उत्तर-दक्षिण के सेतु : बालशौरि रेड्डी
प्रो. अमरनाथ
“अहिन्दी शब्द से मुझे घृणा है। मैं हिन्दी का लेखक हूँ, यह कहने में मुझे गर्व महसूस होता है। जब मैं हिन्दी में लिखता हूँ तो हिन्दी का लेखक होता हूँ। इसका मेरी मातृभाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। बार-बार हमें अहिन्दी या हिन्दीतर कहकर अपमानित करने की चेष्टा की जाती है। मुझे यह असह्य है। मेरे कृतित्व के आधार पर आप मुझे छोटा या बड़ा लेखक निर्धारित कीजिये। यदि मेरी रचना में त्रुटि है तो सम्यक अवलोकन करने के पश्चात् अपने विचार दें। यदि हिन्दी भाषी लोग तेलुगू में लिखते हैं, तो उनको मैं अतेलुगू रचनाकार नहीं कहूँगा। मैं गर्व से कहूँगा कि मेरी भाषा के लेखक हैं।” ( अवधेन्द्र प्रताप सिंह से हुई एक बातचीत में बालशौरि रेड्डी का कथन )
बालशौरि रेड्डी ( 01-07-1928 – 15-09-2015)
अपनी चेन्नई यात्रा के दौरान मैं बालशौरि रेड्डी ( 01-07-1928
– 15-09-2015)
के आवास पर उनसे मिलने गया था। साथ में प्रख्यात साहित्यकार और अनुवादक एम। शेषन
भी थे। मैं शेषन जी के यहाँ ही ठहरा था और
उनका आतिथ्य पाकर गद्गद था। बालशौरि
रेड्डी ने अपने घर में सजाकर रखे गए प्रशस्ति पत्रों,
मान-पत्रों, स्मृति चिह्नों, उपाधियों आदि के विशाल भंडार को हमें दिखाया। उन सबका परिचय देने के साथ लगातार आत्म-श्लाघा
करते हुए वे थक नहीं रहे थे और हम ऊबने लगे थे। वहाँ जाने से पूर्व उनके प्रति मेरे मन में जो
श्रद्धा थी वहाँ से लौटते वक्त उसमें कमी आ गई थी। आत्म-श्लाघा करने वाले लोग मुझे अच्छे नहीं लगते।
लेकिन बाद में मुझे लगा कि सुदूर दक्षिण का एक व्यक्ति
विपरीत परिस्थितियों में बिना किसी बैसाखी के सहारे हिन्दी सीखकर,
हिन्दी भाषी साहित्यकारों से यदि होड़ करने का सामर्थ्य
रखता है,
उन्हें चुनौती देता है, ‘चंदामामा’ जैसी बच्चों की पत्रिका का दो दशक से भी अधिक समय
तक संपादन करके अपने संपादन कला की धाक जमा सकता है, कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद् के निदेशक के पद का भी गरिमा
के साथ निर्वाह करता है, उसके भीतर यदि आत्म-श्लाघा का भाव दिखाई दे तो उसे हमें उसका गौरवबोध समझना
चाहिए। कमजोरी उनकी नहीं,
मेरी अपनी समझ की थी।
उन्होंने बातचीत
में मुझे भी अपने साथ घटी वह चर्चित कहानी सुनाई थी जिसके कारण हिन्दी के प्रति
उनका प्रेम जागृत हुआ था। उन्होंने बताया
कि 1946 में ‘हिन्दी प्रचार सभा’ के रजत जयंती के अवसर पर महात्मा गाँधी मद्रास आए थे। इसी सभा में युवक बालशौरि रेड्डी भी शामिल हुए
थे। उस समय यह चर्चा थी कि पाँच-पाँच
रूपये में गाँधीजी लोगों को अपना ऑटोग्राफ दे रहे हैं। दरअसल वे इसी बहाने हिन्दी के प्रचार के लिए धन-
संग्रह कर रहे थे। सबकी तरह बालशौरि
रेड्डी ने भी ऑटोग्राफ लेना चाहा। उन
दिनों पाँच रूपये खर्च करना आसान नहीं था। बालशौरि सामान्य किसान परिवारक के थे। उन्होंने पाँच रूपए देकर गाँधी जी का ऑटोग्राफ
तो ले लिया किन्तु वे उसे पढ़ भी नहीं सकते थे। गाँधीजी ने हिन्दी में मो. क. गाँधी लिख दिया था।
बालशौरि को इस बात का मलाल था कि पाँच
रूपए खर्च करके लिया गया गाँधीजी का ऑटोग्राफ न तो वे स्वयं पढ़ सकते थे और न उनके
गाँव का ही कोई व्यक्ति पढ़ सकता था। ऑटोग्राफ के अक्षर भी इतने गंदे थे कि बालशौरि
को लगा कि कोई विश्वास ही कैसे करेगा कि ये अक्षर गाँधीजी के हैं ?
सभा का उद्घाटन हुआ। गाँधीजी अपना भाषण देने के लिए आगे आए। उन्होंने कहा, ‘बहुत जल्द हिन्दुस्तान आजाद होने जा रहा है। हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हिन्दी होगी। मैं युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ कि वे अभी से
हिन्दी सीखें ताकि हिन्दुस्तान के आजाद होते ही सारा राजकाज हिन्दी में कर सकें। अंग्रेजी विलायत की भाषा है। वह कदापि हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। ‘
गाँधीजी के ये शब्द बालशौरि के कानों में गूँजने लगे। उन्हें गाँधीजी का यह संदेश मंत्र जैसा प्रतीत
हुआ। उन्होंने गाँधीजी द्वारा हिन्दी में
दिए गए ऑटोग्राफ के संकेत को समझ लिया और वहीं ‘हिन्दी’ सीखने का प्रण ले लिया। उसी दिन से हिन्दी उनकी जीवन-यात्रा का पाथेय बन
गई।
बालशौरि रेड्डी का जन्म आंध्र प्रदेश के कड़पा जिले के
अंतर्गत गोल्लल गुडूर नामक छोटे-से गाँव में एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ
था। उनकी प्राथमिक शिक्षा उनके गाँव में
ही हुई। राष्ट्रभाषा हिंदी की शिक्षा
प्राप्त करने के लिए वे उत्तर भारत आ गए और बिहार के देवघर विद्यापीठ में
राष्ट्रभाषा हिंदी का अध्ययन करने लगे। सन् 1948 में उन्होंने काशी विद्या केंद्र से ‘साहित्यालंकार’ की उपाधि प्राप्त की। 1948 में जब वे वाराणसी में थे, तभी उनकी पहली रचना ‘ग्राम संसार’ में छपी। उस समय ‘ग्राम
संसार’ के संपादक थे पं. काशीनाथ उपाध्याय ‘भ्रमर’। दक्षिण
लौटने के बाद उन्होंने ‘किन्नेरा’, ‘आंध्रप्रभा’,
‘नेलवंका’
इत्यादि पत्रिकाओं में लिखना आरंभ किया। उनकी रचनाएँ पाठकों द्रारा सराही जाने लगीं और
उनका उत्साह बढ़ता गया।
पुस्तक के रूप में बालशौरि रेड्डी की पहली पुस्तक ‘पंचामृत’
नाम से 1954 में प्रकाशित हुई। इस रचना के माध्यम से उन्होंने तेलुगु के पाँच
युगप्रवर्तक मनीषियों की साहित्य-सेवा का परिचय दिया था। पंचामृत के प्रथम 50 पृष्ठों में उन्होंने हिन्दी-भाषियों को आंध्र-प्रदेश के
साहित्य और संस्कृति से भी परिचित कराया। 1956 में ‘पंचामृत’ पुस्तक के लिए भारत सरकार के शिक्षा विभाग से दो हजार रुपए
का पुरस्कार प्राप्त हुआ और उसी वर्ष उसी पुस्तक के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से तीन
सौ रुपए का पुरस्कार मिला। इस विषय में
अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए रेड्डीजी ने बताया,
‘‘क्योंकि पहली बार भारत सरकार
द्वारा आयोजित पुरस्कार आयोजन के अंतर्गत हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों के साथ मुझे
पुरस्कार प्राप्त हुआ था, इसलिए मेरी लेखकीय जिम्मेदारी और बढ़ गई। पाठक मुझसे स्तरीय लेखन की अपेक्षा अवश्य करेंगे।
उनके विश्वास को बनाए रखना मेरा नैतिक
दायित्व होगा, इस
कारण मैंने छप्पन के बाद जो कुछ लिखा, सोच-समझकर लिखा और उत्तम साहित्य-सृजन करने की प्रबल
अकांक्षा से लिखा। ‘‘
उपन्यासकार के रूप में रेड्डीजी को अधिक सफलता मिली है। ‘शबरी’, ‘जिन्दगी की राह’, ‘यह बस्ती के लोग’, ‘भग्न सीमाएँ’, ‘बैरिस्टर’, ‘प्रकाश और परछाई’, ‘स्वप्न और सत्य’, ‘लकुमा’, ‘धरती मेरी माँ’, ‘प्रोफेसर’, ‘वीर केसरी’ और ‘दावानल’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं। इनमें से ज्यादातर उपन्यास ऐतिहासिक और सामाजिक
विषयों पर लिखे गए हैं।
लंबे समय से राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा करने वाले रेड्डीजी
ने अपने प्रदेश की भाषा तेलुगू को भी उपेक्षित नहीं किया। उन्होंने भारतवासियों को तेलुगू साहित्य से
परिचित कराने के उद्देश्य से तेलुगू की अनेक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया है।
इनमें ‘तेलुगू की लोककथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘सत्य की खोज’, ‘तेनालीराम के लतीफे’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘आदर्श जीवनियाँ’, ‘आयुक्त माल्यदा’, ‘दक्षिण की लोककथाएँ’ और ‘तेनालीराम की कहानियाँ’ प्रमुख हैं। ये सारी रचनाएँ
बाल-साहित्य से संबंधित हैं, जबकि संस्कृति एवं साहित्य से संबंधित रेड्रडीजी की
पुस्तकें हैं, ‘पंचामृत’,
‘आंध्र भारती’,
‘तेलुगु साहित्य का इतिहास’,
‘तमिलनाडु’,
‘कर्नाटक’,
‘वीरेश लगम पंतुलु’
(संक्षिप्त जीवनी) और ‘तेलुगु साहित्य के निर्माता’ आदि। इनकी अधिकांश
कृतिय़ों का एकाधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ
है। उदाहरणार्थ उनकी हिन्दी में लिखी
कहानी ‘चाँदी का जूता’ का प्रकाशन पहली बार कहानी की मशहूर पत्रिका ‘सारिका’ में
हुआ और बाद में उसका अनुवाद उर्दू, मराठी, कन्नड़, डोगरी, गुजराती, मलयालम, तमिल तथा तेलुगू में भी हुआ। उनकी मान्यता थी कि देश का भविष्य बच्चों के
बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर करता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने
अपने अधिकांश साहित्य का सृजन किया है।
उन्होंने तेलुगू और हिन्दी दोनों में समान रूप से लेखन
कार्य किया है। तेलुगू में भी उपन्यास,
नाटक, कहानी और संस्कृति तथा बाल मनोविज्ञान आदि से संबंधित
विषयों पर उनकी कई पुस्तकें है और उनकी लगभग सभी श्रेष्ठ तेलुगू की कृतिय़ाँ हिन्दी
में भी अनूदित हैं।
रेड्डीजी ने 23 वर्ष तक बच्चों की मशहूर पत्रिका ‘चंदामामा’ का संपादन किया।
1966 में उन्होंने इस पत्रिका के संपादन का दायित्व सँभाला। उनके
संपादन काल में इस पत्रिका की प्रसार संख्या पचहत्तर हजार से बढ़कर एक लाख सरसठ
हजार तक पहुँच गई थी। वे ‘भारतीय भाषा परिषद्’ कोलकाता के निदेशक भी रहे। हिन्दी साहित्य
में उनके योगदान से न केवल उनका हिन्दी-प्रेम झलकता है,
बल्कि राष्ट्रप्रेम भी। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में
उन्होंने चेन्नई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया और तमिलनाडु हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष
रहे।
रेड्डीजी का मानना है कि सर्जनात्मक लेखन को स्तरीय बनाने
में प्रकाशकों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनका कहना है कि अधिक धन कमाने के लिए सेक्स,
जासूसी, अपराध, विद्रोह, आतंक आदि सामाजिक विकृतियों से पूर्ण साहित्य का प्रकाशन
करके बाज़ार भरा जा सकता है और पाठकों की दुर्बलताओं को भड़काकर स्वार्थ सिद्ध किया
जा सकता है, लेकिन
इन रचनाओं से साहित्य का कल्याण नहीं हो सकता।
बालशौरि रेड्डी के जीवन और साहित्य पर गाँधीजी का गहरा
प्रभाव है। वे मानते हैं कि “सत्य, अहिंसा, परोपकार मानव के शाश्वत मूल्य है। गाँधीजी ने जीवन भर इनका दृढ़ता से पालन किया है।
इन बातों का सहज ही मुझ पर प्रभाव पड़ता
रहा। फलत: साहित्य के माध्यम से मैंने
निश्चय ही इन्हीं मूल्यों को रेखांकित करने की कोशिश की है। ” ( अवधेन्द्र प्रताप
सिंह से हुई बातचीत के एक अंश से)
हिंदी प्रचार-प्रसार में बालशौरि रेड्डी का योगदान
उल्लेखनीय है। राष्ट्रीयता की भावना उनमें
कूट-कूट कर भरी थी। नेताओं की कथनी और
करनी में अंतर देखकर वे चिंतित हो जाते थे। इसीलिए वे कहा करते थे,
“हमारे राष्ट्रीय नेता तथा शासन
तंत्र से जुड़े हुए लोग मंच पर अथवा हिंदी दिवस, सप्ताह
या पखवाड़े के समारोहों में उत्तेजित स्वर में हिंदी के प्रति जोश प्रकट करते हैं
तथा प्राचीन सांस्कृतिक वैभव का गुणगान करते थकते नहीं। किंतु व्यावहारिक रूप में कार्यान्वयन का जब
प्रश्न उठता है, तब
नाना प्रकार की समस्याओं की दुहाई देकर अपने को अधिक उदार होने की,
प्रशस्ति पाने का नाटकीय अभिनय करते हैं। हमारे यहाँ कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर
दर्शित होता है। ” जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाएँ
बाधक बनती हैं उनकी धारणा को खंडित करते हुए वे कहा करते थे कि “मातृभाषा कभी भी
राष्ट्रभाषा के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती। सभी क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्प हैं जो राष्ट्र रूपी
हार की शोभा बढ़ाते हैं। हिंदी के विकास के
पड़ाव में अंतर्धारा के रूप में मातृभाषा कार्य कर सकती है। ” (http://hindimedia.in September 16, 2015)
भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार
समितियों के सदस्य रह चुके रेड्डीजी में निरंतर उमंग और जोश भरा रहता था। वे खूब यात्राएं करते थे। उनका पूरा जीवन हिन्दी की सेवा में समर्पित था। अपनी यात्राओं और रचनाओं के माध्यम से उन्होंने
दक्षिण और उत्तर को मिलाने का भरपूर प्रयास किया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में,
“रेड्डी जी उत्तर और दक्षिण के बीच
वांग्मय के आदान-प्रदान का श्लाघनीय सेतु निर्माण करने की सक्षम योग्यता रखते हैं।
” ( उद्धृत, नयी
धारा,
प्रो. जी सुंदर रेड्डी, पृष्ठ-20)
उनके निधन के बारे में उनके साथ पारिवारिक रिश्तों से जुड़ीं
गुर्रमकोंड नीरजा ने लिखा है, “चूँकि रेड्डीजी और मेरे पिताजी अच्छे दोस्त थे,
बचपन में तो मैं उनकी गोद में खेली थी। उनकी जिजीविषा इतनी सक्षम थी कि वे दो बार मौत
से जीत चुके थे। संकोच करते हुए रेड्डी जी
के घर फोन किया। उधर से भैया ( उनके
सुपुत्र) ने फोन उठाया और जब मैंने उनसे यह कहा कि, “भैया यह मैं क्या सुन रही हूँ?” तो
उन्होंने कहा, “ठीक
ही सुना है। सुबह 8:30 बजे चाय पी रहे थे और हम सबसे बात करते -करते अचानक ही लुढ़क गए। ” बस इतना
ही कह पाए। उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं। ” ( http://hindimedia। in September 16, 2015)
उनमें गजब की जिजीविषा थी। वे कहा करते थे कि उन्हें सौ साल तक जीना है। वे सौ साल तो पूरा नहीं कर सके किन्तु जब तक जिए पूरी ऊर्जा और कर्मठता के साथ।
प्रो. अमरनाथ
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