नाथ, नाथ संप्रदाय और नाथ साहित्य
डॉ. हसमुख परमार
कहते हैं कि सिद्ध संप्रदाय (वज्रयान) की वाममार्गी साधना पद्धति की प्रतिक्रिया के रूप में नाथ संप्रदाय आया। इस तरह सिद्धों के भोगवाद तथा वामाचार का विरोध इस संप्रदाय की स्थापना का एक मुख्य कारण रहा है। सिद्ध संप्रदाय में बढती हुई इस भोगवृत्ति का तिरस्कार करते हुए त्याग, संयम व ब्रह्मचर्य को अपनाते हुए, आचरण की शुद्धता के साथ नाथपंथियों ने इस पंथ को विकसित किया। गोरक्ष सिद्धांत संग्रह के अनुसार नाथ शब्द का अर्थ है –
नकारो
नाद रूपं थकारः स्थाप्यते सदा।
भुवनत्रय
मैवेकः श्री गोरक्षनामोङस्तुते।।
सामान्यतः
नाथ शब्द योगी या संन्यासी के अर्थ में लिया जाता है। गेरूए वस्त्र धारण करके
नाथपंथ के योगी कान की लौ में बड़े बड़े छेद करके स्फटिक के भारी कुंडल पहनते हैं,
अतः इन्हें कनफटा योगी भी कहा जाता है।
पं. राहुल
सांकृत्यायन की दृष्टि से नाथपंथ सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप है। आचार्य
रामचंद्र शुक्ल का मत है- नाथ पंथ सिद्धों की परंपरा से ही छँटकर निकला है, इसमें
कोई संदेह नहीं। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथ पंथ के चरमोत्कर्ष का समय बारहवीं
शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के अंत तक माना है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नाथ संप्रदाय के लिए कुछ अन्य नाम भी दिए
हैं। जैसे सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमत, योगमार्ग, अवधूत मत, अवधूत संप्रदाय आदि।
यहाँ एक संदेह इस बात को लेकर होता है कि द्विवेदी जी ने नाथ पंथ के अन्य नामों में सिद्धमत व
सिद्धमार्ग भी बताएं है, तो क्या नाथ संप्रदाय और सिद्ध संप्रदाय एक ही है या
दोनों अलग-अलग ? इस प्रश्न के समाधान के लिए विद्वानों का मत है- उनके इस कथन
(हजारी प्रसाद द्विवेदी के नाथपंथ के
विविध नाम संबंधी मत) का यह अर्थ नहीं कि सिद्धमत और नाथमत एक ही है। उन्होंने तो
नामख्याति की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसका आशय इतना ही है कि इन दोनों मार्गों
को एक ही नाम से पुकारा जाता था और उसका कारण यह था कि मत्स्येन्द्रनाथ तथा
गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) सिद्धों में भी गिने जाते थे। यह प्रसिद्ध है कि
मत्स्येन्द्रनाथ नारी साहचर्य के आचार में फँसे थे, जिससे उनके शिष्य गोरखनाथ ने
उद्धार किया था। वस्तुतः इस लोकचर्चा के मूल में ही सिद्धमत एवं नाथमत का अन्तर
छिपा हुआ था। सिद्धगण नारी भोग में विश्वास करते थे, किन्तु नाथ पंथी उसके विरोधी
थे।’’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डॉ. नगेन्द्र पृ. 83)
नाथपंथियों
के आराध्य भगवान शिव है। इस संप्रदाय के संस्थापक-प्रवर्तक को लेकर विद्वानों में
मतैक्य नहीं है। एक मत जिसमें नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक के रूप में
मत्स्येन्द्रनाथ का नाम लिया जाता है। दूसरा मत गोरखनाथ को इस संप्रदाय का
प्रवर्तक बताता है। ‘‘यद्यपि नाथ संप्रदाय का प्रवर्तक भगवान शंकर को माना जाता है
पर मानवगुरुओं में मत्स्येन्द्रनाथ को नाथपंथ का सर्वप्रथम आचार्य स्वीकार किया
गया है, लेकिन मत्स्येन्द्रनाथ को नाथपंथ का सर्वप्रथम आचार्य मानते हुए भी
अधिकांश विचारक गोरखनाथ जिन्हें गोरखनाथ या गोरक्षया भी कहा जाता है- को ही नाथपंथ
को संगठित कर सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने का श्रेय प्रदान करते हैं। आजकल नाथ मत
का जो रूप जीवित है वह मुख्यतः गोरखनाथी योगियों का सम्प्रदाय है जिन्हें
कनफटायोगी या बारह पन्थी योगी भी कहा जाता है।’’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.
विजयपाल सिंह, पृ. 38)
नाथों की
संख्या नौ मानी गई है। ये नौ नाथ कौन ? इस संबंध में विद्वानों के मत अलग-अलग हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी दोनों ने नाथों की संख्या तो
नौ बताई पर इनके द्वारा बताए गए नामों में एकरूपता नहीं है। रामचंद्रशुक्ल ने अपने
हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘गोरक्ष सिद्धांत संग्रह’ के मत को उद्धृत करते हुए
इस परंपरा के नौ नाथों के नाम दिए हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ,
भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन। डॉ. रामकुमार वर्मा ने जिन नौ
नाथों के बारे में लिखा है इनके नाम हैं – आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ,
गहिणीनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, भर्तृहरिनाथ, गोपीचंदनाथ। नाथ
संप्रदाय व इसके सिद्धांतों में वर्णाश्रम-जातिप्रथा-ऊँच-नीच का भेदभाव एवं
ईश्वरोपासना के बाह्याडम्बरों का विरोध किया गया। पुस्तक विद्या, विशेषतः
वेदशास्त्रों को भी इसमें निरर्थक बताया गया। तीर्थयात्रा व मूर्तिपूजा की भी
उपेक्षा की गई। इसमें योग व संयम पर ही विशेष बल देते हुए घट के भीतर ही ईश्वर को
प्राप्त करने में विश्वास किया गया। आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार ‘‘इस मार्ग में कठोर ब्रह्मचर्य,
वाक् संयम, शारीरिक शौच, मानसिक शुद्धता, ज्ञान के प्रति निष्ठा, बाह्याचारों के
प्रति अनादर, आन्तरिक शुद्धि और मद्य-मांस आदि के पूर्ण बहिष्कार पर जोर दिया गया।’’
नाथपंथी हठ
योग में मानते हैं। हठयोग एक कष्टसाध्य योग-साधना पद्धति है। वैसे देखें तो हठयोग
शब्द से जोर-जबरदस्ती, जिद व बलपूर्वक की जाने वाली योग साधना वाले अर्थ की
प्रतीति होती है। परंतु हठयोग का मतलब इतना ही नहीं है बल्कि इसमें सूर्य-चंद्र
नाड़ियों का योग, प्राणसाधना, इंद्रिय-निग्रह, षटचक्रों से जुड़ी साधना व कुण्डलिनी
जागरण आदि बातें आती हैं। ‘‘हठयोग का सामान्य अर्थ बलपूवर्क, हठपूर्वक
प्रचंडतापूर्वक, जिद पूर्वक, जोर-जबरदस्ती से की जाने वाली क्रियाओं से लिया जाता
है, लेकिन हठयोग का वास्तविक अर्थ ‘ह’ और ‘ठ’ से मिलकर बनता है। ‘ह’ का अर्थ- हकार
अर्थात सूर्य नाडी, पिंगला नाडी या दायाँ स्वर होता- है। ‘ठ’ का अर्थ ठकार अर्थात
चंद्र नाड़ी, इड़ा नाडी या बायाँ स्वर होता है। इस प्रकार हकार औऱ ठकार का मिलन ही
हठयोग है। दूसरे अर्थों में हम इसे सूर्यनाड़ी और चंद्रनाड़ी का मिलन भी कह सकते
है।’’(योगियों का जीवन परिचय, डॉ. सोमवीर आर्य, प्रो. धर्मवीर सलोनी, पृ. 29-30)
छः चक्रीय साधना पद्धति को महत्व देते हुए इसमें छः चक्रों से होते हुए कुंडलिनी
शक्ति, भीतर की सूक्ष्म चेतना को जागृत किया जाता है।
आदिनाथ शिव
को हठयोग का प्रवक्ता और पार्वती को इसका प्रथम श्रोता माना जाता है।
मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि नाथों के द्वारा इस हठयोग पद्धति का आगे विकास हुआ।
गोरखनाथ को ही इस साधना-पद्धति का प्रमुख गुरु माना जाता है। हठयोग में षटकर्म,
आसन-प्राणायाम, ध्यान, समाधि आदि के जरिए शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य व सिद्धियाँ
प्राप्त की जाती है।
विद्वानों के
इस मत को पहले भी उद्धृत किया गया है कि सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान साधना की
प्रतिक्रिया के रूप में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। डॉ. विजयपाल सिंह के
मतानुसार ‘‘दार्शनिकता की दृष्टि से नाथपंथ शैवमत से प्रभावित जान पड़ता है पर
व्यवहारिकता की दृष्टि से वह पतंजलि के हठयोग से संबंध रखता है।’’
नाथपंथ के
महत्व को स्पष्ट करते हुए डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते है- ‘‘गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय
को जिस आंदोलन का रूप दिया वह भारतीय मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ है,
उसमें जहाँ एक ओर ईश्वरवाद की निश्चित धारणा उपस्थित की गई, वहीं दूसरी ओर विकृत
करने वाली समस्त परंपरागत रूढियों पर आघात किया।’’
नाथ साहित्य का संबंध नाथ पंथ से है। नाथपंथ या नाथ संप्रदाय से जुड़े योगियों द्वारा रचित यह साहित्य हिन्दी साहित्येतिहास के आदिकाल की विविध काव्यप्रवृत्तियों में से एक प्रमुख व बहुचर्चित काव्यप्रवृत्ति रही है। नाथपंथी साधकों के साहित्य में मुख्यतः निम्नांकित विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं–
·
शैवदर्शन
·
गुरु
महिमा
·
हठयोग
केन्द्रित साधना
·
आचरण
की शुद्धता
·
पंचमकारों
का निषेध (पांच तरह के विकारों – मांस, मत्स्य, मदिरा, मुद्रा, मैथुन – का विरोध)
·
सामाजिक-धार्मिक
कर्मकांडों का विरोध (वर्णव्यवस्था, गृहस्थ जीवन, मूर्तिपूजा, शास्त्रविधान आदि का
निषेध)
·
आत्मकेन्द्रित
- शरीर केन्द्रित – पिंड केन्द्रित साधना
·
वाममार्गी
साधना पद्धति का विरोध – सिद्ध साहित्य के भोगविलास की भर्त्सना
·
पंजाबी,
राजस्थानी, खडीबोली मिश्रित सधुक्कडी भाषा
· ब्रह्मरन्ध्र,
षटचक्र, अनहद नाद, इडा, पिंगला, कुंडलिनी आदि योगसंबंधी पारिभाषिक शब्दों का विशेष प्रयोग।
नाथ साहित्य के प्रमुख कवि गोरखनाथ ही
है। गोरखनाथ के साहित्य सृजन का समय 12वीं-13वीं शती बताया जाता है। योग साधना
संबंधी गूढ़ व गंभीर ज्ञान को बहुत ही सरल-सहज रूप में जनमानस तक पहुँचाने व इनके
लिए सुलभ बनाने का श्रेय गोरखनाथ को ही है। ‘‘गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में
गुरुमहिमा, इंद्रिय निग्रह, प्राणसाधना, वैराग्य साधना, मनःसाधना, कुंडलिनी जागरण,
शून्य समाधि आदि का वर्णन किया है।’’
गोरखनाथ की रचनाएँ हिन्दी और संस्कृत
दोनों में मिलती हैं। ऐसा बताया जाता है कि इनकी लगभग चालीस रचनाएँ हिन्दी में और
कुछ रचनाएँ संस्कृत में है। डॉ. पिताम्बर बड़थ्वाल ने इनकी रचनाओं का संकलन
गोरखबानी नाम से किया है।
गोरखनाथ एवं गोरखपंथ से संबंधी रचनाएँ –
गोरखबोध, गोरखबानी, गोरख-गणेश-गोष्ठी, दत-गोरख संवाद, महादेव-गोरख संवाद, गोरखनाथ
की सत्रह कला, योगेश्वरी, साखी, नरवई बोध, योग चिंतामणि, योग महिमा, योग मार्तण्ड,
योग सिद्धांत पद्धति, योग विराट पुराण, विवेक मार्तण्ड, निरंजन पुराण।
गोरखनाथ एवं गोरखपंथ की रचनाओं तथा इन
रचनाओं की साहित्यिकता को लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कुछ मत यहाँ द्रष्टव्य
हैं- (1) ये सब ग्रंथ गुरु गोरखनाथ के नहीं, उनके अनुयायी शिष्यों के रचे है। (2)
गोरखपंथ की रचनाएं हिन्दी औऱ संस्कृत दोनों भाषाओं में है, कुछ हिन्दी भाषा में
लिखी पुस्तकें संस्कृत ग्रंथ के अनुवाद या सार है। (3) सिद्धों और योगियों (नाथ
पंथियों) की रचनाएँ तात्विक विधान, योग साधना, आत्मनिग्रह, श्वास निरोध, भीतरी
चक्रों और नाडियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना का महत्व इत्यादि की सांप्रदायिक
शिक्षा मात्र है, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं।
अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आती। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए जिस
रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नाथपंथ की
रचनाओं में निरूपित उपरोक्त विषयों के चलते, इन रचनाओं को साहित्यिक दायरे से बाहर
की रचनाएँ मानी, परंतु पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी
एवं अन्य कुछ विद्वानों ने इन रचनाओं में निहित साहित्यिक गुण को स्वीकार
करते हुए इन्हें साहित्यिक रचनाओं की श्रेणी में रखा है। ‘‘गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं
में गुरुमहिमा, इंद्रिय निग्रह, प्राणसाधना, वैराग्य, मनःसाधना, कुण्डलिनी जागरण,
शून्य समाधि आदि का वर्णन किया है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता मिलती
है। यही कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित
नहीं किया था। किन्तु, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
इस पक्ष में नहीं है। पूर्वोक्त विषयों के साथ जीवन की अनुभूतियों का सघन
चित्रण होने के कारण इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित करना ही उचित है।’’
(हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 83)
गोरखनाथ के अतिरिक्त चौरंगीनाथ,
गोपीचन्द, चुणकरनाथ, भरथरी, जलन्ध्रीपाव प्रभृति नाथपंथी कवियों का भी नाथसाहित्य
के विकास में विशेष योगदान रहा।
नाथ संप्रदाय तथा नाथ साहित्य ने
परवर्ती हिन्दी साहित्य को भी प्रभावित किया है। मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में
संतमत या संतकाव्य पर नाथ पंथ का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कथ्य एवं
शिल्य संबंधी नाथसाहित्य की कई विशेषताएँ हमें मध्यकालीन संतकाव्य में मिलती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार- ‘‘कबीर आदि सन्तों को नाथपंथियों से जिस
प्रकार साखी और बानी शब्द मिले उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत सामग्री और
सधुक्कडी भाषा भी।’’ गुरु महिमा, आचरण की शुद्धता, आडम्बरों का विरोध, इन्द्रिय
निग्रह, इडा, पिंगला, कुंडलिनी जागरण, भाषा, उलटबासियाँ की कुछ विशेषताएँ जो
संतकाव्य-कबीर काव्य में मिलती है जिस पर नाथ साहित्य के प्रभाव को स्पष्ट रूप से
देखा जा सकता है। ‘‘नाथों की भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि का मिश्रण
मिलता है। उसे सधुक्कडी भाषा भी कहा गया है। नाथ वर्णाश्रम-धर्म का विरोध करते
हैं। जाति-प्रथा, ऊँच-नीच आदि का भी विरोध उनके साहित्य में मिलता है। वे
मूर्तिपूजा के भी विरोधी हैं। पुस्तक-विद्या तथा वेद-शास्त्रों को वे व्यर्थ मानते
हैं। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों पर उनका प्रभाव लक्षित होता है, क्योंकि वे
एकेश्वरवाद के हिमायती हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कबीर आदि निर्गुण सन्त
कवियों के लिए पृष्ठभूमि बनाने का कार्य इन नाथ-कवियों ने किया है।’’ (हिन्दी
साहित्य का संक्षिप्त सुगम इतिहास, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. 08)
डॉ.
हसमुख परमार
एसोसिएट
प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर
जिला-
आणंद (गुजरात)
बहुत-बहुत सुंदर सर।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।हार्दिक बधाई डॉ. परमार जी।
जवाब देंहटाएंGood work
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कार्य सर
जवाब देंहटाएं������
अति सुंदर
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनाथ, नाथ संप्रदाय और नाथ साहित्य से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी का संक्षिप्त रूप में सुंदर परिचय...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद Sir आपका...इस knowledgeable आलेख के लिए।
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुरुवर्य सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंनाथ,नाथ संप्रदाय और नाथ साहित्य पर आपके विचार बेजोड़ एवं अनमोल है। आपके द्वारा बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में पूरे नाथ साहित्य का बृहद इतिहास एवं अन्य परवर्ती साहित्य पर नाथ साहित्य के प्रभाव पर विचार किया गया है जो अनमोल है।
जैसा आपने बताया है कि सिद्धों के भोगवाद तथा वामचार के विरोध में इस संप्रदाय की स्थापना हुई है।इतिहास भी इस बात का साक्षी रहा है कि कोई भी समाज में जैसे जैसे कुकृत्य बढेंगे उसका विरोध साहित्य के माध्यम से होगा ही होगा,मेरा सीधा संकेत उस मत्सेन्द्र्नाथ के नारी साहचर्य पर है। समाज में अपने को साधु संत बताकर समाज को बेवकूफ बनाना बहुत ही शर्मनाक है। मत्सेन्द्र्नाथ के इसी दृष्टिकोण ने पूरे नाथ संप्रदाय पर कलंक लगाया। साहित्य समाज का दर्पण है। इस बात पर इस घटना को जोड़ा जाये तो वर्तमान समय में चल रहें नारी शोषण एवं अत्याचार उसी समय से चली आ रही घटनाएं है उसमें आज भी कोई परिवर्तन नही आया है। यदि मनुष्य साहित्य को अपना दर्पण समझकर उसे आत्मस्वीकृत कर लेता तो समाज में ऐसे अनिस्ट नही फ़ले फूलते।
नाथ संप्रदाय और नाथ साहित्य से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी का संक्षिप्त रूप में सुंदर परिचय...
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