरी तीली
जलायी। इस
बार हरि
वाले पटियों
के नीचे
रोशनी ले
गये। कुछ
दिखायी दिया।
गर्दन झुकाकर
गौर से
देखा, मुस्कुराये,
फिर बोले-
अरे..., तो
जे आयें...!
- कौन
है दादा...?
- चूहे
आंयं...।
- चूहे...?
यहाँ भी
चूहे...?
- हाँ,
बड़े-बड़े...। जंगली लगत हैं...। या कहौ मूस
होंय...।
- कितने
हैं...?
- दिखात
तो दो-तीनईं रए
हैं...।
ठैरो हम
लालटेन जलात
हैं...तब
भगहैं बे...।
दादा ने
लालटेन जलायी।
उसकी रोशनी
से टपरा
पीला हो
गया। दादा
ने एक
पतला सा
पटिया कोने
से उठाया।
हरि के
बिस्तर के
नीचे उससे
खटाखटाहट की।
चूहे इधर-उधर भागे।
वे डर
कर पटिये
की दीवार
वर चढ़ने
लगे। एक
चूहा तो
हरि के
बिस्तर पर
ही आ
गिरा- लद्द...।
हरि ने
जल्दी से
अपने पैर
सिकोड़े- अरे
बाप रे...इत्ता बड़ा
चूहा...!
- हाँ,
खूबई मोटे-तगड़े हैं...।
- क्या
किया जाये,
ये तो
सोने न
देंगे...।
- लालटेन
जलत रहन
देत हैं...। उजारे में बे
कहुं दुबके
रैहैं...।
धमाचौकड़ी नै
मचाहैं...।
- अच्छा...।
लालटेन जलने
दी गयी।
उसकी रोशनी
आंखों पर
न पड़े,
इसलिये जरा
कोने में
रख दी।
लेट कर
सोने का
जतन किया।
कुछ देर
तक चूहों
की गतिविधियों
पर कान
लगाये, पर
शांति बनी
रही। तब
आँखें मूँद
लीं। इस
बार ऐसी
नींद आयी
कि सुबह
तभी खुली,
जब सूरज
की उजास
टपरे के
अंदर आकर
हरि के
पेरों पर
गिरने लगी।
हरि फिर
भी लेटे
रहे। देखा
कि दादा
अपने बिस्तर
पर न
थे। हरि
तब भी
लेटे रहे।
टपरा शांत
था। चूहे
और भी
पहले वहाँ
से जा
चुके थे।
टपरे के
बाहर से
लोगों के
आने-जाने
और बातें
करने की
आवाजें आ
रही थीं।
दादा ने
टपरे का
पल्ला खोल
कर अंदर
पांव रखा-
अरे जग
गये हरि...?
- हाँ
दादा, जग
गये...।
- मौं-हाथ धो
आओ, तब
तक हम
चाय बनाबे
को जुगाड़
करत हैं...।
- अच्छा...।
दादा ने
डोरीलाल को
पुकारा। वह
भागता हुआ
आया।
- हाँ,
दादा जी...।
- जे
बताओ कि
चूल्हा के
लाने का
करें...?
- ईंटन
को बनाने
पड़है...।
आप रहन
दो, हम
अब्भईं बनाये
दे रहे...।
वह भागकर
गया, और
कहीं से
चार-पांच
ईंटें ले
आया। उसने
उन्हें चूल्हे
के आकार
में जमा
दिया। फिर
लकड़ियां भी
ले आया।
दो-तीन
पतली लकड़ियों
को चूल्हे
में लगा
कर, उनके
नीचे जरा
सा सूखा
चारा रखा।
चारे में
तीली से
आग लगायी।
पहले आग
जली, फिर
धुंआ उठा।
चारा जलने
लगा, तो
थोड़ा और
चारा डाला।
लकड़ियां सूखी
थीं। सुलगने
लगीं। जरा
देर में
जलने भी
लगीं। फिर
उसने बाल्टी
उठायी और
ताजा पानी
लाने कुएं
की तरफ
चला गया।
दादा ने
साथ लाये
हुए बरतनों
में से
एक छोटी
सी गंज
निकाली। चाय
पत्ती, शक्कर
की पुड़ियाँ खोजीं। पानी आया,
तो गंज
घोयी। गिलास
से चाय
के लिये
पानी लिया।
गंज चूल्हे
पर चढ़ायी।
हिल रही
थी, तो
एक कोने
में पत्थर
की खपच्ची
लगायी। अंदाज
से शक्कर
डाली। पत्ती
डाली।
डोरीलाल से
दूध पूछा।
- दूध
तो नईंयां...। दसक बजे दूध
वारो आहै...। तबई मिल पाहैकृ।
- अरे,
तो का
बिना दूध
की चाय
पियें...?
- उनसे
मांग लायें,
तन्नक सो...?
- किनसे...?
- गारद
मियां से...।
- नईं
रहन दो।
काली चाय
पी लैहैं...। जब दूध वाला
आये, तब
बतानै...।
- हओ...।
जब चाय
छानने की
बारी आयी,
तो पता
चला कि
छन्नी तो
लाये ही
नहीं। दादा
ने रूमाल
निकाली। उसे
धोया। गीला
करके निचोड़ा
और उसमें
चाय छानी।
छान कर
गिलासों में
भरी। एक
गिलास हरि
को पकड़ा
दी। दादा
के हाथ
की बनी,
काली चाय
का पहला
घूंट लेकर
हरि ने
कहा- दादा,
चाय में
मजा आ
गया...।
बहुतई उम्दा
बनायी है,
आपने पाय...।
- अरे
अब जैसी
बनी, सो
बैंसी बना
दई...।
बेदूध की
चाय भी
कोई चाय
होत है
का...?
- इधर
यही मिल
गयी, वह
क्या कम
है...? और
फिर हमारे
दादा के
हाथ की
बनी...।
वाह, क्या
कहने...!
कल की
पूरियाँ रखी हुई थीं,
इसलिये खाना
बनाने की
चिंता न
थी।
डोरीलाल ने
आकर हरि
से कहा-
भईया जी,
सपरने होय,
तो कुआं
पे चलै
चलौ...।
हम पानी
खींच दैहैं...। आप सपर लईयो...। कायेसे कि डिपो
साब नौ
बजे से
सबपे चिल्लान
लगत हैं...। जरा कर्रे हैं
बे...।
- कर्रे
हैं...?
डोरीलाल ने
फुसफुसा कर
कहा- सबखों
डाँटत-फटकारत
हैं...।
बेमतलब...।
अपनी साहबी
आ दिखात हैं...।
- अच्छा...। ग़लती करते होंगे
लोग, तो
फटकार पड़ती
होगी...!
- जेई
तो पता
नईं चलै...
कि का
गल्ती कर
दई...।
आप तो
ऐसौ करौ
कि चलौ...सपर लो...।
वह कुएं
की तरफ
चला गया।
हरि ने
श्यामलाल दादा
की ओर
देखा। दादा
हंसे, कहा-
जाओ नहा
लो...।
पहलो दिन
कहाओ...।
नौकरी की
शुरुआत अच्छे
से होबे
चईये...।
हरि ने
कपड़े निकाले
और नहाने
चले गये।
श्यामलाल दादा
ने बिड़ी
सुलगायी। पटियों
की बेन्च
पर बैठ
कर उसका
मजा लेने
लगे। धुआं
अंदर गया।
दिमाग के
दरवाज़े खटके।
उन्हें खोल
कर तम्बाकू
का असर
अंदर घुसा।
घुस कर,
अंदर के
इलाके को
उसने तमतमाहट
प्रदान की।
दादा ने
आँखें बंद
करके उस
तमतमाहट को
आत्मसात किया।
देह के
खिड़की-दरवाज़े
खुल चले।
अंदर हवा
और रोशनी
ने प्रवेश
पाया। नसों
में खून
दौड़ा। दौड़
ने चैन
दिया। राहत
प्रदान की।
दो पल
का सुख
पैदा हुआ।
दोनों घुटने
लय में
हिलने लगे।
होठों पर
कबीर का
पद लहकने
लगा-
रहना नहीं देस
बिराना है।
अजी, रहना नहीं
देस बिराना
है...।
यह संसार कागद
की पुड़िया....,
यह संसार कागद
की पुड़िया।
बूँद पड़े
घुल जाना
है...।
रहना नहीं देस
बिराना है।
यह संसार काँटे
की बाड़ी...,
यह संसार काँटे
की बाड़ी।
उलझ-पुलझ
मरि जाना
है...।
रहना नहीं देस
बिराना है।
यह संसार झाड़
और झाँखर...,
यह संसार झाड़
और झाँखर।
आग लगे
बरि जाना
है।
रहना नहीं देस
बिराना है।
कहत कबीर सुनो
भाई साधो...,
कहत कबीर सुनो
भाई साधो।
सतगुरु नाम
ठिकाना है।
रहना नहीं देस
बिराना है।
अजी, रहना नहीं
देस बिराना
है...।
हरि नहा
कर लौटे।
घोये गये
कपड़े बायें
हाथ में
पकड़े हुए
थे और
दायें हाथ
की अंगुलियों
से अपने
गीले बालों
को सहला
रहे थे।
कमर पर
गमछा बंधा
था। नंगे
पांव ।
तेज कदम
चल कर
टपरे में
घुसे। कमीज
निकाली। उसे
दो बार
फटकारा। अम्मां
ने बचपन
में ही
सिखा दिया था,
‘जब भी
कपड़े पहनो,
उन्हें दो
बार झटकार
लो। तब
पहनो। का
पता, उनके
भीतर छिपकली
घुसी हो
कि चींटी
घुस गयी
हों।’ पेन्ट
निकाला, फटकारा,
पहना। कमीज
उसके अंदर
खोंसी। बेल्ट
कसा। सामान
में कंघी
खोजी। मिल
गयी। आईना
खोजा, न
मिला। छोटा
सा गोल
आईना खरीद
कर गौरीशंकर
लाये तो
थे, पर
ज़रूर सामान
के साथ
रखना भूल
गये होंगे।
उनका काम
ऐसई होता
है। चलो,
कोई बात
नहीं। अंदाज़
से ही,
हाथ की
अंगुलियों और
हथेली से
बाल संवारे।
जूतों को
रद्दी कपड़े
से साफ
किया। पहना।
बाहर आकर
दादा से
पूछा- देखो
तो जरा
दादा, कैसे
दिख रहे
हैं...?
दादा हरि
को देख
कर मुस्कुराये-
बिल्कुल साहब
लग रहे
हो, हरि
बाबू तुम
तो...।
हरि शरमाये।
गर्दन झुकाकर
अपने कपड़ों
को देखा।
कहा- तो
दादा, हम
जा रहे
हैं, अपने
काम पर।
अम्मां होतीं
तो मुँह
में घी-शक्कर डालतीं।
आप आशीर्वाद
दो...।
- जाओ
हरि, भगवान
तुम्हें खूबई
तरक्की दे...। तुमईं घर को
दरिद्दर दूर
करौ...।
जाओ...।
पूरो आसीरबाद
है हमाओ...। जाओ...। अपने काम पे
लगौ...।
भगवान तुम्हें
सुखी रखै...।
छादा का
आशीष लेकर,
हरि अपने
टपरे के
सामने से
डिपो साहब
के मकान
को देखते
हुए आगे
बढ़े। संयोग
ऐसा रहा
कि उधर
अपने घर
से डिपो
साहब भी
बाहर निकले।
आँखें टकरायीं।
डिपो साहब
ने घूर
कर देखा।
हरि ने
उत्सुकता से।
सामने एक
सांवली, जरा
भरे शरीर
वाली, उद्दंड
सी काया
नज़र आयी।
चेहरे पर
गर्दन तक
झूलने वाली
चितकबरी दाढ़ी
थी, जिसने
उन्हें और
भी रूखापन
अता कर
रखा था।
आधी उम्र
बिताकर, दूसरे
तरफ की
आधी उम्र
की तरफ
गमन करने
वाले लगे,
वे।
हरि ने
उनके करीब
जाकर कहा-
डिपो साहब,
गुड मॉर्निंग...!
सुनते ही
उन्होंने अपना
रोबदार चेहरा
उठाया और
आँखें तरेर
कर कहा-
हमें पता
है कि
तुम अंगरेजी
पढ़े हो,
पर हमारे
पास अंगरेजी
बघारने की
तरा सी
भी ज़रूरत
नईं है...समझे!
हरि को
पहली ही
मुलाक़ात के
वक़्त इस
तरह के
व्यवहार की
जरा सी
भी उम्मीद
न थी। उन्हें मालुम
हो गया
था, कि
वे कड़वे
आदमी हैं,
पर जब
कोई ग़लती
होगी, तभी
वे अपना
कड़वापन उगलेंगे,
ऐसा सोचा
था। पर
वे तो
कड़वाहट के
अवतार ही
प्रतीत हुए।
बड़ी कोफ्त
हुई। फिर
भी, चोट
खाये हुए
अपने मन
को पीछे
की तरफ
सरकाते हुए
उन्होंने जवाब
दिया- जी
अच्छा...।
- जी
अच्छा भर
नहीं, कहो
जी बहुत
अच्छा, डिपो
साब...।
- जी
बहुत अच्छा
डिपो साब...। हम एचएस परसाई
हैं। जमादार
अपाइंट हुए
हैं...।
यह है
हमारा नियुक्ति-पत्र...।
- जानत
हैं...जानत
हैं...।
सब पता
है हमें...। जरा हमें जे
तो बताओ,
कि तुम
इतै आ
कैसे गये...?
हरि को
यह सवाल
अटपटा लगा,
पर कहा-
जंगल विभाग
में नौकरी
लगी है,
तो विभाग
ने ही
नौकरी करने
के लिये
हमें यहाँ
ताकू के
डिपो में
भेजा है...।
इटारसी रेल्वे
स्टेशन के
बाद ही
पहला स्टेशन
पड़ता है,
ताकू। रेल्वे
स्टेशन के
दूसरी तरफ,
स्टेशन से
चिपका हुआ,
डिपो का
लंबा-चौड़ा
परिसर था।
सरकार के
जंगल महकमे
का टिंबर
डिपो। यहीं
पर जंगल
के पेड़
कट कर
आते थे
और रखे
जाते थे।
फिर यहाँ
पर उनका
नाप-जोख
किया जाता
था। सरकारी
रजिस्टर में
उनका इंदराज
होता था।
यहीं पर
समय-समय
पर लकड़ी
के चट्टों
की नीलामी
होती है।
- बो
तो ठीक
है...पर
तुमाये बाप
तो कोई
से कह
रहे थे,
कि लड़का
मुसलमान डिपो-अफसर के
अंडर में
जा रहा
है...।
उससे कैसे
निभेगी...? का
पता क्या
होगा...।
एं....? हम
मुसलमान हैं,
एं...? तुम
से नीची
जात के
हैं...एं...?
और तुम
हिंदु लोग
हमसे ऊंचे
हो...काये...?
अरे तुम
पढ़े-लिखे
हो न्...!
तो तुमने
जे भी
तो पढ़ा
होगा कि
हम मुसलमान
ही हिंदोस्थान
पे हकूमत
करते थे,
हकूमत...।
समझे! सारे
के सारे
हिंदु हम
लोगों के
अंगूठे के
नीचे रहते
थे, नीचे...। का समझे...? हिंदु
हमारे चाकर
होते थे...। नौकर होते थे...। गुलाम भी होते
थे...।
पढ़ा है
न्...!
हरि चकित
थे कि
ये कौन
सा कांड
शुरु हो
गया। वे
अपनी स्कूली
दिनों में
कांग्रेस के
कार्यक्रमों और
जलसों में
काम कर
चुके थे।
कांग्रेस के
नेताओं के
हिंदु-मुस्लिम
भाईचारे वाले
भाषणों को
सुन चुके
थे। लेखकों
और कवियों
की उन
भावनाओं और
विचारों से
भी परिचित
और प्रभावित
हो चुके
थे, जिनमें
जाति, धर्म
और नस्ल
के आधार
पर भेदभाव
करना बुरा
और अन्यायपूर्ण
माना जाता
है। उसे
अमानवीयता और
असभ्यता माना
जाता है।
पर हरि
ने धीरज
के साथ
कहा- डिपो
साहब, यह
सब आप
क्या कह
रहे हैं...?
आपको ज़रूर
ही कोई
ग़लतफहमी हुई
है...।
हमारे पिताजी
जरा पुराने
विचारों के
ज़रूर हैं,
पर वे
किसी को
अपने से
छोटा नहीं
मानते। और
हम तो
बिल्कुल भी
नहीं मानते।
जहाँ तक
पढ़ने की
बात है,
तो, हाँ,
सही कहा
आपने, हमने
किताबें पढ़ी
हैं...।
बहुत सी
किताबें पढ़ी
हैं...।
टिमरनी की
अग्रवाल लायब्रेरी
की कोई
किताब हमने
नहीं छोड़ी...। और उनमें हमने
यह पढ़ा
है कि
अलगु चौधरी
और जुम्मन
शेख में
दांत काटी
रोटी वाली
दोस्ती थी।
हमने इतिहास
भी पढ़ा
है, और
उसमें बताया
गया है
कि जब
रानी कर्णावती
के राज्य
पर, शेरशाह
सूरी ने
हमला किया
था, तो
उन्होंने बादशाह
हुमायुं को
राखी भेजी
थी। साथ
में, मदद
करने के
लिये एक
चिट्ठी भी
लिखी थी।
राखी और
चिट्ठी पाते
ही बादशाह
हुमायुं, रानी
की मदद
करने के
लिये अपनी
फौज लेकर
निकल भी
पड़े थे।
पर उनके
पहुंचने के
पहले ही
रानी ने
जौहर कर
लिया था।
हुमायुं को
आधे रास्ते
में जौहर
कर लेने
की ख़बर
मिली थी।
तब वहाँ
जाने का
कोई मतलब
नहीं निकलने
के कारण,
वे वापस
लौट गये
थे...।
...और सुनिये
डिपो साहब,
हमने यह
भी पढ़ा
है कि
छत्रपति शिवाजी
की सेना
के तोपखाने
का मुखिया
एक मुसलमान
था और
उसका नाम
इब्राहीम ख़ान
था। उन्होंने
नौसेना भी
बनायी थी
और उसका
प्रधान भी
एक मुसलमान
दरियासारंग दौलत
ख़ान था...। बादशाह अकबर के
एक सेनापति
हिंदु राजा
मानसिंह भी
थे...।
तो हमने
जो भी
पढ़ा है,
उसमें दोस्तियां
और भाई-चारे के
बारे में
ही पढ़ा
है...।
दुश्मनी तो
राजाओं और
नवाबों के
बीच चलती
थी...।
अपना राज्य
बढ़ाने और
प्रजा को
लूटने के
लिये वे
लड़ते थे।
पर प्रजा
तो मिल-जुलकर रहा
करती थी।
सब एक-दूसरे का
सुख-दुख
में साथ
देते थे।
और श्रीमान
डिपो साहब,
यह भी
सुन लीजिये
कि हमें
जमादार के
ओहदे के
लिये सरकार
ने चुना
है। सरकार
ने ही
हमें भेजा
है। हम
अपने मन
से नहीं
चले आये
है...।
हम यहाँ
पर नौकरी
करने आये
हैं...।
किसी के
घर पर
गोंतरी करने
नहीं आये।
आप हमारे
अफसर हैं...। हमने भले ही
मेट्रिक पास
किया हो...। हमें भले ही
अंग्रेजी आती
हो, पर
तजुर्बे में
तो आप
ही हमसे
बड़े हैं...।
हमें आपसे
बहुत कुछ
सीखना है...। आपके मार्गदर्शन में
हमें काम
करना है...।
...पर यदि
आपको मंजूर
न हो,
तो हम
वापस चले
जाते हैं।
कहीं और
कर लेंगे
नौकरी...।
अभी जंगल डिपार्टमेंट के बड़े
दफ्तर जाकर,
अपना इस्तीफा
दिये देते
हैं और
उसमें लिख
देंगे, कि
डिपो साब
को यह
हिंदु जमादार
पसंद नहीं
है...।
जैसा आप
कहो...।
ठतना सुन
चुकने के
बाद, डिपो
साहब ज़मीन
पर आ
चुके थे।
वे जल्दी
से बोले-
अरे-अरे...,
भई हमारा
वो मतलब
थोड़े न
था...।
हमें तो
जो ख़बर
लगी, उसी
के कारण
कह रहे
थे...।
करो भाई,
काम करो...। कौन रोकता है...एं...? सरकार
ने नौकरी
दी है,
तो हम
कौन होते
हैं, उस
पर सवाल
उठाने वाले...एं...? आईये
जमादार हरीसंकर
परसाई, आईये।
तसरीफ रखिये।
ये डिपो
आपका है।
इसे अपना
ही समझिये...।
डिपो साहब
ने हथियार
डाल दिये
थे। हरि
भी लड़ने
नहीं आये
थे, सो
डाले गये
हथियारों पर
गुमान न
किया। दोनों
तरफ से
एक मौन
संधि हो
गयी।
आगे-आगे
डिपो साहब
चले और
पीछे-पीछे
हरि बाबू।
पर हाँ,
इतनी बातचीत
होने के
बाद डिपो
साहब के
कस-बल
ज़रूर निकल
गये थे।
उनके पैर
जरा ढीले
हो चुके
थे और
हरि बाबू
के घुटने
कुछ और
सख़्त हो
गये थे।
चाल सधी
हुई थी।
आत्मविश्वास बढ़
गया था।
दोनों उस
जगह पर
जाकर बैठ
गये, जहाँ
पर बल्लियां
गड़ा कर
एक मंडप
सा बना
लिया गया
था। उसके
ऊपर बांसों
की छवन
कर दी
गयी थी।
बांस के
ऊपर पलाश
के पेड़
की डालियां,
मय पत्तों
के रख
दी गयी
थीं। पत्ते
उड़ न
जायें, इसलिये
उन पर
भी बल्लियां
रखी हुई
थीं। उसके
नीचे बैठने
के लिये
पटिये ठोक
कर बेन्चें
जैसी बना
ली गयी
थीं। बीचों-बीच पटियों
की ही
बनी मेज
थी। हालांकि
वह इतनी
खुरदुरी थी,
कि उस
पर लिखने-पढ़ने का
काम कर
पाना मुश्किल
ही था।
इस तरह
से वह
एक छायादार
खुला दफ्तर
था। बैठक
भी।
डिपो में
एक अच्छी
कुर्सी और
मेज भी
थी, पर
उसे अंदर
कहीं बंद
रखा जाता
था। वह
तभी निकलती
थी, जब
इटारसी वाले
दफ्तर के
अंग्रेज अफसर
की आमद
हुआ करती।
डिपो साहब
ने जोर
से एक
ललकारा मारा-
अरे ए
डोरीलाल के
बच्चे, चाय
तो ला
रे बनाके...।
वह गोंड
लड़का भागता
हुआ आया
और हुक्म
सुन कर
‘जी साब
जी’ कह
कर फिर
से वैसा
ही भागता
हुआ चला
गया। डिपो
साहब बेन्च
पर बैठे।
हरि खड़े
रहे। डिपो
साहब ने
हरि को
खड़े देखकर
कहा- अरे
तसरीफ रखिये
न जमादार साहब...! खड़े
क्यों हैं...?
हरि भी
बैठ गये।
डिपो साहब
ने काम
समझाया- देखो
हरीसंकर, तुम
कहलाये डिपो
के जमादार।
लिखा-पढ़ी
का सब
काम अब
तुम्हें ही
करना है...।
- करेंगे...।
- जंगल
से किस
दिन कितनी
लकड़ी डिपो
में आयीं,
उसका हिसाब
लिखना होगा...। कितने चट्टे पुराने
हैं, कितने
नये हैं...। दोनों तरह के
चट्टे मिलाकर
कुल कितने
हुए। नीलाम
हो गये
चट्टे कौन
से हैं...। खरीददार उन्हें कब
ले जायेंगे,
कैसे ले
जायेंगे, जो
खरीदार आयेंगे,
उनके आदमी
कुछ गड़बड़
न करें...यह भी
देखना होगा...।
- हाँ
देखेंगे...।
आप हमें
बताते जाईयेगा,
हम करते
रहेंगे...।
हम नये-नये हैं,
तो कुछ
कमी-बेसी
भी होगी।
पर अपनी
तरफ से
हम कोई
लापरवाही नहीं
करेंगे...।
- शाबाश!
ठीक है...।
डोरीलाल चाय
ले आया।
डिपो अफसर
और जमादार
साहब ने
चाय पी।
पहली भिड़ंत
और पहली
संधि के
बाद पहली
शिखर वार्ता
संपन्न हुई।
डिपो अफसर
के पास
से उठ
कर हरि
अपने टपरे
की तरफ
लौटे। श्यामलाल
दादा टपरे
की आड़
में बैठे-बैठे सब
देख-सुन
रहे थे।
हरि के
आ जाने पर कहा-
जे मुसट्टा
तो बहुतई
घमंडी है
...। हमाओ तो जी
कर रओ
तो कि
उठायें लाठी
और सारे
को मूड़ई
फोड़ दैं...।
हरि हंसे-
हमें भी
इसी बात
का डर
लग रहा
था कि
कहीं आप
बीच में
न कूद पड़ें...।
आप हमारे
लठैत-दादा
जो ठहरे...। नहीं,
दादा, नहीं।
हर बात
पर और
हर जगह
अपना खून
खौलाने की
ज़रूरत नहीं
है...।
उस खौल
को बचा
कर रखिये,
किसी बड़े
और अच्छे
काम के
लिये...।
लोगों के
भले के
लिये...।
समाज और
देश के
भले के
लिये...।
गुलामी से
पार पाने
के लिये...। है,
जे आदमी
थोड़ा घमंडी
और नकचढ़ा
तो है,
पर अब
नौकरी करने
आये हैं,
तो थोड़ा
सहना भी
पड़ेगा। हम
सह लेंगे
और इसे
सुधार भी
देंगे...।
अपन ज़रूरतमंद
हैं...।
बाबूजी बीमार
चल रहे
हैं...।
भाई-बहनों
का जीवन
भी अभी
शुरु होना
बाकी है...। तो थोड़ा सहना
पड़ेगा...।
टपरे के
अंदर पटियों
के पलंग
पर बैठ
कर हरि
ने कहा-
इस आदमी
के अंदर
ज़हर भरा
है...।
पर इसका
भी क्या
दोष...? इन
दिनों ऐसा
ही विष
भरा जा
रहा है...। बहुतों के दिलों
में भरा
हुआ है...। यह कोई अकेला
आदमी नहीं
है...।
जो ज़हर
भरा जा
रहा है,
उसे निकालने
वाले लोग
भी तो
चाहिये...।
इन दिनों
गांधी जी
और नेहरु
जी इसी
ज़हर को
निकालने वाले
नेता ही
हैं...।
वे अपने
काम में
मुस्तैदी से
लगे हैं...। हमें भी यही
काम करना
है। हम
भी करेंगे...। अपने स्तर पर
करेंगे, दादा...।
हमने उन
डिपो साहब
को आज
ठीक तरीके
से समझा
दिया है...। वे जान गये
हैं कि
हम बेकार
में दबने
वाले इंसान
नहीं हैं...। वे यह भी
जान गये
हैं कि
हम हेड
ऑफिस में
अंग्रेज अफसर
से उनकी
शिकायत कर
सकते हैं,
तो अब
वे भी
जरा सम्हल
कर रहेंगे...।
- हाँ,
जा बात
भी सही
कही तुमने...। अब का बतायें,
कोई कछु
ऊटपटांग बोलन
लगत है
न, तो
फिर हमाओ
खून खौलई
जात है...। िश्र बापै हमाओ
बस नहीं
रहै...।
अब भगवानई
ने हमें
ऐंसौं बनाओ
है, तो
का करैं...?
- यही
तो कह
रहे हैं
हम, कि
अपना खून
मत खौलाओ
दादा। आजकल
कुछ लोग
यही चाल
चल रहे
है, जिससे
लोगों का
खून खौले...। मुस्लिम लीग चाहती
है कि
मुसलमानों का
खून खौले
और हिंदु
महासभाई चाहते
हैं कि
हिंदुओं का
खून खौले...। दोनों एक-दूसरे
के दुश्मन
हो जायें...। एक-दूसरे को
मारें-काटें...। दोनों दल जनता
के बीच
जाकर सभाएं
करके इसी
बात को
तो फैला
रहे हैं...। डिपो साहब पर
उसी का
असर है।
पिताजी के
मन में
जो मुसलमानों
को लेकर
शंका और
भय भरा
हुआ है,
उसके पीछे
भी इसी
दुष्प्रचार का
हाथ है...। अगर हमने-आपने
भी अपना
खून खौला
लिया और
उस पागलपने
में लड़
बैठे, तो
हम उन्हीं
लोगों का
काम ही
तो कर
रहे होंगे...,
जो चाहते
हैं कि
दोनों समुदायों
में दुश्मनी
फैले...।
नफरत पैदा
हो...।
तब तो
हम उनकी
कठपुतनी हो
जायेंगे...।
वे नचायेंगे
और हम
नाचेंगे...।
तो इस
बात को
अच्छी तरह
से समझ
लो दादा,
कि हम
लोग किसी
के हाथों
में नाचने
वाले नहीं
हैं...।
- हाँ
जा बात
तो तुमने
ठीकई कही,
कि हम
कौनउ की
कठनुतरी काये
कै लानै
होंय..? मगर
हरी, जा
बात तो
बताओ कि
अगर हिंदु-मुसलमान आपस
में लड़हैं,
तो बा
से उन
दोनों दलन
खौं का
फायदा हुअहै...?
- देखो
दादा, इस
समय हमारे
देश में
आज़ादी के
लिये आंदोलन
चल रहा
है। कांग्रेस
पचीसों साल
से आंदोलन
चला रही
है। लड़
रही है।
गांधी, नेहरु,
सुभाष, मौलाना
आज़ाद सब
देश की
आज़ादी के
लिये ही
तो लाठियां
खा रहे
हैं...।
जेल जा
रहे हैं...। भगत सिंह, राजगुरु
और सुखदेव
जैसे क्रांतिकारी
लड़के तो
फांसी पर
ही जा
चढ़े...।
कुरबान हो
गये...।
तो इतने
सालों की
लगातार कोशिशों
के बाद
देश की
जनता जाग
गयी है...। वो पूरी तरह
से अंग्रेजों
के खिलाफ
हो गयी
है...।
अब उनका
यहाँ पर
राज करना
मुश्किल हो
गया है...। अंग्रेजों की हालत
पतली हो
रही है।
उधर विश्व
युद्ध में
इंग्लेण्ड फंसा
हुआ है...। तो आर्थिक रूप
से इंग्लेण्ड
की दुर्गति
भी हो
रही है...। अंदर से वह
धसक रहा
है...।
अपना राज
तक तो
उससे सम्हाले
नहीं सम्हल
रहा...।
दोहरी मार
पड़ रही
है, उस
पर। तो
ऐसी उम्मीद
भी बंध
रही है
कि भारत
को बस
आज़ादी मिलने
ही वाली
है...।
अब आज़ादी
मिलने ही
वाली है,
तो कुछ
मुसलमान नेताओं
को लगता
है कि
कहीं देश
का राज
कांग्रेस के
हाथों में
न चला जाये। वे
ऐसा सोचते
हैं कि,
कांग्रेस के
हाथ में
राज चला
जायेगा, तो
हिंदुओं का
राज हो
जायेगा...।
हिंदुओं का
राज हो
जायेगा, तो
मुसलमानों के
साथ अन्याय
होने लगेगा...। अत्याचार होने लगेगा...। उनका जीना मुहाल
हो जायेगा...।
- तो
का ऐसा
होगा...?
- नहीं
होगा। क्यों
होगा...? यही
बात तो
गांधी, नेहरु
और मौलाना
कह रहे
हैं कि
आज़ादी के
बाद देश
में जनतंत्र
स्थापित करेंगे।
जनतंत्र माने
जनता का
राज। देश
का संविधान
बनेगा। संविधान
के अनुसार
चुनाव होगा।
चुनाव में
जनता अपने
प्रतिनिधि चुनेगी।
प्रतिनिधियों के
जरिये सरकार
बनेगी। जनता
की सरकार
ही देश
चलायेगी। सभी
धर्म, जातियों
ओर नस्लों
के लोग
मिलजुल कर
रहेंगे...।
अब दुनिया
बदल चुकी
है, दादा।
पहले जैसी
नहीं रही,
कि इस
राजा ने
अपनी फौज
लेकर हमला
किया और
दूसरे का
इलाका हड़प
लिया...! उस
नवाब ने
हमला किया
और इन्हें
लूट लिया...!
कब्ज़ा कर
लिया...!
- तो
फिर बे
डरात काये
के लाने
हैं...?
- दादा,
वे इसलिये
डरते हैं
क्योंकि उनमें
से बहुत
से नेता,
जैसे कि
आगा खान,
चौधरी रहमत
अली और
मोहम्मद इकबाल
वगैरह आज
भी पुराने
दिनों में
ही जिंदा
हैं। वे
लोग इतिहास
से बाहर
नहीं आ
पाये हैं...। वे सोचते हैं
कि जैसे
औरंगजे़ब वगैरह
ने अपने
राज में
हिंदुओं पर
अत्याचार किये
थे, वैसे
ही हिंदुओं
का राज
हो जाने
पर उनके
साथ भी
अत्याचार होने
लगेगा...।
जबकि दुनिया
धर्म के
आधार पर
बनने वाले
राज्यों के
विचारों से
बहुत आगे
निकल चुकी
है। उसकी
जगह जनता
के पक्ष
वाले विचार
आ गये हैं...।
समाजवाद और
साम्यवाद की
बातें चलने
लगी हैं...।
दुनिया में
बदलाव आ
रहा है...। सब जगह जनता
का राज
हो रहा
है। रूस
में तो
इससे भी
एक कदम
आगे बढ़कर
मजदूरों का
राज हो
चुका है।
वहाँ समाजवाद
लाया जा
रहा है।
उनका मानना
है कि
समाजवाद में
सब बराबर
होंगे। कोई
अमीर और
कोई ग़रीब
हो, ऐसा
नहीं होगा...।
- का
कैह रहे
हो हरी...,
मजूरों को
राज हो
गओ है...?
- हाँ,
मजदूर माने,
मेहनत करके
कमाने वालों
का राज।
जैसे कि
हम-तुम...।
- हम
कहाँ मजूर
हैं...? हम
नईंयां मजूर-वजूर...।
अरे हम
तो मजूरों
से काम
कराबे बारे
मुकद्दम हते...। हम तो किस्मत
के मारे
हैं, नईं
तो खेती-बारी सबई
तो हती
अपने पास...।
- दादा,
जे बताओ
कि जब
खेती करते
थे, तो
खुद भी
खेतों पर
काम करने
नहीं जाते
थे क्या...?
- जाते
थे।
- हल
नहीं चलाते
थे...?
- चलाते
थे...।
- गहाई
नहीं करते
थे...?
- करते
थे।
- करते
थे न्...। तो जेई तो
मेहनत है।
बैठे-बैठे
तो नहीं
खाने मिल
जाता था...?
- नहीं।
- तो
यही तो
हम कह
रहे हैं...। जो श्रम करके
कमाता है,
वही श्रमिक
कहलाता है।
वह पसीना
बहा कर
कमाता है।
बैठे-बैठे
उसके घर
पर अनाज
या पैसा
नहीं चला
आता...।
अब हम
इधर काम
करने आये
हैं...तो
क्या यहाँ
पर मेहनत
नहीं करेंगे...?
मेहनत करने
ही तो
आये हैं
न्...।
बाबूजी भी
मेहनत ही
करते थे...। आप सब भी
मेहनत से
ही अपनी
रोटी कमाते
थे...।
तो हम
सब भी
असल में
मजदूर ही
हैं...।
रुपये से
रुपये कमाने
वाला पूंजीपति
कहलाता है
और मेहनत
से रोटी
कमाने वाला
मजदूर कहलाता
है...।
मेहनत करने
वाले में
एक आन
होती है,
कि वो
किसी का
हक़ नहीं
छीनता। अपनी
मेहनत का
खाता है।
शान से
जीता है।
मजदूर होना
और कहलाना
गर्व की
बात है...। शर्म की नहीं...।
श्यामलाल दादा
सोच में
पड़ गये।
उनका सोचना
था कि
गरीब-गुरबा
होना ही,
मजदूर होना
हैं और
मजदूर होना,
हीन हो
जाना है।
छोटा हो
जाना है।
हम तो
मालिक हैं,
मजदूर नहीं।
उन्होंने धीरे
से कहा-
हूँ...।
- खै़र
असल बात
तो जे
है दादा,
कि इस
समय हिंदु
और मुसलमानों
के मनों
में ज़हर
घोला जा
रहा है।
उससे हमें
बचना है।
दूसरों को
भी उससे
बचाना है।
हम आपस
में मरते-कटते रहे,
तो बताओ
दादा कि
इसमें किसका
फायदा है...?
दादा ने
जरा देर
सोचने के
बाद कहा-
कौनउ तीसरे
का...।
- और
वो तीसरा
कौन है...?
- साइत
करके अंगरेज
..।
हरि ने
खुश होकर
कहा- हाँ,
आपने बिल्कुल
सही पहचाना।
वह तीसरा
अंग्रेज ही
हैं...।
वाह, दादा
आप तो
ग़ज़ब हो...। सब जानते हो...। सब समझते हो...। पूरे जान-पांड़े
हो, आप
तो...।
- तो
जब हम
तक जे
सब समझत
हैं, तो
जेई बात
इन बड़े
नेताओं की
समझ में
काये नईं
आय...?
- आती
है...।
उन्हें भी
समझ में
आती है।
खूब आती
है...।
पर अपना
स्वार्थ भी
तो कोई
चीज है...। मुस्लिम लीग के
आगा खान,
चौधरी रहमत
अली और
लियाकत अली
खान जैसों
का स्वार्थ
है कि
राज मिले,
तो हमें
ही मिले...। उन्हें राज अपने
हाथों में
चाहिये। वे
गद्दी पर
बैठना चाहते
हैं। उन्हें
लगता है
कि भारत
इतना बड़ा
देश है,
उसमें इतने
सारे लोग
हैं। इतने
सारे लोगों
के इतने
सारे नेता
हैं। तो
जब आज़ादी
मिल जायेगी
और जनता
की सरकार
बनने लगेगी,
तो सरकार
में उन्हें
दूसरे या
तीसरे नंबर
पर रहना
पड़ेगा। पर
एक और
अलग देश
बन जाये,
उनका अपना
देश, तो
वे वहाँ
के सर्वेसर्वा
हो जायेंगे....।
उन्हें अपने
इसी स्वार्थ
को पूरा
करने के
लिये एक
अलग देश
चाहिये...।
और सुन
लीजिये, एक
वो हैं
मोहम्मद इकबाल....। कवि हैं। विचारक
हैं। लिखते
तो हैं,
कि ‘सारे
जहाँ से
अच्छा हिंदोस्तां
हमारा...’, पर
नोबल प्राइज
रवींद्रनाथ टैगोर
को मिल
गया, तो
गुस्सा हो
गये हैं
और अब
पाकिस्तान बनवाने
में वही
सबसे आगे
हैं...।
जिन्ना तो
राजनीति छोड़-छाड़ कर
इंग्लेण्ड में
जाकर बस
गये थे।
वहाँ पर
मजे से
भारी फायदे
वाली वकालत
कर रहे
थे...।
पर यही
इकबाल साहब
इंग्नेण्ड गये...। उन्हें मनाया-पथाया
कि आपका
मुसलमानों पर
बहुत असर
है। लौट
के चलो।
अपने एक
अलग मुल्क
के लिये
लड़ो। अंग्रेज
आपको बहुत
मानते हैं।
उनकी भी
इच्छा भारत
को तोड़ने
की दिख
रही है,
तो इसका
फायदा उठाईये।
ऐसा करके
आप भी
गांधी की
तरह महान
नेता हो
जायेंगे। तो
वे भी
पिघल गये।
गांधी-नेहरु
से बड़ा
बनना उनकी
पुरानी चाहत
है। तो
दादा, ये
इकबाल ही
हैं, जो
उन्हें मना
कर लाये
हैं...।
तो लोगों
के अपने-अपने स्वार्थ
हैं दादा।
अपने-अपने
फायदे हैं...। कहने का मतलब
जे है
कि इसीलिये
हमें न
हिंदु महासभा
वालों के
भड़कावे में
आना है
और न
ही मुस्लिम
लीग वालों
के...।
देश के
साथ रहना
है...।
- हओ,
ठीक है...।
- तो
दादा, जरा-जरा सी
बात पर
अपना खून
खौलाने की
ज़रूरत नईं
है...।
पक्का...?
- हओ...नै खौलाहें...। अब चलो खाना
खा लो...। दुफरिया हो रई
है...।
- चलिये...। सीता और हन्ना की बनायी आलू की तरकारी और पूरियाँ खायी जायें...।
हरि का
माथा गर्म
हो गया
था। उन्होंने
पहले बाहर
जाकर, पानी
से मुँह-हाथ धोया।
आंखों पर
छींटे मारे।
कुल्ले किये।
गीले हाथ
सिर पर
फेरे। दोनों
हाथों की
अंगुलियों से
आंखों की
पलकों को
छुआ और
अंदर तक
ठंडक पहुंचायी।
गमछे से
मुँह पोंछा।
दादा ने
ईंटों के
चूल्हे पर
तरकारी गर्म
की। थालियों
में परोसा
और पटियों
पर आसन
जमा कर
खाया। खाकर
दादा तो
लेट गये
और जल्दी
ही उनके
खर्राटे भी
शुरु हो
गये। हरि
ने अपने
थैले में
रखी किताब
निकाली और
पढ़ने लगे।
यही उनका
आराम था।
अम्मां अक्सर
कहा करती
थीं, हरि,
देख बेटा,
आराम माने
आराम...।
जे का
कि हर
बखत आंखों
के आगे
बस किताब...।
हरि कहते- हम
आराम ही
तो कर
रहे हैं,
अम्मां...।
देखो, लेटे
तो हैं...। शरीर आराम कर
रहा है...। बस आँखें पढ़
रही हैं...।
- आंखों
को भी
तो आराम
मिलो चईये...कि नईं...?
- रात
को तो
कित्ता सोते
हैं अम्मां
हम...! जानती
हो लाखों
किताबें हैं
दुनिया में...। तो जितना ज्यादा
पढ़ सकें,
पढ़ लेना
चाहिये...।
- तुम
दुनिया भर
की किताबें
पढोगे हरि...?
- हाँ,
अम्मां...।
जितनी मिल
सकें...उतनी
तो पढ़ना
ही है...।
- अच्छा...!
पढो़ बेटा,
जरूर से
पढ़ो...।
अम्मां, हरि
के पास,
पलंग की
पाटी पर
ही बैठ
गयीं थीं
उस दिन।
फिर बताने
लगीं- जानता
है, बेटा...!
जब जमानी
में तेरा
जनम हुआ
था, तो
तेरे बाबूजी
एक पंडिज्जी
को लेकर
घर आये
थे...।
बड़े गुनी
पंडिज्जी थे
वो। दूर-दूर तक
नाम फैला
हुआ था
उनका...।
तेरी कुंडली
बनवायी थी
उनसे...।
तो का
हुआ कि
उनने तुम्हारे
जनम का
बखत पूछा...। फिर अपने पोथी-पत्तरा देखे...। उसी से कुंडली
बनायी...।
कहने लगे
जातक का
नाम ह
अच्छर से
रखा जायेगा।
उसकी मिथुन
राशि निकली
है। तो
ह से हरी ठीक
रहेगा। तब
पता है,
तुमाये बाबूजी
ने का
कहा...?
- का
कहा अम्मां...?
- तुमाये
बाबूजी ने
का कहा,
कि पंडिज्जी
आपने कहा
है, तो
हरी नाम
ही ठीक
है, पर
हम तो
हैं भगवान
शंकर जी
के भगत...। तो ऐसा करते
हैं कि
मोड़ा का
नाम रख
देते हैं,
हरीशंकर...।
पंडिज्जी ने
हंस कर
कहा- हाँ,
जे ठीक
है...।
भगवान विष्णु
जी और
भगवान शंकर
जी, दोनों
एक साथ।
संसार के
पालक और
संहारक साथ-साथ। वाह,
परसाई महराज,
अच्छो विजचारो
आपने। और
सुन लो
महराज, आपके
घर में
जो यह
नया जातक
आया है
न्...सो
वो बड़ा
बुद्धीमान होगा...। बड़ा रुआब होगा
उसका...।
सब उसका
मान करेंगे...। उससे डरेंगे भी...। आपका नाम फैलाने
वाला होगा,
आपका पुत्र...। हम तो कहते
हैं कि
वो बड़ा
होकर ज़रूर
थानेदार बनेगा...।
- थानेदार...?
- हाँ,
जेई कहा
था उनने...। अब कुंडली में
लिखा है,
तो तुम्हें
तो थानेदार
बनना ही
है...।
पढ़ो...,खूब
पढ़ो...।
अच्छे लंबरों
से पास
होओ...।
जब थानेदार
हो जाओगे,
तो हम
तुम्हारे लिये
एक सुघड़
और सुंदर
सी थानेदारिन
लायेंगे...समझे...।
हरि ने
करवट ली
और लजा
कर कहा-
क्या अम्मां
आप भी...!
करवट लेने
से पटिया
उछला। हरि
कलथ कर
नीचे गिरने
लगे। पुस्तक
छूट कर
पहले छाती
पर गिरी,
फिर ज़मीन
पर। गिरते-गिरते खुद
को समहाला।
आधी देह
नीचे और
आधी पटियों
पर साधी।
दादा की
तरफ देखा।
- खर्रर्र....खुर्रर्र...।
खर्रर्र....खुर्रर्र...।
आरोह-अवरोह
के साथ
उनके खर्राटे
जारी थे।
हरि ने
ज़मीन पर
हाथ का
टेका लगाया।
उस पर
जोर लगा
कर शरीर
को पटियों
के पलंग
पर खींचा।
पुस्तक उठायी।
उसे माथे
से लगाया।
उस पर
लगी गर्द
को साफ
किया। दो
मिनट सीधे
लेटे रहे,
फिर उठे
और बाल
संवार कर
बाहर आये।
डोरीलाल को
पुकारा।
उससे कहा-
जाओ डोरीलाल
उन दूसरे
चौकीदार भाई
को भी
बुला लाओ...। डिपो का मुआयना
करेंगे...।
- जी
भईया जी...।
डोरीलाल उधर को भागा। हरि ने लक्ष किया, वह भाग कर ही चला करता है। उसके पैरों में बिजली है। गति है। देह में फुर्ती है। काम करने की हौस है। जी नहीं चुराता। गोंड है, जंगल-पुत्र। सभ्यता की पहली सीढ़ी वाला मनुज। तगड़ा और मेहनती। प्रेम करने वाला और साफ दिल का।
उस दिन
हरि ने
अपने साथ
दोनों चौकीदारों
को लिया
और पूरे
के पूरे
डिपो-इलाके
का बारीकी
से मुआयना
किया। चट्टे
देखे और
रजिस्टर से
उनका मिलान
किया। कौन
सा चट्टा
किस तारीख
को बना,
पिछली नीलामी
में कितने
चट्टे बिके,
अगली नीलामी
कब है,
सब जाना।
लकड़ियों की
माप करने
का तरीका
बुजुर्ग चौकीदार
से पता
किया। स्कूल
में गणित
विषय में
पढ़ाये जाने
वाले क्यूबिक
फुट को,
पहली बार
व्यवहारिक रूप
से समझा।
चौकीदारों में
से एक
को भाई
और दूसरे
को दादा
कहा। वे
निहाल हुए।
अब तक
उन्होंने अपने
लिये ‘ऐ,
ओ, अबे
कितै चलौ
गओ रे
और सारे
हरामखोर...’, जैसे
संबोधनों को
ही सुना
था। उन्होंने
हरि के
आगे-पीछे
दौड़-दौड़
कर काम
किया। उत्साह
छलकाया। मान
दिखाया। सहायता
की। जो
जानते थे,
सब बताया।
डिपो और
नीलामी के
किस्से सुनाये।
डिपो अफसर
के मिजाज
पर दबे
सुर में
टिप्पणी की।
हरि ने
आज जो
बहादुरी दिखायी
थी और
डिपो साब
को जिस
तरह से
सीधा कर
दिया था,
उस पर
उन्हें भारी
अचरज भी
था और
सुकून भी।
होंठों पर
तिरछी मुस्कान
के साथ
बताया, कि
आज पहली
बार ऊंट
पहाड़ के
नीचे आया
है।
हरि ने
सब चुपचाप
सुना, समझा
और उसके
आधार पर
भविष्य में
किये जाने
वाले, अपने
काम के
तौर-तरीकों
की रूपरेखा
का नक्शा
जैसा भी
अपने मन
में बना
लिया। हरि
ने उनसे
जो जाना
था, उसमें
यह भी
था, कि
नीलामी के
दिन, लकड़ियों
का कारोबार
करने वाले
ठेकेदार, दूर-दूर से
आकर डिपो
में जमा
होते हैं।
कि उस
दिन शहर
के बड़े
जंगल दफ्तर
से अंग्रेज
अफसर आता
है। कि
उसके आने
वाले दिन
से, दो
दिन पहले
से ही
डिपो में
हड़बोंग मची
रहती है।
कि तब
डिपो साहब
खूब परेशान
रहते हैं।
कि उनके
चेहरे पर
हवाईयां उड़ती
रहती हैं।
कि सब
ठीक-ठाक
हो जाये,
कोई ग़लती
न हो,
इसका भय
सिर पर
सवार रहता
है। वरना
तो वे
ऐसे कड़क
आदमी हैं,
कि अपने
मातहतों का
जीना मुहाल
किये रहते
हैं।
इसके विपरीत,
डिपों के
कर्मचारियों को
नीलामी वाले
दिन का
बेताबी से
इंतज़ार रहा
करता है।
वह दिन,
उनके अंदर
डिपो साहब
के लिये
पलने वाले
गुस्से के
परिहार और
बदला लेने
वाला दिन
बन जाता
है। अंग्रेज
अफसर डिपो
साहब को
बात-बात
पर डाँटता-फटकारता है।
डिपो साहब
की घिग्घी
बंधी रहती
है। कर्मचारी
दूर-दूर
रहते हैं,
पर उनकी
नज़रें और
कान, चोरी-छिपे उसी
तरफ लगे
रहते हैं।
अफसर अंग्रेजी
में डाँटता
है। डिपो
साहब सिर
झुकाकर, जी-जी कर
रहे होते
हैं। इधर
इनके सूखे
चेहरों पर
चैन की
लहरें आकर
लेटती रहती
है। पहले
एक लहर
आती है,
फिर दूसरी
आती है।
फिर तीसरी।
लहरों पर
लहरें आती
रहती हैं।
दिन भर।
जब अंग्रेज
अफसर अपने
घोड़े पर
बैठ कर
चला जाता
है, तब
कहीं डिपो
साहब की
गर्दन सीधी
होती है।
अपने ही
अधीनस्थों के
सामने, बुरी
तरह अपमानित
होने की
तकलीफ से
बाहर आने
का दरवाज़ा
खुलता है।
घिघियाने वाला
आदमी गायब
होने लगता
है और
उसकी जगह
पर, उनकी
पुरानी खुंख्वार
शक्ल फिर
से उगने
लगती है।
वह मुड़
कर अपने
कर्मचारियों की
ओर गुस्से
से देखते
हैं और
चार कदम
उनकी तरफ
बढ़ कर
चीखते हैं-
जे सब
तुमईं लोगों
की वजह
से होता
है...सारो...!
गल्तियां तुम
लोग करत
हौ और
भुगतना हमें
पड़ती हैं,
नमकहरामो...।
अरे वह
अंगरेज साहब
तो तुम
सब लोगों
को काम
से निकालने
के लिये
कह रहा
था...।
हमई ने
तुम लोगों
को बचाने
की खातिर
अपने मूड़
पे सब
लै लओ...,
नामुरादो...।
इस तरह
डिपो साहब
ने जो
और जितना
उस अंग्रेज
अफसर से
पाया होता
था, वह
सब का
सब, बल्कि
उसमें अपनी
तरफ से
भी बहुत
सा मिला
कर, कर्मचारियों
की तरफ
लुढ़का देते
थे। जैसे
कि ढलान
पर पेड़
की बल्लियां
लुढ़कायी जाती
हैं।
अंग्रेज अफसर,
पहले डिपो
में जमा
लकड़ियों के
हिसाब-किताब
का बही-खाता जांचता
है। कितनी
लकड़ी किस
तारीख को
आयी? उसकी
माप क्या
है? कितने
चट्टे बनाये
गये हैं?
पिछली बार
की नीलामी
में कितनी
लकड़ी बेची
गयी थी?
अब कुल
मिला कर
कितनी लकड़ी
डिपो में
है? जब
हिसाब का
सही मिलान
हो जाता
है, तब
नीलामी की
बारी आती
है।
इस तरह
हरि ने
पहले ही
दिन अपने
आप को
डिपो की
ज्यादा से
ज्यादा जानकारियों
से लैस
कर लिया
और आगे
के दिनों
के लिये
कमर कस
कर तैयार
हो गये।
---------
क्रमशः
राजेन्द्र
चन्द्रकान्त राय
‘अंकुर’,
1234, जेपीनगर, आधारताल,
जबलपुर (म.प्र.)
- 482004
पंत साहब की रचनाओं का बहुत सुंदर विश्लेषण किया । बहुत अच्छे से समझाया । वाह ।
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