नरेंद्र
कोहली
उस
दिन मेरा मन कुछ और ही हो रहा था, इसीलिए उन्हें ‘गुड मार्निंग’ न कह कर “जय रामजी की” कह बैठा ।
वे
बिगड़ उठे, “तुम्हें कुछ पता भी है कि मुझे
राम जी के कारण अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी और उसकी सहेलियों से कितनी डाँट सुननी पड़ी।”
मैं
‘पढ़ी-लिखी’ विशेषण पर विचार कर ही रहा था कि
उन्होंने गोला दागा, “बताओ राम जी ने सीता जी की
अग्निपरीक्षा क्यों ली? हम तुम तो ऐसा काम नहीं करते।”
उन्होंने अपनी पत्नी के शब्द दुहरा दिए, “अपनी पत्नी के साथ
ऐसा व्यवहार करना चाहिए क्या?”
मेरे
पास इस प्रश्न का कोई मौलिक समाधान नहीं था। विनोद में कहना होता तो कह देता कि
सहस्रों पत्नियाँ प्रतिदिन अपने पतियों की अग्निपरीक्षा लेती रहती हैं। कभी एक पति
ने ऐसी परीक्षा ले ली तो कौन-सा आकाश फट पड़ा। किंतु यह समय विनोद का नहीं था और
यह प्रश्न तो अब फैशन बन चुका है। कोई भी राह चलता अनपढ़ व्यक्ति,
जो स्वयं को पढ़ा लिखा मानता है, ऐसी फबती कस
देता है। राम जी के चरित्र में दोष निकाल कर स्वयं को महान सिद्ध करने में देर ही
कितनी लगती है। एक बार लखनऊ विश्वविद्यालय की बी. ए. की एक छात्रा ने अपने पत्र
में मुझे लिख भेजा था कि सीता त्याग के लिए वह राम जी को कभी क्षमा नहीं करेगी।
राम जी के चरित्र की महानता से पूर्णत: अनभिज्ञ उस छात्रा का अहंकार मुझ से सहा
नहीं गया और मैंने उसे लिख भेजा, “राम जी जब तुमसे क्षमा
माँगने आएँ तो क्षमा मत करना ।”
पर
आज बात पत्र की नहीं थी। वे मेरे सामने खड़े मुझ से उत्तर माँग रहे थे। शायद घर
लौटते ही उन्हें अपनी पत्नी को उत्तर देना था। वैसे भी राम जैसे चरित्र के साथ
हँसी-ठट्ठा करना उचित नहीं था। बात गंभीर थी।
एक
बार यही प्रश्न किसी ने स्वामी विवेकानंद से पूछा था। तो स्वामी जी ने कहा था,
“राम जी भगवान थे। वे सीता माता को अग्नि में भी बिना किसी कष्ट के
जीवित रख सकते थे, इसीलिए उन्होंने संसार के सामने सीता माता
की पवित्रता प्रमाणित करने के लिए अग्नि परीक्षा ली।”
उस
प्रश्नकर्ता को यह उत्तर स्वीकार नहीं था। उसे लगा कि स्वामी जी उसे टाल रहे हैं।
उसने कहा,
“हम इस बात को नहीं मानते। राम जी मनुष्य के रूप में आए ‘थे तो उन्हें मनुष्य की क्षमता के भीतर ही रखना होगा।”
स्वामी
जी ने कहा था, “आप ठीक कह रहे हैं। मनुष्य की क्षमता
के भीतर रख कर सोचिए। यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को आग में झोंक कर उसकी
परीक्षा ले सकता है और दूसरा व्यक्ति जलती आग में से बिना झुलसे सकुशल बाहर आ सकता
है, तो राम जी ने सीता माता की परीक्षा ली।”
“यही तो बात है।” प्रश्नकर्ता ने कहा, “मनुष्य आग में
से जीवित बच कर नहीं निकल सकता।”
“ठीक है।” स्वामी जी ने कहा, “आपके तर्क से चलते हैं।
इसीलिए न राम जी ने परीक्षा ली, न सीता माता ने परीक्षा दी ।
यह तो एक कवि का काव्य कौशल भर है।”
“यह कैसे हो सकता है।” वे भड़क उठे, “जब रामायण में
लिखा है कि राम जी ने अग्निपरीक्षा ली तो हम कैसे मान लें कि वह कवि का कौशल भर
है।”
“अरे एक ओर हो जाओ न भाई।” मैंने पूरे आत्मबल के साथ कहा, “या तो राम जी को भगवान मानो या मत मानो। वे भगवान थे तो उनमें अपनी पत्नी
क्या, किसी को भी अग्नि में जीवित रखने का सामर्थ्य था और
यदि वे भगवान नहीं थे, मनुष्य थे-तो न मनुष्य ऐसी परीक्षा ले
सकता है और न कोई मनुष्य ऐसी परीक्षा दे सकता है।”
वे
चुप हो गए। सहमत हुए या नहीं हुए- मैं नहीं जानता। पर मैं तब से सोच रहा हूँ कि
हमें ऐसे और भी बहुत सारे प्रश्नों पर विचार करना चाहिए। किसी की भी परीक्षा वैसी
ही होती है, जैसे उस युग में प्रचलित
परीक्षाएँ होती हैं। क्या रामकथा के समय में सत्य और झूठ का निर्णय करने के लिए
अग्निपरीक्षा का प्रचलन था? क्या किसी और स्त्री या पुरुष ने
भी ऐसी कोई परीक्षा दी थी? या सचमुच यह कवि का चमत्कार ही था?
काव्य-रूढ़ि भी हो सकती है, कवि का चमत्कार भी
हो सकता है और कवि की राम के ईश्वरत्व में दृढ़ आस्था भी हो सकती है। तब इंद्र,
वरुण, कुबेर, अग्नि,
वायु, सूर्य और धरती साकार-सशरीर प्रकट भी
होते थे। उस युग की चिंतन पद्धति अथवा घटना पद्धति कुछ और ही थी। तो हम अपनी
अक्षमताओं को उन पर थोप कर स्वयं परेशान क्यों होते हैं और साथ ही उन महान
चरित्रों के प्रति अपनी अश्रद्धा प्रकट क्यों करते हैं?
2. हाहाकार
वे
हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका हैं। पिछले दिनों एक शिष्टमंडल ले कर प्रधान मंत्री से
मिली थीं और हिन्दी के लिए ही नहीं, उसकी
बोलियों के लिए भी, कुछ करने का आग्रह और अनुरोध कर के आई
थीं।
आज
गोष्ठी की अध्यक्षता वे ही कर रही थीं। हिन्दी के भविष्य को ले कर वे आज भी बहुत
चिंतित थीं। उन के भाषण का मूल विचार ही यही था। अगली पीढ़ी यदि हिन्दी का
बहिष्कार कर देगी तो हिन्दी कैसे बचेगी। हमारे साहित्य का भविष्य क्या होगा?
पुस्तकें बिकेंगी नहीं। पत्रिकाएँ कोई ख़रीदेगा नहीं। अंततः दुखी हो
कर वे बड़े आवेश में बोलीं, “मेरे तो अपने बच्चे ही हिन्दी
की कोई पुस्तक पढ़ने को तैयार नहीं हैं।”
वे मंच से
उतर कर नीचे आईं और चाय की मेज़ की ओर चलीं तो रामलुभाया भी उनके साथ हो लिया।
“आपने
अपने बच्चों को किस अवस्था में पाठशाला भेज दिया था?” रामलुभाया
ने पूछा।
उन्होंने
वक्र दृष्टि से रामलुभाया की ओर देखा, “पाठशाला
में पढ़ें तुम्हारे बच्चे। मेरे बच्चे क्यों पाठशाला में पढ़ेंगे। वे तो पब्लिक
स्कूल में पढ़े हैं।”
“चलिए आप उन्हें पब्लिक स्कूल कह कर प्रसन्न हैं तो वही सही।” रामलुभाया
बहुत धैर्य से बोला । पर हैं तो वे भी पाठशालाएँ ही। तो आपने किस अवस्था में अपने
बच्चे को उस पब्लिक स्कूल में भेज दिया था? “
लेखिका
का मन बहुत ख़राब हो चुका था। पाठशाला में पढ़ने के नाम से वे स्वयं को बहुत
अपमानित अनुभव कर रही थीं। मन नहीं था कि रामलुभाया की शक्ल भी देखें। फिर भी सोचा
कि शालीनता का पल्ला नहीं छोड़ना चाहिए ।
“तीन
वर्ष की अवस्था में सभ्य घरों के बच्चे अपने स्कूल जाने लगते हैं।”
“स्कूल में
तो बच्चे अंग्रेज़ी में ही सब कुछ पढ़ते होंगे?”
“और
क्या संस्कृत में पढ़ेंगे।” उनका मुँह घृणा से कड़वा गया।
“मेरा
तात्पर्य है कि आप उनको स्कूल भेजने से कुछ पहले ही से अंग्रेज़ी पढ़ा रही होंगी।”
“तो
क्या बिना पढ़ाए ही अंग्रेज़ी आ जाती उनको?” हिन्दी की
लेखिका रुष्ट थीं ।
“तो
आप के बच्चे ढाई वर्ष की अवस्था से अंग्रेज़ी पढ़ रहे हैं?”
“और
नहीं तो क्या ।” लेखिका ने गर्व से रामलुभाया की ओर देखा ।
रामलुभाया
मुस्कराया, “आप अपने बच्चों को उनके शैशव से
अंग्रेज़ी पढ़ाएँगी तो बड़े हो कर वे हिन्दी की पुस्तकें किसी दैवी प्रेरणा से
पढ़ेंगे देवी जी?”
“क्या
मतलब?” वे चिढ़ कर बोलीं।
“आपने
कभी उनके हाथ में हिन्दी की पुस्तक नहीं दी। शायद कभी उनसे हिन्दी में बातचीत भी
नहीं की तो उनकी अंग्रेज़ी भक्ति का पापी कौन है?” रामलुभाया
उनकी ओर देख रहा था।
लेखिका
रामलुभाया को छोड़ कर मेरे पास आ गईं, “यह
कौन बदतमीज़ी है?”
“रामलुभाया
है।” मैंने बताया, “वह भी हिन्दी के लिए चिंतित रहता है।”
“खाक
चिंतित रहता है। मेरे बच्चों का कैरियर तबाह करना चाहता है।” वे बोलीं ।
“आपकी
भाषा में उर्दू की शब्दावली प्रचुर मात्रा में है।” मैंने कहा।
“हाँ!
उर्दू बहुत मीठी ज़बान है।” उन्होंने चटखारा लिया, “एक मेरी
ही स्टेट है इस देश में जहाँ सरकारी ज़बान उर्दू है।”
मेरी
आँखें फटी की फटी रह गईं। ये हिन्दी की लेखिका नहीं जानती कि कश्मीर में से
कश्मीरी,
डोगरी और लद्दाखी समाप्त कर वहाँ उर्दू की प्रतिष्ठा की जा रही है।
वह जो हिन्दी और उसकी बोलियों के लिए कुछ करने का आग्रह ले कर प्रधान मंत्री के
पास गई थीं, अपने प्रदेश पर इसलिए गर्व कर रही हैं कि वहाँ
भारतीय मूल की सारी भाषाओं और बोलियों पर राजनीतिक कारणों से उर्दू थोपी जा रही
है।
“आपका चिंतन तो बहुत गंभीर है। मैंने कहा, “पर आप ने
विचार नहीं किया कि कश्मीर में वहाँ की सारी बोलियों की हत्या क्यों की जा रही ।”
“अरे वह सब क्या सोचना।” वे हँस
कर बोलीं, “आप को एक शेर सुनाऊँ।
पर मैं उनका
शेर नहीं सुन पाया। मेरे मन में कश्मीरी, डोगरी
और लद्दाखी का हाहाकार गूँज रहा था।
सार्थक रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंनरेंद्र कोहली जी को सादर नमन
अनुपम 🙏
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत ।बधाई नरेंद्र कोहली जी।