शनिवार, 27 मार्च 2021

शब्द संज्ञान

 


v संवत् गाढ़नाः वसंत पंचमी के दिन एक लम्बा पतला बाँस लिया जाता है, जिसके ऊपर के छोर पर गेहूँ, चना आदि को एक कपड़े में बाँध दिया जाता है और उसी दिन उस बाँस को जमीन में गाढ़ा जाता है इसको ‘सम्मत गाढ़ना’ (संवत् गाढ़ना) कहते हैं। इसी बाँस के आस-पास घास, लकड़ी, उपले आदि का ढेर किया जाता है और इसी को फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन जलाया जाता है, जिसे होलिका दहन कहते हैं।

v संवत् जलानाः होली का त्यौहार मनाया जाता है फाल्गुन महीने की पूर्णिमा के दिन। इस त्यौहार के संबंध में मुख्यतः भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका की कथा प्रचलित है। होलिका दहन इस पर्व की मुख्य घटना है। इस होलिका दहन प्रसंग को भोजपुरी आदि भाषाओं में संवत् जलाना भी कहते है। भोजपुरी लोकसाहित्य के प्रमुख अध्येता डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के मतानुसार ‘‘जिस दिन होली मनाई जाती है उसकी पूर्व रात्रि को होलिका जलायी जाती है, जिसे भोजपुरी में संवत् जलाना कहते है। संवत जलाने के लिए गाँव का कोई चौराहा अथवा मुख्य स्थान चुन लिया जाता है। वहाँ गाँव के लड़के अनेक दिनों से लकड़ी, उपला, पत्ते, सूखी घास ला-लाकर एकत्र करते रहते हैं। शुभ मुहूर्त में इनमें आग लगा दी जाती है जो थोड़ी ही देर में जल कर राख की राशि बन जाती है। होली जलाने की प्रथा विभिन्न प्रांतों में विभन्न रूप से प्रचलित है।’’

          संवत् जलाने का मतलब है विक्रम संवत्-साल का पूरा होना, इस वर्ष जो कुछ भी हुआ उसे जला देना-भूल जाना और अगले दिन नये वर्ष - विक्रम संवत् का प्रारंभ हँसी-खुशी व सकारात्मक विचारों के साथ करना।

v  कबीरः कबीर नाम सुनते ही सबसे पहले हमें मध्यकाल के महान हिन्दी संत कवि कबीर याद आते हैं। परंतु यहाँ बात करनी है कबीर नामक होली संबंधी एक लोकगीत की। होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में कबीर उस गीत को कहते है जिसमें गालियाँ गाई जाती है। कई जगह होली पर्व पर गालियाँ गाने की प्रथा भी बहुत पहले से चली आ रही है। ‘अररर अररर भइया, सुन लेउ मोर कबीर।’ डॉ. श्रीधर मिश्र लिखते है- ‘‘ये कबीर बड़े अश्लील होते हैं। जैसे उनको एक सुन्दर मौका मिला हो और वे अपने मन की कसक निकाल रहे हों। यह एक ऐसा अवसर है कि जब समाज लोगों की दमित यौन-भावना को एवं असामाजिक एवं अश्लील मानते हुए भी उस दिन उसकी अभिव्यक्ति की छूट देता है।’’ शादी-ब्याह का प्रसंग हो या होली का त्यौहार, इसके गीतों में गाली का भी इसका विषय बनना जितनी आश्चर्य की बात नहीं है, उससे कही ज्यादा आश्चर्य इस बात से है कि आखिर इन होली के गाली गीतों को कबीर क्यों कहते हैं ? दरअसल यह भी एक शोध का विषय है। संत कवि कबीर के नाम के ही साथ उक्त गीतों के नामकरण का तुक बिठाना वैसे तो ठीक नहीं लग रहा है किन्तु इस विषय में डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय का अध्ययन कहें या अनुमान, जो यह कहता है कि- ‘‘इन गालियों को कबीर क्यों कहते हैं यह निश्चित रूप से बतलाना कठिन है। ऐसा ज्ञान होता है कि कबीर की अटपटी निर्गुण बानी तत्कालीन समाज के लिए लोकप्रिय नहीं हो सकी। अतः कबीर के प्रति समाज की अप्रसन्नता या आक्रोश दिखलाने के लिए ही लोगों ने इन गालियों को कबीर का नाम दे दिया है।’’

v जोगीड़ाः  शब्दकोश के अनुसार जोगीड़ा का अर्थ है – होली के अवसर पर गाया जाने वाला गँवारू गाना। - गँवारू गाना गानेवालों का दल।

असल में जोगीड़ा भी कबीर गीत की प्रकृति का ही गीत कहा जा सकता है। विशेषतः उत्तरप्रदेश में होली की मस्ती में झूमते हुए गाये जाने वाले जोगीड़ा तथा इसे गाने और नाचने वाली मंडली लोगों के आकर्षण का केन्द्र होता है। ‘‘आनन्द और उत्साह में डूबी हुई लोकगायकों की टोलियाँ गाँव भर में मंडराती रहती हैं। इस अवसर पर जोगीड़ा का प्रचलन भी है, जिसमें ढोलक, करताल तथा झाँझ बजाते हुए एक मंडली गाती है और लौंडा नाचता है।’’ इसमें भी कुछ भदेस व फूहड़पन से जुड़े विषयों को गाया जाता है। ननंद-भोजाई और देवर भाभी के रिश्तों को लेकर की जाने वाली हँसी, विशेष तरह का मजाक व मस्ती को भी इन गीतों में प्रस्तुत किया जाता हैं। कहीं-कहीं इसमें अश्लीलता का पुट भी होता है, लेकिन इसमें कोई बुरा नहीं मानता। लोग इसे बहुत सहजता से ही लेते है। बड़े बुजुर्ग, युवा, बच्चों सभी के लिए यह मनोरंजन का विषय़ बनता है। ढोल, हारमोनियम, झाँझ आदि लोकवाद्यो के साथ गाये जाने वाले इन गीतों की भाषा भी बहुत सरल व सहज होती है, एक तरह ये यह भाषा चलती और गँवारू होती है। इस नाच-गान में बीच-बीच में टेक पद की पुनरावृत्ति होती है- जोगीड़ा सरर..... रर.... रर....। ‘‘परंपरागत जोगीरा कामकुंठा का विरेचन है। एक तरह से उसमें काम-अंगो, काम-प्रतीकों की भरमार है। कुछ लोगों को जोगीरा के बहाने गरियाने और उन पर अपना गुस्सा निकालने का यह अपना तरीका है। वास्तव में होली खुलकर और खिलकर कहने की परंपरा है। यही कारण है कि जोगीरे की तान में आपको सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रुपताओं का तंज दिखता है। होली की मस्ती के साथ वह आसपास के समाज पर चोट करता हुआ नजर आता है।’’

     वैसे ही होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में अनेकों ऐसे गीत होते है जिसमें श्रृंगार रस की खुलकर अभिव्यक्ति होती है। युवा के साथ वृद्ध भी इस भाव से सराबोर होकर इस तरह के गीतों को गाते हैं। ‘होली मयँ बाबा दिवर लगै।’ जोगीड़ा गाने वाला समूह पूरे गाँव में घूमता है, हर घर के द्वारा जाकर गाये जाने वाले इन गीतों में शुभ कामनाओं का स्वर भी रहता है ‘सदा आनंद रहे यह द्वारे, फागुन कै मोहन प्यारे।’

v  लट्ठमार होलीः होली मनाने का एक ऐसा प्रसिद्ध रिवाज जिसमें होली खेलते समय रंगों के साथ साथ स्त्रियों द्वारा लाठियों से पुरुषों पर प्रहार किया जाता है और पुरुष ढाल से इस प्रहार से अपना बचाव करते हैं। इसमें लाठी से प्रहार करने का अधिकार सिर्फ स्त्रियों को होता हैं और पुरुष को तो ढाल से अपने को बचाना होता है। इसमें कोई वास्तविक पिटाई वाली बात नहीं होती बल्कि यह एक हँसी-खुशी का ही प्रसंग है। ‘‘लट्ठमार होली के पीछे मान्यता यह है कि इस दिन भगवान कृष्ण राधा रानी को देखने बरसाने जाते हैं। इसके बाद कृष्ण और ग्वाले राधा और उनकी सखियों की छेडखानी करने लगते हैं। इस पर राधा और उनकी सखियाँ हाथ में छड़ी लेकर कान्हा और उनके ग्वालों के पीछे भागती है। आज भी बरसाने और नंदगाँव में इसी परंपरा को निभाया जाता है।’’ बरसाने में लट्ठमार होली मनाने की तिथि है फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी। राधारानी के जन्मस्थान बरसाने की रंगीली गली में नंदगाँव के हुरियारों और बरसाने की स्त्रियों द्वारा रंग, अबीर और गुलाल से खेली जाने वाली होली में विशेष आकर्षण का केन्द्र बनता है -  इन स्त्रियों द्वारा नंदगाँव के हुरियारों के ढाल पर लाठियों का प्रहार। भरतपुर भास्कर पत्र से प्राप्त जानकारी के अनुसार ‘‘संवत् 1650 मे खेली गई थी पहली लट्ठमार होली इसलिए है रंगीली गली-आचार्य नारायण भट्ट द्वारा लिखित पुस्तक ब्रज भक्ति विलास के मुताबिक करीब 6 से 8 फुट सँकरी रंगीली गली में संवत् 1650 में पहली बार नंदगाँव और बरसाना के ब्राह्मणों ने लट्ठमार होली खेली थी। इस तरह करीब 425 संवत् पुरानी परंपरा आज भी निभाई जा रही है।’’ दूसरे दिन यानी फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष की दशमी को नंदगाँव में यह लट्ठमार होली होती है। जिसमें बरसाने के हुरियार नंदगाँव की हुरियारिनों के साथ यह खेली जाती है।


डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सर। ऐसे ही आप का ज्ञान हमें मिलता रहें।
    खालीद

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  2. સરસ સાહેબ લઠ કુમાર હોલી વિશે આપે જે માહિતી આપી એ ખૂબ જ ઉમદા કાર્ય છે. 💐🙏

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  3. बहुत सुंदर सर। ऐसे ही आप का ज्ञान हमें मिलता रहें।

    Hiya

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  4. હોળી વિશે ના જુદા જુદા અવનવા શબ્દોની માહિતી આપવા બદલ આભાર સાહેબ આપનો

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  5. सानदार सर। ऐसे ही जानकारी मिलता रहे।

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  6. धन्यवाद Sir...इस प्रकार की knowledgeable जानकारी से परिचय कराने के लिए।


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  7. होली से सम्बद्ध प्रचलित शब्दों की बहुत सहज ,सरल भाषा में व्याख्या की गई है । विद्वान लेखक महोदय के प्रति हृदय से बधाई, आभार।

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  8. लोक में प्रचलित परम्परागत शब्दों की सहज व्याख्या करता उपयोगी आलेख।बधाई डॉ. परमार जी।

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  9. सर,आपने बहुत ही बढ़िया तरीके से हमें होली से सम्बद्ध विविध प्रचलित शब्दों को बहुत ही सहज,सरल भाषा में समझाया है। आगे भी हमें आपका ज्ञान ऐसे ही मिलता रहे। धन्यवाद

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