शनिवार, 31 दिसंबर 2022

कवि परिचय

 



संत कवि दादूदयाल

डॉ. हसमुख परमार

          हिन्दी के मध्यकालीन भक्तिकाव्य, विशेषतः निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा से संबद्ध काव्य के विकास में संत कवियों का प्रमुख योगदान रहा, अतः आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की जिस शाखा को ज्ञानाश्रयी शाखा कहा उसी को डॉ. रामकुमार वर्मा ने संतकाव्य कहा। वैसे तो संत और भक्त, इन दोनों में कोई मूल अंतर नहीं है, दोनों का आशय एक ही है, परंतु हिन्दी में निर्गुण उपासकों को संत तथा सगुण उपासकों को भक्त कहने की एक रूढ़ि है। लेकिन साथ में यह भी सच है कि इस रूढ़ि का आग्रहपूर्वक पालन भी नहीं होता। कबीर को संत कबीर भी कहते हैं और भक्त कबीर भी। इसी तरह तुलसी के साथ भी संत और भक्त दोनों समान रूप से प्रयुक्त होता है, परन्तु यह स्थिति सूर के साथ नहीं है। विशेषकर निर्गुण उपासकों को संत कहा जाता है और उनकी वाणी को संत काव्य की संज्ञा दी गई है।

          हिन्दी संतकाव्य के विकास में जिन कवियों का योगदान रहा उनमें प्रभावशाली संत कवि के रूप में कबीर का नाम सबसे पहले लिया जाता है। दरअसल हिन्दी में संतकाव्य की एक अविच्छिन्न व व्यवस्थित परंपरा का वास्तविक विकास कबीर से ही माना जाता है। कबीर के अतिरिक्त संतकाव्यधारा के विकास में जिन कवियों का योग रहा उनमें दादूदयाल का नाम भी विशेषतया उल्लेखनीय है। कबीरदास, रैदास, नानकदेव, मलूकदास, सून्दरदास, धर्मदास, सदना, पीपा प्रभृति संतकवियों की तरह दादूदयाल को भी पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई।

          अन्य संतकवियों की तरह दादूदयाल के जीवन के संबंध में भी प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। दादू के जन्म, जाति व गुरु को लेकर अलग-अलग मत प्रचलित हैं। दादू के जीवनवृत्त संबंधी सामग्री उनके शिष्य जनगोपाल द्वारा लिखित ‘श्री दादू जन्मलीला परची’ में मिलती है। किंतु उस सामग्री में ठीक ठीक ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलते । क्योंकि वे जीवनियाँ भक्तों द्वारा श्रद्धाभाव से लिखी गई हैं। दादूपंथ के ही एक और संत राघवदास के भक्तमाल ग्रंथ से भी इस विषय में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं। आधुनिक काल में कुछ अध्येताओं ने दादूदयाल के जीवनवृत्त पर कार्य किया है। डॉ. बडथ्वाल, आचार्य रामचंद्रशुक्ल और परशुराम चतुर्वेदी ने दादू का जन्म 1544 ई. में माना जबकि डॉ. रामकुमार ने दादू का जन्म 1601 ई. बताया है। उनके जन्म स्थान के बारे में भी अलग अलग मत है। दादूपंथ में प्रचलित मान्यता के अनुसार दादू का जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। जन्म वर्ष एवं जन्म स्थल की ही तरह दादूदयाल की जाति के संबंध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान दादू को ब्राह्मण तो कुछ धुनिया बताते हैं। क्षिति मोहन सेन ने अपने ग्रंथ ‘दादू’ में बताया है कि वे ब्राह्मण के पालित पुत्र थे।

          संत कवियों में गुरु का महत्व अधिक रहा है। गुरुमहिमा का वर्णन संत काव्य का एक प्रमुख विषय रहा है। दादू ने भी अपनी वाणी में गुरुमहिमा का गान तो खूब किया है, लेकिन वहाँ उनके गुरु के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। दादू के गुरु कौन थे इस बारे में स्पष्ट व प्रामाणिक जानकारी का अभाव ही है। कतिपय मत देखें-

- दादूदयाल का गुरु कौन था, यह ज्ञात नहीं। पर कबीर का इनकी बानी में बहुत बार नाम आया है औऱ इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उन्हीं के मतानुयायी थे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ. 60)

- दादू के गुरु वृद्ध भगवान थे, जनगोपाल ने ‘जनमलीला परची’ में इस मत का समर्थन किया है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं.डॉ. नगेन्द्र, पृ. 151)

- कुछ लोग इन्हें रामानंद की शिष्य परंपरा में छठवाँ शिष्य मानते है। रामानंद के शिष्य कबीर हुए, कबीर के कमाल, कमाल के जमाल, जमाल के विभव, विभव के पूढ़न। यही पूढ़न दादू के गुरु बताए जाते हैं। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. विजयपाल सिंह, पृ. 98)

- कुछ अन्य अध्येताओं द्वारा दादू के अज्ञात गुरु बुड्ढन या वृद्धानंद बताया जाता है।

दादूदयाल के जीवन तथा उनके देहावसान के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं - ‘‘दादूदयाल 14 वर्ष तक आमेर में रहे, वहाँ से मारवाड़, बिकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए संवत 1659 में नराना (जयपुर से बीस कोस दूर) में आकर रह गये। वहाँ से तीन-चार कोस पर भराने की पहाड़ी है वहाँ भी वे अंतिम समय में कुछ दिनों तक रहे और वहीं संवत 1660 में शरीर छोडा। वही स्थल दादूपंथियों का प्रधान अड्डा है और वहाँ दादू के कपड़े और पोथियाँ अभी तक रखे हैं ।’’

विनम्र स्वभाव, दादू के व्यक्तित्व का एक बड़ा गुण था। उदार मन के इस संत ने अपने पूर्ववर्ती व समकालीन संतों को बडे आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हुए अपनी रचनाओं में उनके प्रति श्रद्धा का भाव प्रकट किया है, विशेषतः नामदेव, कबीर और रैदास तो दादू के आदर्श ही थे।

अमृत राम रसाइण पीया, ताथै अमर कबीरा कीया ।

राम राम कहि राम समाना, जन रैदास, मिली भगवान ।।

अब हम दादूदयाल के साहित्य या रचनाओं पर एक दृष्टिपात करते हैं । कहते हैं कि इस प्रतिभाशाली संत कवि ने हजारों की संख्या में पदों और साखियों की रचना की थी, परंतु उनका समग्र कृतित्व आज उपलब्ध नहीं है। दादू के साहित्य को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय उनके शिष्यों जगन्नाथदास, सन्तदास और रज्जब को दिया जाता है। सन्तदास एवं जगन्नाथदास ने ‘हरडे वाणी’ शीर्षक से उनकी रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत किया । इस संग्रह में अंग विभाजन या विषय विभाजन नहीं है । दूसरी रचना ‘अंगवधू’ का संग्रह दादू के प्रसिद्ध शिष्य रज्जब ने किया जिसमें उन्हों ने रचनाओं का वर्गीकरण करके भिन्न-भिन्न अंगों के अंतर्गत रखा। दादू साहित्य विषयक उपलब्ध संग्रहों में पंडित परशुराम चतुर्वेदी संपादित ‘दादूदयाल’ ज्यादा प्रामाणिक संकलन माना जाता है ।

दादूदयाल की रचनाओं के वस्तुपक्ष का अध्ययन करने से पता चलता है कि उनकी रचनाओं के विषय वही हैं जो संतसाहित्य के सर्वमान्य विषय हैं। जैसे - ईश्वर की व्यापकता, सद्गुरु की महिमा, जात-पाँत का निराकरण, संसार की अनित्यता, आत्मबोध इत्यादि । दादू की बानियाँ अधिकतर कबीर की साखियों से मिलती-जुलती है। दादू के बारे में यह सर्वविदित है कि वे कबीर के विचारों से अत्यधिक प्रभावित रहे । कुछ लोग उन्हें कबीर का अनुयायी मानते हैं । परंतु उनमें कबीर जैसी अक्खडता तथा आक्रमकता बिल्कुल नहीं है। ‘‘संत दादू की विचारधारा कबीर से प्रभावित है । निर्गुण भक्त कवि होने पर भी उन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप को मान्यता दी है। इस प्रकार भक्ति को उन्होंने सहज भाव से अंगीकार किया है, किसी मतवाद की उलझन में वे नहीं पड़े। उनकी भाषा कबीर की अपेक्षा सरल और बोध गम्य है। उनकी वाणी में ओज और गाम्भीर्य दोनों के दर्शन हो जाते है।’’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं.डॉ. नगेन्द्र, पृ. 151-152)

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार ‘‘दादूदयाल की रचनाओं में प्रेमतत्व की व्यंजना अधिक है। घट के भीतर के रहस्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति उनमें बहुत कम है। दादू की बानी में यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की बानी में मिलता है, पर प्रेमभाव का निरुपण अधिक सरस और गंभीर है।’’

भक्त के बारे में दादू बताते हैं कि एक सच्चे भक्त को नम्र, शीलवान और वीर होना चाहिए। दादू के विचार से समाज में सुव्यवस्था तथा जीवन में शांति व संतुलन बनाये रखने में संतों की अहम भूमिका होती है। मानवधर्म ही संत का धर्म होता है। ‘‘दादू के विचार में सच्चा संत अपनी सब चारित्रिक बुराइयों को दूर कर, उन गुणों को धारण करता है जो उसको सर्व दोष रहित ब्रह्म के समान निर्मल औऱ स्वच्छ बना देता है।’’ (हिन्दी भक्तिसाहित्य में सामाजिक मूल्य व अवधारणाएँ, सावित्री चन्द्र, शोभा, पृ. 180)

दादू अवगुण छाड गुण गहै सोई शिरोमणि साधू ।

गुण अवगुण तै रहित है, सो निज ब्रह्म अगाधू ।।

          सामाजिक विषमता, जाति-पाँति, मूर्तिपूजा, बह्याचारों, मिथ्याचारों, आडम्बरों आदि का विरोध दादू ने उग्र भाषा में नहीं किया है। उनमें खण्डन की प्रवृत्ति कम मिलती है। वर्ण व जातिगत भेद दादू की दृष्टि से जन्म के आधार पर नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म और विचार के आधार पर होना चाहिए।

दादू करनी उपरि जाति है, दूजा सोच विचार ।

मैली मध्यम् ह्वै गए, उज्जवल ऊँच विचार ।।

          काव्यभाषा व काव्यकला के लिहाज से संतकवियों की रचनाओं में काफी साम्यता मिलती है। संतों की वाणी में काव्यशास्त्रीय ज्ञान तथा कलात्मक भाषा कौशल के दर्शन कम ही होते है क्योंकि कुछ अपवाद को छोड दें तो ये संत ज्यादा पढ़े लिखे तो थे नहीं। काव्यगुण तथा अन्य काव्यशास्त्रीय संदर्भों की चिंता इन्हें ज्यादा थी भी नहीं, वे तो अपनी अनुभूतियों को पूरे वेग और प्रभाव के साथ व्यक्त करते थे। अन्य संत कवियों की ही तरह दादू काव्य की भाषा बोलेचाल में प्रयुक्त सामान्य हिन्दी का स्वाभाविक रूप है।

सो दिनद कब हूँ आवेगा, दादूडा पिव पावेगा ।

क्यूं ही अपणै अंग लगावेगा, तब सब सुख दुःख जावेगा।

साधु ही नहीं बल्कि सामान्य मनुष्य के लिए भी दादू कहते हैं कि अपने विवेक से सच-झूठ, ज्ञान-अज्ञान की पहचान कर मनुष्य को अपने सद्गुणों के सहारे अपना जीवन जीना चाहिए ।

          दादू साँभर और जयपुर में ज्यादा रहे और वहीं पर उन्होंने ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की । यही ब्रह्म संप्रदाय आगे चलकर ‘दादूपंथ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज भी दादूपंथ राजस्थान तथा उसके आसपास के प्रदेशों में किसी न किसी रूप में जीवित है। दादूदयाल की लम्बी शिष्य-परंपरा में अनेकों शिष्यों का नामोल्लेख मिलता है। गरीबदास, रज्जब, सुंदरदास, जगजीवन, जनगोपाल, संतदास औऱ जगन्नाथ उनके प्रमुख शिष्य थे ।



डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

 

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभावशाली,ज्ञानवर्धक आलेख। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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  2. सरल और सहज अभिव्यक्ति जिससे सामान्य पाठक जन को भी दादू जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से सबंधित समस्त जानकारी मिल सकती है। अदभुत शब्द चयन ने संपूर्ण लेख को अत्यंत ही आकर्षक बना दिया है। सादर अभिवादन 🙏

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  3. दादू के आदर्शों को प्रतिष्ठित करता हुआ आपका लेख बेमिसाल है। लेखन शैली की सरलता और बोधगम्यता उत्कृष्ट कोटि की है।
    सादर प्रणाम 🙏🙏

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