महान संत रामकृष्ण परमहंस
भारत भूमि एक ऐसी भूमि है जहाँ पर संतों, दार्शनिकों,
चिंतकों, अवतारों, विचारकों प्रभृति अनेक कतिपय व्यक्तिवों की कमी नहीं रही है। प्रत्येक
सदी में यहाँ ऐसे कुछ कृती व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने समाज को एक नयी दृष्टि
देकर ऊँचाई के मुकाम पर पहुँचाने का कार्य किया है। ऐसी कतिपय शख्सियतों ने अपनी
बुद्धि, विद्या, विवेक, पुरुषार्थ आदि के बल पर समाज में जारूकता लाने, मानवता एवं समाज के लिए
अनेक हितकारी कार्य किए।
ऐसे ही कुछेक महात्माओं में बड़े आदर के साथ लिया जाने वाला
एक नाम है – ‘रामकृष्ण परमहंस’। जिस समय समाज में ऊँच-नीच, छूआछूत आदि कुरीतियाँ
व्याप्त थीं उस समय रामकृष्ण परमहंस ने असहायों की सहायता करने का बीड़ा उठाया। दीन-दरिद्रों
को भोजन करना, कुष्ठ रोग, क्षय रोग आदि से पीड़ित रोगियों की सेवा करना और इनके साथ
समय व्यतीत करने में उन्हें परम आनंद प्राप्त होता था। दरअसल उनको एकांत में साधना
करने से ज्यादा आनंद इन लोगों की सेवा करने में आता था। मनुष्य की सेवा करना ही
उनका परम कर्तव्य बन गया था। उन्होंने मनुष्य की सेवा को परमात्मा की सेवा करने की
सीढ़ी के रूप में चुना।
जन्म के साथ ही कुछ जिज्ञासाएँ, कुछ प्रश्न मनुष्य के समक्ष
बने हुए हैं, इनमें से कुछ का उत्तर विज्ञान की प्रगति के साथ मिला और कुछ का नहीं।
कुछ दार्शनिकों ने कतिपय प्रश्नों के उत्तर अपने ढंग से दिए और कुछ तो आज भी ज्यों
के त्यों बने हुए हैं। इनमें से कुछ के उत्तर रामकृष्ण परमहंस ने अपनी बुद्धि-विवेक
और अनुभव के आधार पर अपने जिज्ञासु शिष्यों एवं लोगों के सामने प्रस्तुत किए।
ब्रह्म एवं समाधि
ब्रह्म क्या है? इस प्रश्न के संदर्भ में परमहंस जी कहते
हैं इसे बताने के लिए शब्दों की सहायता नहीं ली जा सकती है, उसे तो सिर्फ़ अनुभव
किया जा सकता है। जिसे समुद्र की गहराई का अंदाज़ा नहीं वह इतना ही कह सकता है कि
वह जल से भरा विशाल जलाशय है। यदि हम पूछे कि ब्रह्म कौन है? कैसा है? – ब्रह्म निर्गुण,
निष्क्रिय अटल, अचल, सुमेरु पर्वत है। ब्रह्म भला-बुरा दोनों से निर्लिप्त है। वह
दीप की ज्योति के समान है। जिस तरह कोई दीप के प्रकाश में अध्ययन करता है तो कोई
उसी प्रकाश का लाभ उठाकर चोरी करता है। ब्रह्म साँप के जैसा है, जिस तरह साँप के
दाँत में विष होने पर भी उस विष का असर साँप पर नहीं होता ठीक उसी प्रकार ब्रह्म इन
सबसे निर्लिप्त है। ब्रह्म जगत में दुःख, पाप, अशान्ति जीव के लिए ही है। ब्रह्म
के लिए यह कुछ नहीं है। ब्रह्म इस सबसे से परे है, अद्वैत है। ब्रह्म भला-बुरा,सत-असत,
ज्ञान-अज्ञान, धर्म-अधर्म इन सभी से परे है। ब्रह्म वायु की तरह है ब्रह्म ही सत्य
है, नित्य है। जगत मिथ्या है ऐसा कहना बहुत आसान है लेकिन वास्तव में इसका अर्थ
क्या है? जैसे कपूर के जलने पर कुछ भी नहीं
बचता, लकड़ी के जलने पर कम से कम राख तो बचती है। वैसे ही विचार के अंत में समाधि
होती है। तब मैं, तुम, जगत इन सबका पता ही नहीं रहता। माया के दूर हो जाने पर
ब्रह्म ही रह जाता है। जगत ब्रह्ममय हो जाता है। समाधि अवस्था में ब्रह्म ज्ञान
होता है । उस अवस्था में सब विचार सत-असत, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान सब बंद हो जाता
है। सब शांत हो जाता है, वह केवल अस्ति मात्र रह जाता है। जैसे नमक की पुतली समुद्र
में गहराई नापने के लिए उतरती है तो समुद्र में घुलकर उसक साथ मिलकर एक हो जाती
है। फिर गहराई की खबर कौन दे! बस यही तो ब्रह्मज्ञान है।
धर्म
परमहंस कहते हैं – धर्म न तो पुस्तकों में है, न ही मानसिक
सहमति में और न ही तर्क वितर्क में। तर्क-वितर्क, सिद्धांत, लेख, पुस्तकें,
धार्मिक रीतियाँ ये सभी धर्म के सहायक है ; धर्म तो स्वयं आत्मबोध से मिलता है।
इस्लाम एवं ईसाई धर्म की उपासना
परमहंस जी ने कुछ समय तक इस्लाम एवं ईसाई धर्म की उपासना
पद्धतियों का भी प्रयोग किया। उन्होंने इसके पश्चात निष्कर्ष निकाला कि यह
पद्धतियाँ तो ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं। जैसे गंगा तक पहुँचने के लिए
आप अलग-अलग मार्ग चुनते हो लेकिन आपका लक्ष्य तो एक ही है गंगा दर्शन। ठीक उसी
प्रकार आप कोई भी मार्ग चुनो निर्गुण या सगुण आपका गंतव्य ईश्वर ही है। “हिन्दू
लोग एक घाट से जल पीते हैं और कहते हैं जल; मुसलमान और एक घाट से पीते हैं और कहते हैं पानी,
अंग्रेज़ और एक घाट से पीते हैं और कहते हैं वाटर,
और फिर एक अन्य व्यक्ति एक घाट पर कहता है aqua
(एक्वा)। एक ईश्वर – उनके
नाना नाम।” (श्री श्री रामकृष्ण परमहंस कथामृत-5, पृ. 23)
ज्ञान
“ज्ञान किसे कहते हैं, और मैं कौन हूँ ? ईश्वर ही कर्ता और सब अकर्ता - इसका नाम है ज्ञान। मैं
अकर्ता हूँ। उनके हाथ का यन्त्र हूँ। इसीलिए माँ से कहता हूँ,
'माँ! तुम यन्त्री,
मैं यन्त्र; तुम घरणी, मैं घर; मैं गाड़ी, तुम इञ्जीनियर; जैसे चलाती हो, वैसे ही चलता हूँ; जैसे करवाती हो, वैसे ही करता हूँ; जैसे बुलवाती हो, वैसे ही बोलता हूँ; नाहं नाहं, तुहुं तुहं । (मैं नहीं, मैं नहीं; तू ही, तू ही)।” (श्री श्री रामकृष्ण परमहंस कथामृत-5, पृ. 11)
जाति-भेद के सम्बन्ध में
परमहंस के विचार से जाति-भेद को सिर्फ़ एक उपाय से हटाया जा सकता
है। वह उपाय है – भक्ति। भक्त की कोई जाति
नहीं होती। भक्ति होने से ही देह, मन, आत्मा सब शुद्ध हो जाते हैं। भक्ति बिना
ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। भक्ति होने पर चाण्डाल चाण्डाल नहीं है। अस्पृश्य जाति
भक्ति होने से शुद्ध, पवित्र हो जाती है।
रोचक प्रसंग
1
जन्माष्टमी के उत्सव के अवसर पर राधा-गोविन्द जी के मन्दिर
में नन्दोत्सव मनाने की परंपरा थी। दोपहर के भोग के पश्चात् गोविन्द जी के विग्रह
से शयन के लिये भीतरी प्रकोष्ठ में ले जाते समय पुजारी का पैर फिसल जाने से वह
मूर्ति सहित फर्श पर जा गिरे और मूर्ति का एक पाँव टूट गया।
यह खबर रानी रासमणी तक पहुँची तो वह घबरा उठी। अब क्या किया
जाय, इसके लिये पण्डितों की सभा बुलायी गयी। पण्डित लोगों ने
ग्रंथ देखे, सोच-विचार करने के बाद और यह विधान दिया कि भग्न विग्रह को गंगा में विसर्जित
करके उसके स्थान पर नयी मूर्ति की स्थापना की जाय।
रानी रासमणी को यह बात जँची नहीं। रानी स्वामी रामकृष्ण पर
विशेष श्रद्धा रखती थीं। तब उन्होंने अपनी व्यथा रामकृष्ण को सुनायी। यह बात सुनकर
उन्होंने रानी से प्रश्न किया- यदि आप के जामाताओं में से किसी एक का पाँव टूट
जाता तो आप उनकी चिकित्सा करवातीं या उनके स्थान पर दूसरे को ले आतीं?
रानी ने कहा – मैं अपने जामाता की चिकित्सा कराती, उन्हें त्याग कर दूसरा नहीं ले आती।
रामकृष्ण ने कहा – बस उसी प्रकार विग्रह के टूटे पैर को
जोड़ कर उसकी सेवा-पूजा यथावत होती रहे तो दोष ही क्या है?
श्री रामकृष्ण परमहंस के इस सहज विधान को सुन कर रानी
हर्षित हो उठीं। हालाँकि उनकी यह व्यवस्था ब्राह्मणों के मनोनुकूल नहीं थी। लेकिन रानी
ने ब्राह्मणों के विरोध की चिन्ता नहीं की। स्वामी जी ने टूटे विग्रह के पाँव को
ऐसा जोड़ दिया की कुछ पता नहीं चलता। पूजा-सेवा उसी प्रकार चलती रही। एक दिन किसी
जमींदार महाशय ने पूछा – मैनें सुना है आपके गोविन्द जी टूटे है। इस पर वे हँस कर
बोले – आप भी कैसी भोली बातें करते हैं जो
अखण्ड मण्डलाकार हैं, वे कहीं टूटे हो सकते हैं ।
2
रामकृष्ण परमहंस खाने के बड़े शौक़ीन थे। खाने में उन्हें
बड़ा रस आता था । इसे ज्यादा भुना होता, इसमें नमक कम था, इसमें खटाई ज्यादा थी आदि आदि । खाना खाते समय बहुत
टीका-टिप्पणी किया करते थे । एक बार उनकी पत्नी ने ग़ुस्से में कहा कि इतने बड़े विद्वान
हो, दुनिया भर के लोग आपसे प्रवचन सुनने आते है नरेंद्र जैसे बच्चे तुम्हारा
आशीर्वाद लेकर विवेकानंद बन गए और तुम चौबीसों घंटे इस शौक में लगे रहते हो तो कि
इसमें स्वाद था और ये बनाओ। यह सुनकर परमहंस जी अपनी पत्नी को कहा कि इस पृथ्वी पर
बने रहने का मेरा एक मात्र रस भोजन है। जिस दिन मुझे भोजन में रस आना बंद हो जाए
उसके एक हफ्ते बाद मैं पृथ्वी छोड़ दूँगा। एक दिन ऐसा ही हुआ। परमहंस के खाना खाने
के बाद उनकी पत्नी ने भोजन किया तो बोला कि इसमें तो नमक ही नहीं है आपने कैसे
खाया? परमहंस जी बोले कि मुझे तो पता ही नहीं चला। उनकी पत्नी माँ शारदामणी ने
नरेंद्र को तुरंत बुलवाया और कहा कि आपके गुरु के पास समय बहुत कम है और छठे दिन
बाद परमहंस ने स्वामी विवेकानंद की गोद में शरीर छोड़ दिया।
***
रामकृष्ण परमहंस
जन्म : 18 फरवरी 1836, कामारपुकुर, बंगाल
वास्तविक नाम : गदाधर चट्टोपाध्याय
पिता : खुदीराम चट्टोपाध्याय
माता : चन्द्रा देवी चट्टोपाध्याय
पत्नी : शारदामणि मुखोपाध्याय
गुरु : भैरवी ब्राह्मणी (तंत्र साधना) एवं तोतपुरी महाराज (वेदान्त की दीक्षा)
प्रमुख शिष्य : नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद), राखाल चंद्र (स्वामी
ब्रह्मानंद)
मृत्यु : 16 अगस्त 1886 (उम्र 50 वर्ष)
उपाधि : परमहंस
***
संदर्भ ग्रंथ
1. रामकृष्ण परमहंस, रोमां रोलां
(अनुवादक-धनराज विद्यालंकार)
2. रामकृष्ण परमहंस, संतराम वत्स्य
3. योगियों का जीवन परिचय, डॉ. सोमवीर
आर्य, प्रो. धर्मवीर सलोनी
4. श्री श्री रामकृष्ण परमहंस कथामृत-5
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