रविवार, 31 अगस्त 2025

प्रसंगवश

संपादक की कलम से.... 

गणपति  

माने और माहात्म्य

डॉ. पूर्वा शर्मा

भारतीय संस्कृति में किसी भी कार्य का शुभारंभ गणेश जी की वंदना-स्तुति-पूजा से किया जाता है, इतना ही नहीं गणपति-गजानन को तो हर छोटे-बड़े कार्य में सबसे पहले आमंत्रित भी किया जाता है।  किसी भी कार्य की शुरुआत करने के लिए प्रयोग किए जाने वाला मुहावरा – ‘श्री गणेश करना’ से तो शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा। दरअसल गणेश एक ऐसे देवता हैं जिनके बारे में वेदों-पुराणों एवं अन्य ग्रंथों में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं और यही कारण है कि गणेश को अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न तरीके से व्याख्यायित किया गया है।  वैसे वेदों के अतिरिक्त मुख्यतः तीन पुराणों (शिव पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण एवं वराहपुराण) में गणेश जी का विवरण प्राप्त होता है।  शिव जी एवं माता गौरी के पुत्र गणेश के बारे में प्रचलित पौराणिक कथाओं से तो लगभग सभी परिचित हैं ही।  तो चलिए आज गणेश अथवा गणपति के संदर्भ में प्राप्त एक और विवरण-व्याख्या को देखते हैं।   

लोकायात में गणपति की बहुत ही सरल ढंग से व्याख्या की गई है।  लोकायात अर्थात जो इसी लोक से संबंधित हो।  लोकायात दर्शन एक नास्तिक एवं भौतिकवादी दर्शन है जिसे चार्वाक दर्शन भी कहा गया है; जो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है।  अपनी प्राकृतिक-भौतिक-आर्थिक संपदा के चलते आरंभ से ही भारत धन-धान्य की दृष्टि से एक संपन्न देश रहा है।  अपने शुरुआती दौर से ही भारत एक राष्ट्र रहा है लेकिन कई अलग-अलग राज्यों-गणराज्यों में बँटा हुआ था।  हाँ! यह बात अवश्य है कि इन राज्यों की संख्या समय-समय पर बदलती रही है।  मसलन महाभारत काल में इन गणराज्यों की संख्या लगभग 18 तो बौद्ध-जैन आदि के समय में लगभग 10 रही। इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह सभी गणराज्य हमेशा से एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी रहे हैं। इतना ही नहीं अपनी सम्पन्नता के चलते भारत के बाहर के अन्य देश भी लूट के उद्देश्य से यहाँ पर आक्रमण करते थे इसलिए प्रत्येक गणराज्य अपने आप को और अधिक शक्तिशाली-सामर्थ्यवान बनाना चाहता था।  यही कारण है कि इन छोटे-बड़े राज्यों को अपनी सुरक्षा एवं अपने गण पर राज करने के लिए एक राजा-अध्यक्ष- स्वामी की आवश्यकता हुई। इसे गणेश अथवा गणपति कहा गया। गण यानी जन समूह, पति अथवा ईश अर्थात स्वामी-राजा।  इस दृष्टि से गणेश का अर्थ हुआ गण पर राज करने वाला।  यह गणेश अथवा राजा कैसा हो ? इस सन्दर्भ में यह मान्यता-धारणा रही कि यह गणेश ऐसा हो कि अपने एक ही दाँत से एक ही वार में शत्रु को विदारित कर दें, चीर दें। अर्थात् गणेश का एक ही दाँत है वह दूसरी बार आक्रमण नहीं करते। इसका अभिप्राय यह हुआ कि बड़े से बड़े शत्रु को यह राजा एक ही बार आक्रमण करके उसका नाश कर दें और उस शत्रु के खून से तिलक करके विजयी हो। लेकिन इतना काफी नहीं है, शक्तिशाली होने के बावजूद यह राजा कोई बाहर का व्यक्ति नहीं हो सकता; यह गणेश तो हमारी भारत भूमि का पुत्र होना चाहिए। एक ऐसा मनुष्य जो स्वयं को भारत के पहाड़ों से बनी इस उपजाऊ मिट्टी का पुत्र मानता हो वह ही गणेश अथवा राजा होने का अधिकारी हो सकता है।    

दंताघात विदारितारि रुधिरेः सिंदूरशोभाकरं,

वंदे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्।।

भारत भूमि का ऐसा पुत्र-गणपति ही भारत की इस आर्थिक संपन्नता की रक्षा करने योग्य होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य को शक्तिशाली बनाने, अर्थ (Economic prosperity) एवं धर्म (law and order) की रक्षा करने वाला ही ‘गणपति’ है। गणपति प्रतीक है – ‘सुशासन’ यानी एक अच्छी शासन प्रणाली का । 

इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने गणपति-गणेश का एक और रूप माना है। उनके अनुसार उनके गणपति (गण का पति) में निम्न गुण अपेक्षित हैं – सुमुखश्चै अर्थात्  -उसकी वाणी मिठास वाली होनी चाहिए, एक वार में शत्रु का नाश कर दें (एकदन्तश्च), राज्य में हरियाली भर दें (कपिलो), गजकर्ण यानी छोटे-बड़े सबकी सुन सके, किसी भी रहस्य को अपने भीतर समाहित कर सके(लम्बोदर) । इस तरह के गुणों वाला ही गणपति बनने के योग्य है, जो अपने राज्य की सुरक्षा के साथ खुशहाली भी ला सके और राज्य के सम्मान में वृद्धि कर सके ।  

सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।

लम्बोदरश्च विकटो विघन्नाशो विनायकः ।।

धार्मिक दृष्टि से शिव के पुत्र के रूप में गणपति अर्थात् विभिन्न गणों (नंदी गण आदि) के राजा-सरदार की तरह से भी देखा गया है। शिव का अर्थ ही है – कल्याण,  तो लोक कल्याण की दृष्टि से सभी गणों की देख-रेख करने वाला ‘गणपति’ है। यही कारण है कि लोक कल्याण के राजा यानी गणपति की पूजा सबसे पहले की जाती है। कुछ विद्वानों ने गणेश के शरीर के विभिन्न अंगों को भी प्रतीकात्मक रूप में देखा है। गणपति के विराट स्वरूप की तरह उनकी व्याख्या-विवरण में भी बहुत विस्तार एवं वैविध्य है। इस संबंध में प्रस्तुत हैं कुछ हाइकु –


1

सुने सभी की !

यूँ ही नहीं कहते !

हे... गजकर्ण !

2

द्वैत से शुरू

परिणति.... अद्वैत!

वो एकदन्त!

3

सारे रहस्य

भीतर लेते समा

लम्बोदर! श्री!

***

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

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