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सिद्ध साहित्य
आदिकालीन हिन्दी साहित्य की मुख्य पाँच धाराओं में ‘सिद्ध
साहित्य’ का उल्लेख सबसे पहले किया जाता है । “वैदिकधर्म की जटिलता और कर्मकाण्ड
के खिलाफ बौद्ध धर्म की स्थापना हुई थी । उसी बौद्ध धर्म से आगे चलकर हीनयान,
महायान, मंत्रयान, वज्रयान, सहजयान आदि संप्रदाय निकले । इनमें सिद्धों का संबंध
मंत्रयान,
वज्रयान, सहजयान आदि संप्रदायों से है । वे जीवन की सहजचर्या में
विश्वास रखते हैं । मंत्र-तंत्र, डाकिनी, शाकिनी आदि की बातें भी इनमें आती हैं । वे पाँच मकार-मांस,
मत्स्य, मदिरा, मुद्रा, मैथुन-का सेवन करते हैं । इनके द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति
होती है,
ऐसा वे मानते हैं । प्राचीन चार्वाक तथा आधुनिक चिंतकों में
ओशो रजनीश जी से उनके विचार मिलते हैं । मंत्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने वाले
योगियों को ‘सिद्ध’ कहते थे । ( हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त सुगम इतिहास ,
डॉ.पारुकांत देसाई, पृ-07-08)
सिद्धों की संख्या चौरासी बताई गई है । रोचक बात तो यह है
कि इन सिद्धों के जो नाम हैं उनमें अधिकतर नाम का अंतिम शब्द-वर्ण ‘पा’ है । यथा-
लूहिपा,
लीलापा, सरहपा, कण्हपा, जालंधरपा, महीपा, निर्गुणपा । सरहपा (दोहाकोश), शबरपा (चर्यागीत), लुईपा तथा कण्हपा मुख्य कवि हैं । शास्त्रीय चिंतन की
अपेक्षा साधना का अधिक महत्त्व, गुरु महिमा, रहस्यात्मकता, योग, रुढियों तथा बाह्याडम्बरों का विरोध जैसी विशेषताएँ इस
साहित्य की मूल पहचान रही हैं । सिद्धों
की वाणी तथा सिद्ध साहित्य की कतिपय विशेषताओं से आगे चलकर मध्यकालीन संत कवि भी
थोड़े बहुत प्रभावित रहे।
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