समाजवाद के पुरोधा : डॉ. राममनोहर लोहिया
डॉ. हसमुख परमार
आधुनिक भारतीय समाज तथा राजनैतिक इतिहास
में स्वतंत्रता संग्राम के सशक्त सेनानी, जुझारू नेता एवं प्रखर समाजवादी चिंतक -
विचारक के रूप में विशेष पहचान व प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया
का जन्म 23 मार्च, 1910 को जिला फैजाबाद (उ.प्र.) के अकबरपुर में हुआ था। पिता
हीरालाल और माता का नाम चंदा देवी। प्राइमरी से पीएच.डी. तक की शिक्षा क्रमशः
अकबरपुर, बंबई, बनारस, कलकत्ता तथा बर्लिन की विविध शैक्षिक संस्थाओं से प्राप्त
की। सन् 1932 में बर्लिन विश्वविद्यालय से शोधकार्य कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त
की। अनेक सिद्धांतो, क्रांतियों व लोककल्याण संबंधी कार्यों के प्रणेता डॉ. लोहिया
के व्यक्तित्व की पहचान दादा धर्माधिकारी के शब्दों में –
लोहिया का व्यक्तित्व पाँच सिद्धांतों
से समृद्ध है- मानव करुणा, विरोध करने की अदम्य योग्यता, जनता में विश्वास,
राष्ट्रीय सीमाओं की चिंता किए बिना सतत प्रतिरोध की क्षमता। इसके अलावा उनमें
प्रतिभा और वाद-कौशल भी था। ये सभी विशेषताएँ उन्हें सप्तधातु की मूर्ति का आभास
देती है। (प्रस्तावना से, डॉ. राममनोहर लोहियाः जीवन और दर्शन, इंदुमति केलकर, पृ.
11)
भारतीय राजनीति में समाजवाद की मजबूत ज़मीन
तैयार करने वाले लोहिया जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। सादा जीवन और उच्च विचार,
सदैव कर्मठ, सत्य तथा अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध तथा सतत संघर्ष व विद्रोह
करने वाले, सामाजिक समता के पक्षधर, पूर्णता तथा उच्च लक्ष्य के आग्रही एवं मौलिक
बुद्धिमता के धनी इस महान व्यक्तित्व को विद्वानों ने अपने-अपने नजरिये से देखा
है।
‘‘लोहिया के प्रत्यक्ष संपर्क में आए
लोगों में अनेक विद्वान, लेखक, कलाकार, राजनेता, जज, वकील आदि थे और उन्होंने
लोहिया के व्यक्तित्व को अलग-अलग कोणों से देखा। किसी को उनमें मानवता के महान
गुण-करुणा, सहानुभूति, समता का भाव दिखाई दिया। किसी ने उन्हें अद्भुत विचारक -
चिंतक के रूप में देखा। किसी ने उन्हें अच्छे वक्ता के रूप में देखा।’’ (डॉ.
राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, मस्तराम कपूर, पृ. 19)
महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादी विचारों से
प्रभावित डॉ. लोहिया की स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका रही, जिसके चलते कई बार
जेल गए। 1928 में उन्होंने कलकत्ता में साइमन कमिशन के विरोधी आंदोलन में भाग
लिया। 1934 से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य के रूप में स्वाधीनता संग्राम में विशेष योगदान देने
वाले लोहिया ने 1942 के ‘भारत छोड़ो ’ में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए इस आंदोलन का
भूमिगत रहकर संचालन किया। आजादी के बाद कांग्रेस से बाहर विपक्ष के एक कद्दावर
नेता के रूप में वे क्रमशः सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट
पार्टी से जुडे रहे। 1967 तक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहने वाले लोहिया
जी 1963 से 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे।
डॉ. लोहिया की विचार संपदा असाधारण थी।
भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, साहित्य, कला प्रभृति के गहन अध्ययन व चिंतन
ने उनके मस्तिष्क को सृजनशील बनाया था। उनके चिंतन संबद्ध विषयों में काफी विस्तार
व वैविध्य है। ‘‘मूलतः लोहिया राजनीतिक विचारक, चिंतक और स्वप्नदृष्टा थे, लेकिन
उनका चिन्तन राजनीति तक ही कभी
सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिन्तनधारा की विशेषता थी।
राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, दर्शन, साहित्य, इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी
उनके मौलिक विचार थे।’’ (आमुख से, लोहिया के विचार, सं. ओंकार शरद)
डॉ. राममनोहर लोहिया का लेखन, संपादन व
भाषण उनके दर्शन तथा नीतियों व कार्यों की विस्तृत जानकारी देता है। उनके अंग्रेजी
लेखन का हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। कांग्रेस सोशलिस्ट, जन, मैनकाइंड पत्रों का संपादन।
अनेक पुस्तकों व लेखों में लोहिया ने विविध विषयों से संबंधी अपने विचारों को
व्यक्त किया है। यथा, समाजवादी चिंतन, मार्क्स, गाँधी और समाजवाद, इतिहासचक्र,
जातिप्रथा, विदेशनीति, भारत-चीन और उत्तरी सीमाएँ, राजनीति में फुर्सत के क्षण,
भारत विभाजन के दोषी पुरुष, अंग्रेजी हटाओ, देश-विदेश नीतिः कुछ पहलू, धर्म पर एक
दृष्टि, संसदीय आचरण, हिन्दू बनाम हिन्दू, सिविल नाफरमानीः सिद्धांत और अमल।
साथ ही लोहिया विषयक लेखन-संपादन भी
लोहिया के व्यक्तित्व व चितंन के विविध आयामों से परिचित कराता है। ‘‘लोहिया की
कहानी, उनके साथियों की जबानी। दो खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक के संपादक है-
श्री हरिश्चंद्र तथा उनकी पत्नी पद्मिनी जी। दोनों ने बड़ी मेहनत से जगह - जगह
जाकर लोहिया के नए पुराने साथियों के इन्टरव्यू लिए और उन्हें पुस्तक के रूप में
छापा।’’ ओमप्रकाश दीपक, इंदुमति केलकर, रजनीकांत वर्मा तथा ओंकार शरद ने लोहिया जी
की जीवनी लिखने का सराहनीय कार्य किया। (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में,
पृ. 20)
अन्य पुस्तकें -
लोहिया के विचार (सं. ओंकार शरद), डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में
(मस्तराम कपूर), डॉ. राममनोहर लोहियाः जीवन और दर्शन (इंदुमति केलकर), डॉ.
राममनोहर लोहिया का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (डॉ. प्रयाग नारायण त्रिपाठी), डॉ.
लोहिया का समाजवाद (प्रो. रामगोपाल यादव), डॉ. राममनोहर लोहिया-समाजवाद का
पुनरावलोकन (प्रीति सिंह), लोहिया (एक प्रामाणिक जीवनी-ओंकार शरद), गाँधी,
आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ (डॉ. रामविलास शर्मा), डॉ. लोहिया
और उनका जीवन दर्शन (कुमार मुकुल), डॉ. राममनोहर लोहिया का आर्थिक चिंतन (डॉ. जी.एल.प्रजापति, डॉ. अशोक कुमार)
प्रगतिशील सोच के पर्याय डॉ. लोहिया ने
जातिभेद, स्त्री-पुरुष असमानता, रंगभेद, सांप्रदायिक वैमनस्य जैसी सामाजिक समस्याओं
का सख्त विरोध करते हुए उन पर कड़ा प्रहार किया। भारतीय समाजवादी आंदोलन के
कीर्तिस्तंभ लोहिया ने मार्क्स और गाँधी की विचारधारा में अपनी दृष्टि से कुछ
संशोधन करके भारतीय परिवेश के अनुसार समाजवाद का एक नया स्वरूप प्रस्तुत किया,
जिसे समाजवाद का नवदर्शन कहा जाता है। ‘‘1952 में सोशलिस्ट पार्टी के पंचमढी
सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए लोहिया ने जो भाषण दिया, उसे बाद में भारत में
समाजवाद की ‘नई सैद्धांतिक नींव के रूप में देखा और माना गया। इस सम्मेलन के पहले
तक सोशलिस्ट पार्टी का जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो रूप था, वह कट्टर
मार्क्सवादी था। लोहिया ने ऐलान किया कि वह न मार्क्सवादी है और न ही गाँधीवादी और
साथ-साथ यह भी कहा कि वह न मार्क्स विरोधी है और न ही गाँधी विरोधी।’’
(आलेख-गाँधी-लोहिया और आधुनिक सभ्यता, किशन पटनायक, अंतिमजन पत्रिका,
नवम्बर-दिसम्बर-2021, पृ. 18)
समाजवाद से आशय,
लोहिया जी की दृष्टि से-
· समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं- समता
और सम्पन्नता..... इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित हैः देशकाल के
अनुसार सम्भव मतलब और आदर्श के अनुसार सम्पूर्ण मतलब।
· ऊँचों के बारे में क्रोध भी समाजवाद नहीं है और नीचे के
बारे में अलगाव भी। शोषण के विरोध में क्रोध और छोटों के प्रति करुणा का नाम
समाजवाद है।
यूरोपीय समाजवाद को ऐशियाई देशों के लिए उपयुक्त न मानने वाले लोहिया ने
ऐशियाई समाजवाद की विभावना को प्रस्तुत किया।
समाज में समानता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को विशेष महत्व देने वाले लोहिया
के चिंतन व उनके द्वारा किए गए कार्यों में सप्तक्रांति दर्शन विशेष उल्लेखनीय रहा
है। डॉ. लोहिया के सप्तक्रांति कार्यक्रम में (1) स्त्री-पुरुष समानता (2) रंगभेद
को खत्म करना (3) जन्म और जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करना (4) विदेशी जुल्म को
खत्म करना (5) आर्थिक असमानता मिटाना (6) हथियारों के इस्तेमाल पर रोक और सिविल
नाफरमानी के सिद्धांत का समर्थन (7) निजी आजादी पर होने वाले आघात का मुकाबला
करना।
किसी व्यक्ति का समाज में
महत्व व प्रतिष्ठा उसके जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म पर आधारित हो। इस बात के प्रबल
समर्थक डॉ. लोहिया जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए आजीवन सक्रिय रहे।
· जो समूह और जातियाँ तिरस्कृत हैं उन्हें विशेष रूप से और
सहाय देकर उठाना होगा।
· आर्थिक गैर बराबरी और जाति-पाँति जुड़वा राक्षस हैं.....
और अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है।
डॉ. लोहिया के समाजवादी आंदोलन के अंतर्गत विविध कार्यक्रमों में जातितोडो
कार्यक्रम भी महत्वपूर्ण था। जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए उनकी एक विशेष नीति
रही। ‘‘समाजवादी आंदोलन में लोहिया संभवतः अकेले व्यक्ति थे जो जाति की समस्या के
प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। उनका मानना था कि जातिप्रथा हमारी लम्बी गुलामी का एक बड़ा
कारण रही है। अपनी पुस्तक ‘जातिप्रथा’ में उन्होंने जातिप्रथा का जो सम्यक विवेचन
किया, वह एक प्रकार से डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘जातिप्रथा का विनाश’
का अगला चरण था।’’ (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, पृ. 134)
लोहिया जी का मानना था कि
जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए आर्थिक बराबरी का होना जरूरी है। जातिप्रथा के
खिलाफ लडाई घृणा व आक्रोश से नहीं बल्कि विश्वास के माहौल में होनी चाहिए।
स्त्री-पुरुष समानता तथा
स्त्रियों को आत्मनिर्भर होने की बात करने वाले डॉ. लोहिया ने अपने समय में स्त्री
सशक्तिकरण के संबंध में बहुत ही क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए। भारतीय स्त्री के
समक्ष द्रौपदी के पात्र का आदर्श रखते हुए वे कहते हैं-
भारतीय नारी द्रौपदी जैसी हो, जिसने कि कभी भी किसी पुरुष
से दिमागी हार नहीं मानी। नारी को गठरी के समान नहीं बल्कि इतनी शक्तिशाली होनी
चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना अपने साथ ले चले।
स्त्री-स्वतंत्रता के बड़े हिमायती लोहिया के विचार से-
‘‘आधुनिक पुरुष स्त्री को एक ओर सजीव, क्रान्तिपूर्ण और
ज्ञानी चाहता है, दूसरी और अधीनस्थ भी। पुरुष की यह परस्पर विरोधी भावनाएँ बहुत ही
विडम्बनापूर्ण, काल्पनिक एवं अवास्तविक है। क्योंकि परतंत्रता की स्थिति में ज्ञान
व सजीवता का प्रार्दुभाव कैसे वह कर सकता है। या तो औरत को बनाओ परतंत्र, तब मोह
छोड दो। औरत को अच्छा बनाने का। या फिर बनाओ स्वतंत्र। तब वह बढ़िया होगी, जिस तरह
से मर्द बढ़िया होगा।’’
लोहिया की राजनीति तथा उनके समाजवादी चिन्तन में उनकी अर्थनीति अनिवार्य रूप
से जुड़ी हुई थी। कुछ महान अर्थशास्त्रियों की तरह उनका भी मानना था कि विकास की
पहचान महज़ आर्थिक वृद्धि और धन-संपत्ति का संचय नहीं परंतु मनुष्य अपनी मूलभूत
जरूरतों को पूरा कर अपने जीवन को बेहतर बना सके।
‘‘आजाद हिन्दुस्तान की राजनिति में सिर्फ लोहिया ही अकेले नेता थे जिनके एजंडे
में भारत की अर्थव्यवस्था और समाज के पश्चिमीकरण की योजना का मुकाबला करने और उसका
प्रतिकार करने के लिए जनता को एकजुट करने का हठीला आग्रह था। ‘छोटी मशीनें’ और ‘छोटे
उद्योग’ जैसे आर्थिक शब्द और पद लोहियाने गढे। ‘विकेन्द्रीकरण’ शब्द के चलन को
उन्होंने लोकप्रिय बनाया।..... ‘‘हम अमेरिका और रूस की बृहतकार मशीनें नहीं चाहते
और न ही प्राचीन भारत के जीर्ण उपकरण, न स्वचालित कीघा और न ही चरखा, हम तो बिजली
द्वारा चलाए जाने वाली छोटी इकाई वाली मशीन चाहते हैं। हम महात्मा गाँधी का प्रेत
नहीं, उनके सिद्धांत चाहते हैं।’’ (अंतिम जन-पत्रिका, नवम्बर-दिसम्बर-2021, पृ.
22)
लोहिया का स्पष्ट कहना था कि देशवासियों की रोजी रोटी संबंधी समस्या को हल
करना सरकार का प्रमुख कार्य है। राजनीति का अर्थ और प्रमुख उद्देश्य लोगों का पेट
भरना है। टेक्नोलोजी के विषय पर लोहिया के विचार अंततः गाँधी के विचारों से ही मेल
खाते हैं। उनकी अर्थनीति में खेतिहर भूमि के पुनर्वितरण, उद्योगों की दृष्टि से
आर्थिक विकेन्द्रीकरण तथा बडे उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्योगों को महत्व जैसे
मुद्दों को देखा जा सकता है।
डॉ. लोहिया के राजनीतिक विचारों में- ग्राम, मंडल, प्रांत एवं केन्द्र ये चार
राजनीतिक व्यवस्था के मुख्य आधार और इन चारों का परस्पर घनिष्ठ संबंध, एक दूसरे के
विकास में भागीदार। चौखंभा योजना में इन चारों को समान महत्व। प्रत्येक व्यक्ति के
मौलिक अधिकारों को ज्यादा महत्व देने वाले लोहिया जी का मानना था कि व्यक्ति के
सर्वांगीण विकास के लिए ये अधिकार बहुत जरूरी। इन अधिकारों में- ‘‘बौद्धिक
स्वतंत्रता का अधिकार, अन्यायपूर्ण कानूनों के विरोध का अधिकार पर ये विरोध
अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण ढंग से होना चाहिए। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, समता
का अधिकार।’’
लोहिया के भाषाई चिंतन की मूल जमीन उनके द्वारा चलाया गया अंग्रेजी हटाओ
आंदोलन था। अंग्रेजी का विरोध करते हुए लोहिया जी ने देशी भाषाओं को विशेष तवज्जो
दिया। इनकी भाषानीति का मूल स्वर था कि मातृभाषाएँ - प्रांतियभाषाएँ शिक्षा का
माध्यम बने और जीवन व समाज के विभिन्न क्षेत्रों में इन भाषाओं को विशेष दर्जा
मिले। अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग तथा अनिवार्यता का उन्होंने सख्त विरोध किया।
लोहिया की अंग्रेजी विरोधी इस नीति की कई अंग्रेजी प्रेमियों द्वारा काफी निंदा की
गई। ‘‘लोहिया और उनकी सोशलिस्ट पार्टी ने अंग्रेजी का विरोध कर अंग्रेजी जानने
वाले प्रबुद्ध वर्ग के सारे आक्रमण और व्यंग्यबाणों को झेला। लोहिया की भाषानीति
को समझने वाले और उसकी प्रशंसा करने वाले गाँधिवादियों और साहित्यिक व्यक्तियों की
संख्या इतनी कम थी कि उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है।’’ (वही)
दरअसल अंग्रेजी जानने-सिखने व बोलने-लिखने को लेकर लोहिया को आपत्ति नहीं थी।
वे स्वयं बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते थे। अंग्रेजी में लिखते भी थे। मैनकाइंड जैसी
अंग्रेजी पत्रिका का उन्होंने संपादन किया। उनका अंग्रेजी विरोध विशेषतः दो बातों
को लेकर था। एक – यदि अंग्रेजी लोगों पर ज्यादा हावी हो गई तो उनकी अपनी भाषाएँ
गौण हो जाएगी। लोहिया जी का मानना था कि अंग्रेजी विदेशी भाषा होने के नाते देश को
नुकसान नहीं पहुँचा रही बल्कि सत्ता में एक छोटे समुदाय का इस भाषा में कुशलता
प्राप्त कर यह एक सामंती वातावरण पैदा करती है। साथ ही सरकारी कामकाज में अंग्रेजी
के प्रयोग से देश के विशाल जनसमुदाय की प्रजातंत्र में शत प्रतिशत भागीदारी संभव
नहीं है। अंग्रेजी को सामंती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग से आम जनता को होने वाले
नुकसान की ओर संकेत किया।
‘‘अंग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुँचा रही है कि वह
विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामन्ती है। आबादी का सिर्फ एक
प्रतिशत छोटा सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे
सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जन
समुदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है अंग्रेजी।’’ (लोहिया के विचार, सं.
ओंकार शरद, पृ. 135)
अंग्रेजी की अपेक्षा अपनी रीजनल लैंग्वेज को ही ज्यादा महत्व देते हुए लोहिया
जी ने हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग पर विशेष बल
दिया। उनका अधिकांश लेखन - चिंतन अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में हुआ। ‘‘हिन्दी
भाषा को तो उन्होंने सैकडों नए शब्द दिए। हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता में उनका
योगदान भी अदभुत है। कई-कई घंटे लगातार भाषण करने पर भी वे अंग्रेजी शब्दों का
इस्तेमाल नहीं करते थे। वे राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान आदि जटिल अभिव्यक्तियों
को भी हिन्दी में सरल बनाकर पेश करते थे। वे गणित, भौतिकी, रसायन आदि सभी विज्ञान
विषयों तथा मानविकी के विषयों की शिक्षा हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के माध्यम से
देने की वकालत करते थे।’’ (डॉ. राममनोहर लोहियाः वर्तमान संदर्भ में, मस्तराम
कपूर)
धर्म के संबंध में काफी उदार दृष्टिकोण रखने वाले लोहिया जी सर्वधर्म समभाव पर
आधारित धर्म निरपेक्ष राज्य के समर्थक रहे। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को विशेष
महत्व देते हुए धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
वे सदैव विविध धार्मिक संप्रदायों में एकता पर बल देते थे। न्याय, उदारता और
दृढ़ता से लोहिया विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के लोगों में परस्पर वैमनस्य के
कारणों को ढूंढते और उसके समाधान हेतु प्रयत्नशील रहे।
मेरा बस चलता तो मैं हर हिन्दू को सिखलाता कि रजिया, जायसी,
शेरशाह, रहिमन उनके पुरखे हैं। उसी समय हर मुसलमान को सिखाता कि गजनी, गोरी और
बाबर उनके पुरखे नहीं, बल्कि हमलावर हैं। - लोहिया
भारत की भव्य संस्कृति तथा यहाँ के धार्मिक प्रतीकों से
अत्यधिक प्रभावित लोहिया अपने एक लेख में राम, कृष्ण तथा शिव के संबंध में लिखते
हैं- ‘‘हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म
और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’
उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में लगने वाले रामायण मेला की परिकल्पना लोहिया जी ने की
थी।
कार्ल मार्क्स, महात्मा गाँधी, अम्बेडकर आदि महान चिंतकों के चिंतन से साहित्य
जगत विशेष प्रभावित रहा। इन महान चिंतकों की पंक्ति में लोहिया का नाम भी लिया
जाता है। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कई साहित्यकार लोहिया चिंतन से प्रभावित
रहे। हिन्दी में इलाहाबाद का परिमल ग्रुप तथा इसके बाहर के अनेकों नाम मिलते हैं
जिन्हें लोहिया से प्रभावित कहा जा सकता है। ‘‘हिन्दी के अलावा असमिया के वीरेंद्रकुमार
भट्टाचार्य, कन्नड के स्नेहलता रेड्डी, मराठी के आचार्य अत्रे, विजय तेंदुलकर,
तेलुगु के पट्टाभिराम रेड्डी आदि जो लोहियावादी लेखक कहे जा सकते हैं।’’ (वही)
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोहिया ने अपने दर्शन व कार्यों से पीडित, शोषित,
दलित, पिछडे समाज तथा युवा वर्ग में आत्मविश्वास, बल, तेज जैसे गुणों को पैदा करने
का ऐतिहासिक व सराहनीय कार्य किया। उनका मानना था कि ‘‘आज मेरे पास कुछ नहीं है
सिवाय इसके कि हिन्दुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि मैं शायद उनका आदमी
हूँ।’’ अपने विचारों व मान्यताओं पर दृढ़ रहने वाले लोहिया को पूरा विश्वास था
कि उनकी बातें लोग जरूर सुनेंगे। ‘‘लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के
बाद, लेकिन किसी दिन सुनेगें जरूर।’’
वर्तमान सामाजिक जीवन तथा राजनीतिक व आर्थिक स्थिति से जुड़ी कई समस्याओं का
समाधान लोहिया दर्शन में मिल सकता है। उनका चिंतन उनके समय में जितना प्रासंगिक
था, उतना ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा आज के समय में भी सार्थक व प्रासंगिक कहा जा
सकता है।
अंत में डॉ. वीरेन्द्रसिंह
यादव के शब्द - ‘‘आज डॉ. लोहिया जी के एक-एक शब्द न केवल भारतीय राजनैतिक मानचित्र
पर सही उतर रहे हैं बल्कि विश्व के रंगमंच पर जो कुछ घट रहा है उसमें डॉ. लोहिया
जी की दृष्टि समाहित है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भारत के समाजवादी आन्दोलन
में डॉ. राममनोहर लोहिया का एक विशिष्ट स्थान रहा है। भारत की राजनीति में
परिवर्तन की पहल डॉ. लोहिया ने ही की थी। आदर्श को कोरेपन से मुक्त करके उसे
व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए सारा देश उनका ऋणी रहेगा। लोहिया के विचारों
में भारतीय के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियों के बुनियादी कर्तव्यों की सर्वथा
मौलिक शक्ति दिखाई देती है। डॉ. नीलम संजीव रेड्डी (पूर्व राष्ट्रपति) के शब्दों
में कहे तो ‘इस देश में अनेक नेता हुए, लोहिया केवल एक हुआ।’’ (‘कृतिका’ पत्रिका
जनवरी - जून-2019 आलेख- डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों की प्रासंगिकता, डॉ.
वीरेन्द्रसिंह यादव, पृ. 195)
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
पीएचडी कोर्सवर्क में पेपर २(हिंदी साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि) से मुझे राम मनोहर लोहिया किस वाद से जुड़े हुए हैं ? प्रश्न किया गया था और में कंफ्यूज हो गई थी , पर सही जवाब दिया था । इस ब्लॉग में जो राम मनोहर लोहिया जो समाजवाद के पुरोधा हैं , उनकी बहुत ही सारगर्भित माहिती दी हैं , इससे समाजवाद को बहुत ही आसानी से समझा जा सकता हैं। बहुत बहुत शुभकामनाएं सर 💐💐💐
जवाब देंहटाएंરામ મનોહર લોહિયા વિશે ખૂબ જ ઊંડાણ પૂર્વક સરસ માહિતી મળી આભાર સર 🙏
जवाब देंहटाएंसमाजवाद के पुरोधा डॉ राममनोहर लोहिया के ऊपर लिखे हुए इस ब्लॉग के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं, 💐💐💐🙏🙏
जवाब देंहटाएंडॉ. हसमुख परमार सर के इस आलेख से न केवल लोहिया जी के व्यक्तित्व की अपितु उनके विचारों की प्रासंगिकता भी दृष्टिगत होती है। ऐसे ही विचारधाराओं की सुदृढ़ता नींव स्वरूप युगों युगों तक समाज को विकासशील बनाने में सहायता प्रदान करते हैं। -रूपल उपाध्याय
जवाब देंहटाएंडॉ हँसमुख परमार सर ने अपने इस आलेख में लोहिया और समाजवाद का सार्थक विश्लेषण किया है हम सबके लिए वेहद उपयोगी आलेख है। आज जरूरत है लोहिया के समाजवाद को पुनः व्याख्यायित करने की जिसकी पहल आदरणीय सर द्वारा की गई।
जवाब देंहटाएं(आशकिरण)
डॉ. राममनोहर लोहिया व्यक्तित्व और कृतित्व संसार का परिचय दिया । महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्हों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया था।लोहिया के विचार, डॉ. राममनोहर लोहियाः जीवन और दर्शन,, डॉ. राममनोहर लोहिया का आर्थिक चिंतन आदि उनकी किताबों के नाम हैं।डॉ. लोहिया ने जातिभेद, स्त्री-पुरुष असमानता, रंगभेद, सांप्रदायिक वैमनस्य जैसी सामाजिक समस्याओं का सख्त विरोध करते हुए उन पर कड़ा प्रहार किया।डॉ. लोहिया के समाजवादी विचारधारा समार्थक थे।डॉ. लोहिया के बारे में विस्तृत परिचय दिया। धन्यवाद् सर 🙏
जवाब देंहटाएंलोहिया दर्शन की विस्तृत जानकारी .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही उपयोगी
🙏
लोहिया जी और उनकी विचारधारा का सम्यक् विवेचन करता प्रभावशाली आलेख । हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख... हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंगुरुजी को सादर वंदन, समाजवाद के पुरोधा:डॉ.राममनोहर लोहिया आपका आलेख बहुत ही कम शब्दों में व्यापक स्वातंत्र्य इतिहास को मानसपट पर झकझोर देता हैं। गांधी विचारधारा से प्रेरणा लेकर लोहियाजी ने समाज में अनेक सुधार के कार्य किए, अंग्रेजी साशकों से परेशान होने के बाद भी वो झुके नहीं। उनके समय में समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों का उन्होने डटकर विरोध किया था जिसका प्रमाण उनके साहित्य में जरूर मिलता है पर सभी लोग उनके विचारों से उतने रूबरू नहीं हो पाते जीतने आपके आलेख को पढ़कर हो पाते हैं। लोहियाजी का राजनीति में रहकर भी सामाजिक बने रहना अति कठिन काम था तब भी उन्होने दोनों पहलुओं को अपने हाथ से फिसलने नहीं दिया। लोहियाजी के साहित्य की प्रासंगिकता को देखें तो हमें आभास होता हैं की जिस जातिप्रथा का चित्रण उन्होने उस समय अपने साहित्य में चित्रित किया था, जिसे भोगते हुए देखा था वह जातिप्रथा आज भी हमारे समाज में कहीं न कहीं घर करके बैठी हुए नजर आती है। आजादी की इतने साल बाद भी उनके साहित्य की प्रासंगिकता को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते। लोहियाजी के जीवन एवं आदर्श के प्रति आपके विचार प्रशंसनीय हैं।
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