गुरुवार, 14 सितंबर 2023

पुरोवाक्

 

प्रो. हसमुख परमार / डॉ. पूर्वा शर्मा

आज का दिवस पूरे भारत के लिए, भारत के प्रत्येक मूक एवं मुखर भाषा प्रयोक्ता के लिए विशेष है, और उसमें भी हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने अथवा किसी-न-किसी रूप में हिन्दी से जुड़े रहने वालों के लिए तो यह दिवस विशेष से भी विशेष। क्योंकि, इनके लिए जहाँ एक तरफ हिन्दी की महिमा एवं गौरव-गरिमा के गायन का यह दिवस है, तो दूसरी तरफ हिन्दी प्रयोग की राह में, हिन्दी विकास के मार्ग में खड़ी बाधाओं, चुनौतियों, मर्यादाओं साथ ही कतिपय सोची-समझी साजिशों से जूझ रही हिन्दी को लेकर चिंता एवं चिंतन को प्रकट करने का दिवस। और इन सब बातों से भी ज्यादा अहमियत आज के दिवस की यह है कि यह दिवस उस संकल्प का दिवस है जिसमें हम पूरे साल अपने वैचारिक व व्यावहारिक दोनों स्तरों पर हिन्दी प्रेमी एवं हिन्दी सेवी बने रहे।

दरअसल चौदह सितंबर, यानी कैलंडर की एक विशेष तिथि को ‘हिन्दी दिवस’, जिसके पीछे की कहानी तथा ऐतिहासिक संदर्भ से तो हम सभी अच्छी तरह से अवगत है ही, परंतु हम यह भी न भूलें कि यहाँ बात सिर्फ़ एक भाषा विशेष ‘हिन्दी’ के ही गौरव-गरिमा-अस्मिता व प्रचार-प्रसार की नहीं है बल्कि संदर्भ ‘राष्ट्रभाषा’ का है, ‘राजभाषा’ का है। अतः इसके साथ हमारी राष्ट्रीयता, हमारी भारतीयता, भारतीय संस्कृति की अस्मिता एवं पूरे हिंदुस्तान के एक स्वर, एक संवेदना और विविधता में एकता को लिए हुए हमारी सभ्यता एवं  सांस्कृतिक वैशिष्ट्य का मुद्दा भी बड़ी मजबूती और गहराई से जुड़ा हुआ है। अतः चौदह सितंबर हमारे ‘राष्ट्रीय पर्वों’ की पंक्ति में आने वाला हम भारतवासियों का एक भाषा उत्सव है। राष्ट्रीय सांस्कृतिक पर्व है । एक भारत, श्रेष्ठ भारत और अनोखा भारत की बुलंद आवाज़ का महोत्सव है।

हिन्दी के प्रति हमारा लगाव, हमारा दायित्व, और इससे भी ऊपर हिन्दी को लेकर हमारा धर्म – हम बखूबी जानते ही हैं और यह स्वाभाविक है, और आज के दिन तो हम इस पर जितना कहे, जितना करें कम ही है। भारतीय भाषाओं में मौजूदा समय में हिन्दी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की सबसे बड़ी भाषा है, जो इसकी महत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण है। परंतु इसके साथ-साथ हम यह भी ध्यान रखें कि आज के दिन और पूरे वर्ष के दरमियान हमारे विचार एवं व्यवहार में अन्य भाषाएँ उपेक्षित न रहें। हम जानते ही हैं कि आज राष्ट्रीय मंच पर जो बड़ी भाषाएँ हैं, वे तीन भाषाएँ हैं – हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत। इनमें संस्कृत हमारे सामाजिक एवं व्यावसायिक व्यवहार एवं गतिविधियों से ज्यादा जुड़ी हुई नहीं है। रही बात हिन्दी और अंग्रेजी की जो आज हमारी राष्ट्रीय स्तर की भूमिका से ज्यादा जुड़ी हुई है।

असल में जब भाषा की आवश्यकता एवं उपयोगिता की बात आती है तो हम ‘त्रिभाषा’ को अहमियत देते हैं। यहाँ त्रिभाषा से हमारा आशय वर्षों पहले सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल किए गए त्रिभाषा फ़ार्मूला की विभावना पर विचार करना नहीं है। यहाँ त्रिभाषा शब्द उस अवधारणा को लेकर बिल्कुल नहीं है, बल्कि यहाँ तो त्रिभाषा से हमारा आशय हमारे सामाजिक, शैक्षिक एवं व्यावसायिक जीवन में जिन तीन भाषाओं की आवश्यकता ज्यादा रही है उन तीन भाषाओं की यहाँ बात है। ये भाषाएँ मतलब – मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाज़ार, व्यवसाय, शिक्षा एवं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की एक बड़ी भाषा अंग्रेजी।

मातृभाषा हमारी बुनियादी पहचान है। हमारी इस ‘ज़मीनी भाषा’, हमें माँ की गोद से प्राप्त इस भाषा के हम उतने ही ऋणी है जितने की हम अपनी माँ के दूध के। राष्ट्रभाषा हिन्दी, जैसा कि हमने बताया हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की भाषा। अतः बहुभाषिकता के चलते तथा क्षेत्रीयता से उबरने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए हिन्दी का और कोई विकल्प हमारे लिए नहीं है। जहाँ तक अंग्रेजी की बात है तो उस ठोस हकीकत को भी हम नज़रअंदाज नहीं कर सकते कि मौजूदा समय में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, हमने पहले यह बताया भी है कि  बाज़ार, शिक्षा, व्यवसाय, ज्ञान-विज्ञान प्रभृति क्षेत्रों में इस अंग्रेजी भाषा का  वर्चस्व बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि इन क्षेत्रों में अंग्रेजी का कोई विकल्प न हो, विकल्प है और यह ‘हिन्दी’ ही है, परंतु एक ऐसी स्थिति भी है जिसमें हम अंग्रेजी को पूरी तरह हटा नहीं सकते, उसे पूरी तरह उपेक्षित नहीं कर सकते, उससे परहेज नहीं कर सकते क्योंकि आज हमारे सामाजिक एवं व्यावसायिक व्यवहार एवं गतिविधियों में अंग्रेजी आवश्यक व उपयोगी है।

अंत में, ‘हिन्दी पर्व’ के दिन, भारत के ‘भाषा पर्व’ के दिन भारतीयों के हिन्दी प्रेम एवं हिन्दी प्रयोग की हम प्रशंसा करते हैं। हमारी ‘राष्ट्रीयता’ एवं ‘भारतीयता’ की प्रतीक हिन्दी के अतीत, वर्तमान व भविष्यत् की कहानी को कहते हुए-सुनते हुए ‘शब्द सृष्टि’ के मौजूदा अंक के प्रकाशन के अवसर पर अपनी लेखनी के सहयोग से हमारे हमसफ़र रहने वाले तमाम हिन्दी सेवियों का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। साथ ही इनसे उम्मीद करते हैं कि अपनी ‘हिन्दी सेवी’ भूमिका को और ज्यादा सक्रिय रखते हुए नयी पीढ़ी को भी इस दिशा में प्रेरित व प्रोत्साहित करें।

अस्तु !

 


डॉ. हसमुख परमार

प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120




डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा  



2 टिप्‍पणियां:

  1. गुरूवर्य आपको नतमस्तक नमन, हिंदी दिवस पर आपके इस जमीनी विचार को सो सो सलाम। चंद शब्दों में आपने गागर में सागर भर दिया। आपके इस विचार में उतनी ही प्रासंगिकता का दिव्य अनुभव हुआ जितना प्रत्यक्ष कॉलेज में पढ़ते समय हुआ करता था। प्रत्यक्ष पढ़ने का तो सौभाग्य अब हमारे पास नहीं रहा पर आज बड़े लंबे समय के बाद आपके इस हिन्दी दिवस पर लिखे गए विचारों ने अंतर्मन को झकझोर दिया। त्रिभाषा पर आपके विचार दिल को छू गए। आज के समय में हिन्दी भाषा के गौरव, अतीत और वर्तमान को देख ने पर पाया जाता है कि हिन्दी भाषा को और गौरवान्वित करने के लिए आप जैसे विचारकों के विचार ही काम आ सकते हैं। आज शिक्षा में राजनीतिक दखल अंदाजी के कारण जितना गौरव हिंदी भाषा को मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाया है पर भारत वर्ष में अब यहीं रास्ता बचा है कि हम सब के साथ सभी को मिल जुलकर हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने में अपना अपना योगदान देना ही पड़ेगा तभी जाकर इस हिन्दी दिवस के शुभ अवसर पर हिन्दी का प्रचार प्रसार बढ़ सकता हैं।

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  2. सुन्दर, सरल हिन्दी में हिन्दी पर बहुत विचारपूर्ण अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई, अभिनंदन 💐🙏

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