गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

कविता

एक मुट्ठी धरती और आकाश

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

क्यों बताया मुझे

कि जा रहे हो?

जब पूछा नहीं था,

आते समय,

कोरा जो मन था,

वही तो मेरा था।

उस पर लकीर खींच डाली,

थोड़ा मेरा पूरा अपना बना डाला।

क्या पूछा था उस समय?

कहना था मुझे भी कुछ

याद करो क्या मुझे मौका दिया था?

फिर क्यों आज जाते समय-

इतनी तामझाम?

सुना है सर्द बहुत है,

तपती रेगिस्तान में,

प्यास लगती है,

पर पानी नदारद है।

कहीं ऐसा तो नहीं मेरी फिक्र

ने कचोटा था तुम्हें,

या फिर दिखाना था

अपनी काबिलियत तुम्हें।

एक मुट्ठी ठंडी धूप,

गर्म चाँदनी का इंतज़ार रहेगा,

मुझे नहीं देखना है रास्ता तुम्हारा,

लेकिन मेरी ओर आनेवाला हर

किवाड़ खुला रहेगा।

चलो तो आज यहीं तक बातें,

तकिए के नीचे नहीं रखी है,

तुम्हारी यादें।

फिर भी अगर याद आई तुम्हारी

मैं आसमान को देख लूँगी।

जो भूले भटके मेरी याद आए तुम्हें,

तो अपनी धरती को याद कर लेना।


 

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हैदराबाद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

जुलाई 2025, अंक 61

  शब्द-सृष्टि जुलाई 2025 , अंक 61 परामर्शक की कलम से.... – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ के बहाने कुछेक नये-पुराने संदर्भ..... – प्रो. हसमुख प...