शनिवार, 31 अगस्त 2024

अगस्त 2024, अंक 50

 


शब्द-सृष्टि

अगस्त 2024, अंक 50  


‘शब्दसृष्टि’ का पचासवाँ अंक – अंक के बहाने....... अंक के बारे में.... – प्रो. हसमुख परमार

संपादकीय – अगस्त मास की ख़ास कहानी – डॉ. पूर्वा शर्मा

व्याकरण विमर्श – 1. प्रत्यय विचार 2. संज्ञा शब्दों के बहुवचन रूप – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

कृति से गुज़रते हुए – ‘मृत्युंजय’ : स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष-शहादत तथा मानवीय संवेदना के संस्पर्श की एक असमिया महागाथा – प्रो. हसमुख परमार

विशेष 

शिव और सावन – सुरेश चौधरी

बरसे बदली सावन की – अनिता मंडा

कविता 

भारतमाता का जयगान – डॉ. ऋषभदेव शर्मा

मैं भारत हूँ – डॉ. अशोक गिरि

धरती को ‘आया’ कहने का मतलब.... – विमलकुमार चौधरी

मिट्टी के चूल्हे – डॉ. सुषमा देवी

हे तेजोमयी माँ !!!! – सुरेश चौधरी

पुस्तक समीक्षा – लघुता में समग्रता समेटे लघुकविता संग्रह - ‘बोलो ना निर्झर’ (सुदर्शन रत्नाकर) – नीरू मित्तल ‘नीर’

हाइबन – यात्रा – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

हाइकु – प्रीति अग्रवाल

आलेख – ‘कौन-सी कविता होती है पूरी.... में वर्णित विभिन्न विमर्श’ – डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

वैचारिक निबंध – काव्यानुभूति और उसका स्तम्भन – रमाकांत नीलकंठ

कुंडलिया – डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

गीत – ज़िंदगी क्षणिक है ! – गौतम कुमार सागर

अनुवाद – आदिशंकराचार्य रचित गङ्गा स्तोत्र का अनुवाद लावणी छंद में – सुरेश चौधरी

लोकगीत – भोजपुरी

ग़ज़ल – हिमकर श्याम

‘शब्द-सृष्टि’ का पचासवाँ अंक

अंक के बहाने....... अंक के बारे में....

प्रो. हसमुख परमार

भाव, विचार, कथा-प्रसंग, शैली, शिल्प चाहे जो भी हो, जैसा भी हो; मूलतः और अंततः साहित्य का सरोकार है मनुष्य से तथा मूल उद्देश्य है उसका मानव-मात्र का हित साधन । अतः साहित्य का सान्निध्य हमारे लिए जितना आनन्दकर है उतना ही कल्याणकारी । “साहित्य माता के समान हमारा पालन, पिता के समान हमारी रक्षा, गुरु के समान हमारा मार्गदर्शन करता है, और सुहृद बन्धु के समान हमारी सहायता करता हुआ, प्रिया की-सी मधुर, सुन्दर, आकर्षफ मूर्ति धारण कर हमारे जीवन में प्रेम-रस का संचार करता है । ”

विविध प्रकाशनों से प्रकाशित पुस्तकों एवं मौखिक-मंचीय साहित्यिक परंपरा के साथ-साथ पत्रकारिता के माध्यम से भी साहित्य का प्रचार-प्रसार बड़े व्यापक रूप से हुआ है, हो रहा है । भाषा, साहित्य व साहित्य संबंधी शोध-समीक्षा-शास्त्र संदर्भत्रयी को लेकर विकसित होने वाली साहित्यिक पत्रकारिता ने सैकडों साहित्यप्रतिभाओं को खोजने व खिलने हेतु एक विशाल और मजबूत मंच तैयार कर एक विशाल पाठक वर्ग तक उन्हें पहुँचने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया ।

दरअसल साहित्य या साहित्यिक पत्रकारिता, साहित्यकारों की गाढ़ी संवेदनाओं, ऊँची-उदात्त कल्पनाओं, सौंदर्यपरक दृष्टि, गूढ़-गंभीर विचारों तथा मुखरतम आवाज की प्रस्तुति अभिव्यक्ति है । वैसे तो ज्ञान, विशेषतः साहित्येतर विषयों से संबंधी, जो कि साहित्य से एक अलग अनुशासन है, परंतु साहित्य की भी ये एक बड़ी ख़ासियत रही है कि इसका कलेवर इतर विषयों के ज्ञान से भी संस्पर्शित रहा है । कहने का आशय है कि साहित्य के अपने एक मूल व विशेष स्वभाव, शैली व शिल्प-ढाँचे में कई बार सर्जक ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों-शास्त्रों के विविध संदर्भ भी प्रस्तुत करता है । हाँ, यह प्रस्तुति होती है काव्यात्मक-साहित्यिक। समाज, संस्कृति, धर्म-अध्यात्म, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, भूगोल, खगोल, प्रकृति-पर्यावरण, योग, ज्योतिष प्रभृति विषयों संबंधी जानकारीपूर्ण कतिपय तथ्य व संदर्भ, जिसे हम साहित्य कहते हैं यानी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, रेखाचित्र आदि रूपों में भी मिलते ही हैं, लेकिन दूसरी ओर इन विधाओं से बाहर स्वतंत्ररूप से ज्ञान साहित्य लेखन हुआ जो स्वतंत्र पुस्तकों के, तत्संबंधी पत्रिकाओं के साथ साथ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होता रहा है ।

 हिन्दी की अपने आरंभ से लेकर अब तक की साहित्यिक पत्रकारिता में भी हम ऐसी अनेक पत्र-पत्रिकाओं को उदाहरणातया देख सकते हैं जिसमें साहित्य के साथ साथ साहित्येतर कई विषयों को लेकर लिखी सामग्री को भी बराबर स्थान मिलता रहा है । कहीं पत्र-पत्रिकाओं के विविध स्तंभों के अंतर्गत तो कहीं विशेष तिथि-दिवस के निमित्त तो कहीं इन विषयों के प्रति विशेष रूचि रखने वाले लेखकों का साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति विशेष लगाव के चलते । इस संदर्भ में हिन्दी की दो महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं-  “ ‘सरस्वती’ और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का नाम लेना चाहेंगे । ‘ सरस्वती’ पत्रिका की भूमिका को जब हम याद करते हैं तो ज्ञान-विज्ञान के लेखन-प्रकाशन की एक मज़बूत व्यवस्था उपलब्ध कराई । इस तरह ज्ञान-साहित्य के लेखन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार की दृष्टि से इन दोनों पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है । इन दोनों पत्रिकाओं ने साहित्य और हिन्दी भाषा के साथ साथ खगोल, ज्योतिषशास्त्र, दर्शन, धर्म, इतिहास, कला, राजनीति, विज्ञान जैसे विषयों पर लिखने का मार्ग प्रशस्त किया ।” इन विषयों पर निबंध-लेख लिखवाये और पत्रिका में प्रकाशित करवाएँ । “ विषयों के चुनाव की दृष्टि से ‘सरस्वती’ ने जो व्यापक दृष्टिकोण अपनाया वह व्यावहारिक और सामाजिक था । ‘सरस्वती’ के  अंको में प्राय: संस्कृत या  हिन्दी के किसी प्राचीन कवि की परिचर्चा और हिन्दीतर भाषा के किसी सामयिक कवि-लेखक का परिचय, इतिहास-पुरातत्त्व के किसी उन्नत काल का विवरण, यात्रा, भूगोल, स्थान वर्णन, उद्योगपति, समाजसुधारक की जीवनी, चित्र-परिचय देशोन्नति से संबद्ध समस्याओं पर लेख, राजनीतिक, आर्थिक प्रश्नों के संबंध में सरकार से निवेदन, बालक, वनितोपयोगी सामग्री- टिप्पणियाँ, सामयिक हलचलों का उल्लेख, कहानियाँ, कविताएँ, पुस्तक-समीक्षा आदि को देखा जा सकता है । ” (आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास : बच्चन सिंह) आगे भी हिन्दी की अनेकों साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह का विषय वैविध्य यानी साहित्य के साथ-साथ साहित्येतर अनुशासनों संबंधी लेखन को भी स्थान मिलता रहा है ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी पत्रिका पर लगी आर.एन.आई., आई.एस.एस.एन., पियर रिव्यू, यू.जी.सी. एप्रूव्ड, यू.जी.सी कैयर लिस्ट जैसी किसी मुहर उस पत्रिका के स्तर-गुणवत्ता की ऊँचाई को प्रमाणित करती है । किंतु हम यह भी देखते हैं कि बगैर इस तरह की किसी मुहर के भी कुछ पत्र-पत्रिकाएँ स्तर-गुणवत्ता के मामले में महत्वपूर्ण कही जा सकती हैं । वैसे भी अपनी प्रकाशन अवधि की नियमितता, विषय-सामग्री की उपयोगिता-प्रासंगिकता, भाषिक स्तर तथा विषय-वस्तु व विधागत वैविध्यता ही किसी पत्रिका के स्तर का मुख्य मापदंड कहा जा सकता है ।

वैसे तो ‘शब्दसृष्टि’ कोई बहुत प्रसिद्ध, लम्बे समय से प्रकाशित तथा रजिस्टर्ड किसी खास कैटेगरी की पत्रिकाओं की पंक्ति की पत्रिका नहीं है, बल्कि यह तो एक साधारण ई पत्रिका या कहिए एक ब्लॉग-वेब पेज है, किंतु इसका कलेवर बड़ा ही आकर्षक और इसमें प्रकाशित विषय सामग्री भी बड़ी ही स्तरीय और वैविध्यपूर्ण । यह इसलिए कह रहा हूँ कि मैंने अबतक  शब्दसृष्टि के नियमित रूप से प्रकाशित ‘पचास अंक मात्र देखे ही नहीं बल्कि अच्छी तरह से पढे भी हैं । और संपादिका की ओर से कुछ पूछने पर बतौर परामर्शक सलाह-सूझाव भी देता रहा हूँ । दरअसल किसी पत्रिका का महत्त्व उसके दीर्घजीवी होने से ज्यादा उसका पठनीय, विचारणीय व प्रासंगिक बने रहने और पाठकों की जरूरी अपेक्षाओं पर उसका खरा उतरने को लेकर ज्यादा होता है ।

ई पत्रिका या वेब पेज-ब्लॉग के नाते ‘शब्दसृ‌ष्टि’ की बाहरी बढ़ि‌या साज़-सजावट स्वाभाविक है और इससे  पाठक का प्रभावित होना भी उतना ही स्वाभाविक । लेकिन इससे आगे अपनी विषय वस्तु से भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करना जो ‘शब्दसृष्टि’ के मायने व महत्त्व को दर्शाता है । • गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं-शिल्प-शैलियों से जुड़ी रचनाएँ • सृजन-कर्म के साथ-साथ शोध-समीक्षा दृष्टि • साहित्य के समानांतर भाषा व व्याकरण विमर्श • साहित्य के अतिरिक्त साहित्येतर क्षेत्रों से संबद्ध विशेष प्रतिभाओं का ख़ास परिचय  • कविता-कहानी-निबंध आदि के ढाँचे में या इनसे इतर रूप-स्वरूपगत लेखन में साहित्य के साथ-साथ साहित्येतर विषयों की भी प्रस्तुति • अनुवाद के सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्ष  •हिन्दी के साहित्य तक ही मर्यादित नहीं बल्कि हिन्दी के साथ साथ हिन्दीतर भाषाओं के साहित्य का भी समावेश • हिन्दी या भारतीय साहित्य की मुख्य व प्रचलित विधाओं के साथ हिन्दी या भारतीय साहित्य में विकसित कतिपय विदेशी विधाओं, मसलन-हाइकु, हाइबन, माहिया, ताँका, चोका आदि के सृजन व समीक्षा उभय पक्ष की मौजूदगी • पुस्तक-चर्चा  • ‘दिन कुछ ख़ास है’ के अंतर्गत विशेष दिवसों-तिथियों की कहानी व महत्व का आलेखन • हिंदी के समकालीन साहित्यसेवियों में पुराने-नवोदित के साथ प्राचीन-प्रसिद्ध सर्जकों को भी उचित-अपेक्षित स्थान आदि....आदि... विषयबिंदुओं से ‘शब्दसृष्टि’ का वस्तुपक्ष या कथ्य गूँथा- गढ़ा जाता रहा है ।

एक ही अंक में अलग अलग प्रकार के लगभग पंद्रह-बीस अलग-अलग कन्टेन्ट पर लिखना-लिखवाना और प्रकाशित करना और अंक प्रकाशन भी मासिक, जो उतना आसान नहीं है । और लगभग तीन-चार सामान्य अंकों के बाद वाला अंक विशेषांक । यदि पत्रिका की प्रकाशन अवधि त्रैमासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक है तब तो ज्यादा मुश्किल नहीं होगा, परंतु मासिक प्रकाशन।  महीने इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण सामग्री एकत्र करना भी काफ़ी श्रम वाला काम है, ऊपर से उसे संशोधित कर साज - सजावट के साथ लगाना । बावजूद ‘शब्दसृष्टि’ ने अपनी विषयवस्तु की गरिष्ठता, उसकी विविधता तथा प्रकाशन संबंधी नियमितता को बराबर बनाए रखा है पचास अंक इसका प्रमाण है ।  इस गुरुतर कार्य के संभव व सफल होने की वज़ह संपादिका डॉ.पूर्वा शर्मा की सूझ-बूझ, मेहनत व साहित्य के प्रति उनका विशेष लगाव है । ‘ शब्दसृष्टि’ के प्रति इनके विशेष लगाव व प्रतिबद्धता की चरम स्थिति तो मैंने पिछले अंक के संपादन- प्रकाशन के समय देखी । जुलाई माह का अंक मतलब प्रेमचंद विशेष । पर्याप्त सामग्री आ गई थी । थोडा बहुत संशोधन, स्तंभ के मुताबिक वर्गीकरण, विषयानुरूप पिक्चर आदि काम संपादिका कर रही थी जिससे कि उनकी योजनानुसार ठीक प्रेमचंद जयंति के एक दिन पहले या उसी दिन वो अंक को लगा सकें । अब हुआ यूँ कि इन्हीं दिनों यानी जुलाई के आखिरी दो-तीन दिनों तबीयत उनकी बहुत ही अस्वस्थ हो गई 104 डिग्री बुख़ार की शिकार । हालत बड़ी खराब, बड़ी गंभीर । मेरी बात हुई पर ठीक तरह से बात करने की स्थिति में भी वो नहीं थी । 30 जुलाई को पुनः जब मेरी बात हुई तब मैंने उन्हें साफ़ और सख्त शब्दों में कहा कि इस समय तुम ‘शब्द-सृष्टि’ की, प्रेमचंद विशेषांक की चिंता छोडकर अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखो । साथ ही यह भी बताया कि पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद अगस्त महीने का अंक सयुंक्तांक ( जुलाई- अगस्त ) कर लेना । परंतु सामने से उनकी दबी आवाज-  ‘नहीं सर, मेरी पत्रिका के नियमित प्रकाशन का क्रम टूटेगा नहीं । दवाई लेने के बाद थोड़ी राहत मिलते ही मैं इस अंक को, और यह कोई सामान्य अंक नहीं, प्रेमचंद केन्द्रित सो मैं 30 की रात में या 31 जुलाई की सुबह में लगाऊँगी ही ।  मेरी और उनके परिवार की ओर से मना करने के बाद भी अंततः 31 जुलाई सबेरे प्रेमचंद विशेषांक तैयार कर प्रकाशित किया । अब इस बारे में मैं और क्या कहूँ !! ??  बड़े कर्मठ तथा समर्पित-प्रतिबद्ध साहित्यसेवी तो अनेकों देखें, किन्तु इनमें से विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी कड़ी कर्मठता तथा गाढ़ी प्रतिबद्धता को पूरी तरह से बनाये रखते हुए साहित्य पथ पर अग्रसर होने वाले साहित्यसेवी बहुत कम ही देखे हैं ।

अंत में, मैं ‘शब्द-सृष्टि’ के पचासवें अंक के प्रकाशन अवसर पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए संपादिका पूर्वा शर्मा को हार्दिक बधाइयाँ  देते हुए  अपनी गुणवत्ता में और ज्यादा वृद्धि करते हुएब्द-सृष्टि के  विकास की कामना करता हूँ ।




 

प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर ( गुजरात )

 

संपादकीय

 


अगस्त मास की ख़ास कहानी

डॉ. पूर्वा शर्मा

वैसे प्रकृति प्रेम, मानव प्रेम, ईश्वर प्रेम, देशप्रेम, समाज-संस्कृति से विशेष लगाव तथा साथ ही इन सबसे संबद्ध विचार-विमर्श हमारे मन-मस्तिष्क से स्वतः स्फूर्त होकर सहज-स्वाभाविक रूप में हमेशा मूक या मुखर माध्यमों से व्यक्त-अभिव्यक्त होते ही रहते हैं, किंतु किसी विशेष निमित्त या आलंबन मिलने पर इनका फोर्स-उफान तथा इनकी गहनता-गरिष्ठता कुछ बढ़ी चढ़ी ही होती है। हम देखते हैं कि समय-चक्र के चलने घूमने के साथ-साथ कुछ ख़ास पल-अवसर इत्तफाक से ही आ जाते हैं जो हमें एक अलग ही भावलोक- विचारलोक में पहुँचा देते हैं तो दूसरी ओर कुछ अवसर-प्रसंग-मौसम तथा दिन-तिथियाँ-त्योहार ऐसे हैं जो इस समय चक्र में कुदरत या मनुष्य द्वारा पूर्व-निर्धारित ! और निर्धारित करने का कोई न कोई कारण एवं कहानी। ऐसे अवसरों का हम बेसब्री से इंतजार करते हैं और जिनके आने पर प्रसंगोचित -प्रसंगानुरूप हम अपने आपको विविध रूपों में व्यक्त करते हैं, प्रस्तुत करते हैं।

ठंडी फुहार, चारों तरफ हरियाली, आकाश में धीमे-धीमे चलते काले-घने बादल... इस सुहावने मौसम में और क्या चाहिए...! पावस ऋतु एक ऐसी ऋतु है जिस समय प्रकृति का सौन्दर्य अपने चरम पर होता है और यह सौन्दर्य किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।

धूम-धुआँरे, काजल कारे, 

हम हीं बिकरारे बादल ,

मदन राज के बीर बहादुर, 

पावस के उड़ते फणिधर !

चमक झमकमय मंत्र वशीकर 

छहर घहरमय विष सीकर,

स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर, 

कामरूप घनश्याम अमर !

सुमित्रानंदन पंत

बरखा रानी के आते ही सौंधी-सौंधी मिट्टी की सुगंध दुनिया भर के सभी मशहूर-महँगे इत्र-परफ्यूम की गंध को पीछे छोड़ देती हैं और हमें प्रकृति के समीप लाकर खड़ा कर देती है। इतना ही नहीं प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य को निहारने के लिए तो अनेक त्योहार भी अपनी कहानी कहने के लिए एक के पीछे एक कतार में खड़े रहते हैं। भारत भूमि का सौन्दर्य अनुपम है। पल-पल बदलते मौसम, ऋतु परिवर्तन इसके प्राकृतिक सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है।

नित नयी पोशाक पहनकर प्रकृति है लुभाती

भिन्न-भिन्न ऋतुओं की सौगात हमारे लिए है लाती।

डॉ. पूर्वा शर्मा

भारतीय संस्कृति एवं षड्ऋतु में श्रावण/सावन मास के महत्त्व को भला कैसे भुलाया जा सकता है। यदि हमारी संस्कृति को त्योहारों-पर्वों का कोष माने तो सावन इसके बहुमूल्य हीरे-जवाहरात है। लेकिन सावन अथवा अगस्त माह के अनेक पर्व-त्योहारों में से सबसे सुखद दृश्य है – सावन की हरियाली में स्वाधीनता की गूँज का प्रतिनिधित्व करता तिरंगा; जो 15 अगस्त को हर द्वार पर लहराता हुआ नज़र आता है।

नागाधिराज शृंग पर खडी हु‌ई,

समुद्र की तरंग पर अडी हु‌ई,

स्वदेश में जगह-जगह गडी हु‌ई,

अटल ध्वजा हरी, सफेद केसरी!

न साम-दाम के समक्ष यह रुकी, 

न द्वन्द-भेद के समक्ष यह झुकी,

सगर्व आस शत्रु-शीश पर ठुकी, 

निडर ध्वजा हरी, सफेद केसरी!

चलो उसे सलाम आज सब करें, 

चलो उसे प्रणाम आज सब करें,

अजर सदा इसे लिये हुये जियें, 

अमर सदा इसे लिये हुये मरें,

अजय ध्वजा हरी, सफेद केसरी!

 

-           हरिवंशराय बच्चन

स्वाधीनता के गीत गाते-गुनगुनाते हुए सभी देशवासी ‘स्वतंत्रता दिवस’ का दिन एक भव्य त्योहार-उत्सव के रूप में मनाते हैं। स्वतंत्रता दिवस की बात हो और स्कूल में मिलने वाले लड्डू की बात न हो ऐसा कैसे हो सकता है! भले ही हमें स्कूल छोड़े हुए एक अरसा हो गया हो लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर मिलने वाले उस लड्डू की मिठास का अहसास तो हमेशा ही होता रहता है।

गुलामी की बेड़ियों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए भारत के अनेक वीरों ने बलिदान दिया और इसके फलस्वरूप मिली हमें स्वाधीनता। हमारे स्वतंत्र देश ने अपने नियम-कानून बनाए, अपना संविधान लिखा और स्वतंत्रता के साथ दे दिए हमें कुछ मौलिक अधिकार। लेकिन क्या यही है स्वतंत्रता कि कोई भी कुछ भी कर सकता है? कुछ भी.... यानी कुछ भी... घिनौने अपराध भी! स्वतंत्र होने का पूरा फायदा उठाकर हाल ही में कलकत्ता में हुआ दिल दहला देने वाला अमानवीय कांड। यह नृशंस बलात्कार/हत्या कांड हमारी स्वतंत्रता-सुरक्षा, देश के विकास आदि पर एक करारा तमाचा है। लेकिन इस तरह की घटना तो पहले भी हो चुकी है। 2012 में हुई इस तरह की घिनौनी घटना को ‘निर्भया’ कहा गया और 2012 के बाद 2017, 2019... को क्रमशः निर्भया 2, 3, 4..... यह सिलसिला आज तक है जारी......

भरी सभा में खींचा था चीर

हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे वीर

वह तो था द्वापर युग

आज चल रहा आधुनिक युग

फिर भी घूम रहे गली-गली कौरव

न जाने क्यों बुत बने बैठे आज भी पांडव

तब लाज बचाने आए थे गिरधारी

क्या इस युग में नहीं कोई मुरारी!

क्या कुछ बदलेगा मोमबत्ती जलाने से?

या सुधरेंगे हालात सुदर्शन चक्र चलाने से?

हे पार्थ! उठा लो अब तो कोई ठोस कदम

कहीं ऐसा न हो, ले ही नहीं कोई द्रौपदी दोबारा यहाँ जनम!

डॉ. पूर्वा शर्मा

इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्त्रियों को स्वयं की रक्षा करना आना चाहिए लेकिन उसके मान-सम्मान-सुरक्षा पर जब भी कोई आँच आए तो उससे उसे बचाने के लिए हमें कुछ कड़े नियम-कानून तैयार करने ही होंगे। एक ओर जहाँ स्त्रियों का मान-सम्मान-सुरक्षा घर में एवं घर के बहार दोनों जगह खतरे में है दूसरी ओर आदिवासी भी अपने घर में-अपने जंगल में सुरक्षित नहीं है।  उनका अस्तित्व एवं पर्यावरण संरक्षण दोनों ही आवश्यक है। इस कार्य के लिए सरकार तो अपनी ओर से कदम उठा ही रही है और ‘विश्व आदिवासी दिवस’ (9 अगस्त) हमें इस बात की याद दिलाता है कि हमें भी प्रयास करना चाहिए कि उनके साथ कोई अन्याय न हो।

 

क्यों विस्थापित?

अपने ही घर से

ये आदिवासी!

डॉ. पूर्वा शर्मा

अपनी और अपनों की रक्षा-सुरक्षा आवश्यक है। इस तरह का भाव छिपा है हमारे एक ख़ास त्योहार, रक्षाबंधन के त्योहार में।  रक्षा-सूत्र महज एक धागा नहीं, यह तो है एक अटूट नेह-बंधन। एक ऐसा वचन जो एक भाई-बहन के रिश्तों में फलता-फूलता है।

कभी न टूटे

भले धागा है कच्चा

नेह है पक्का।

डॉ. पूर्वा शर्मा

इस वर्ष रक्षा बंधन कुछ ज्यादा ख़ास बन गया, 72 साल बाद ऐसा दुर्लभ संयोग जिसमें सावन का पहला सोमवार और समापन दिन भी सोमवार (22 जुलाई-19 अगस्त) अर्थात कुल पाँच सोमवार हुए। इतना ही नहीं एक ही माह में दो पूर्णिमा और अंतिम सोमवार के दिन के दिन तो दुर्लभ ‘सुपर ब्लू मून’ (पूर्णिमा-रक्षाबंधन) को निहारने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

चरम सौन्दर्य लिए राका

दुगुनी चाँदनी लिए चाँद

नीली चादर ओढ़कर

अवनी को निहारने

देखो! उसके समीप आया।  

डॉ. पूर्वा शर्मा

प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में रक्षा बंधन को ‘श्रावणी’ के नाम से जाना जाता है। श्रावणी का महत्त्व इस तरह है कि इस दिन से गुरुकुल में वेद अध्ययन का आरंभ किया जाता था और आज भी परंपरा कायम है। दक्षिण भारतीय इस दिन यज्ञोपवीत धारण करते/बदलते हैं। इसे मोक्षदायनी पर्व माना जाता है। विश्वविद्यालयों में इसे ‘संस्कृत दिवस’ अथवा ‘संस्कृत सप्ताह’ की तरह मनाया जाता है। हम कह सकते हैं कि एक ही दिन को अलग-अलग तरीके से भिन्न-भिन्न पर्वों की तरह पूरे भारत में मनाया जाता है।

19 अगस्त के इस दिन इस संयोगवश विश्व फोटोग्राफी दिवस भी था। अगस्त के इस माह में पूरे विश्व में अनेक दिवस मनाए जाते हैं इनकी सूची इस तरह है – अमेरिकी तटरक्षक दिवस, हिरोशिमा दिवस, विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस, भारत छोड़ो आंदोलन दिवस, नागासाकी दिवस, अंतर्राष्ट्रीय वामपंथी दिवस, विश्व अंगदान दिवस, राष्ट्रीय शोक दिवस (बांग्लादेश), वर्जिन मैरी की मान्यता का दिन, बेनिंगटन युद्ध दिवस, इंडोनेशियाई स्वतंत्रता दिवस, विश्व मानवीय दिवस, सद्भावना दिवस इत्यादि। इस श्रेणी में ‘फ्रेंडशिप डे’ (मित्रता दिवस) भी कुछ वर्षों से शामिल हो गया है, अगस्त के पहले रविवार को यह दिन मनाया जाता है।

साहित्य प्रेमियों के लिए सावन मास बहुत ख़ास रहा है। साहित्यकारों ने प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों को अपनी कल्पना की उड़ान के रंग देकर एक से बढ़कर एक रचनाएँ की है। विशेषतः सावन की बेला और साजन-सजनी की प्रणय किस्से तो साहित्य में बहु प्रचलित रहे हैं। इतना ही नहीं प्रबंध काव्य, खंड काव्य, गद्य, फुटकर कविताएँ इसके उदाहरण हरेक रूप में मिलते हैं।   

है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में 

संबंध कहीं कुछ अनजाना,

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं, 

साजन आए, सावन आया।

-           हरिवंशराय बच्चन

भारतीय परंपरा में सावन के इस पावन मास में अनेक तीज-त्योहार आते हैं इनमें कुछ प्रमुख पर्व –हरियाली अमावस्या, मंगला गौरी व्रत, हरियाली तीज, नाग पंचमी, पवित्रा एकादशी, रक्षा बंधन, श्रावणी एवं कजरी तीज, जन्माष्टमी आदि के साथ इस माह के शुक्ल पक्ष के सातवें दिन लोकमंगल के कवि एवं रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास जी की जन्म जयंती भी मनाई जाती है। दरअसल इन पर्वों-त्योहारों-दिवसों की सूची बहुत ही लंबी है और कोई भी भारतवासी इनसे अपरिचित नहीं है। इतने सारे त्योहार और हरेक का अपना महत्त्व, अब किस-किसकी गाथा सुनाए? और इनमें से कुछेक पर्व की तो एक से ज्यादा कहानियाँ प्रचलित है।

अगस्त मास की ख़ास कहानी

कहती प्रकृति स्वयं की ज़ुबानी।  

 


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

 

व्याकरण विमर्श


डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

प्रत्यय विचार –

संस्कृत व्याकरण के अनुसार जिन प्रत्ययों को धातु के साथ जोड़कर संज्ञा, विशेषण तथा अव्यय शब्द बनाए जाते हैं, उन्हें ‘कृत्’ प्रत्यय कहा जाता है; और जो प्रत्यय संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण शब्दों के साथ जुड़कर उनसे भिन्न अर्थ देने वाले संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रियाविशेषण शब्दों की रचना करते हैं, उन्हें तद्धित प्रत्यय कहा जाता है।

पं. कामताप्रसाद गुरु ने तथा उनके बाद के आज तक के व्याकरण लेखकों ने प्रत्यय संबंधी इसी अवधारणा को हिन्दी में अपनाया है।

यहाँ विचारणीय है कि प्रत्यय संबंधी संस्कृत व्याकरण की यह अवधारणा हिन्दी पर लागू नहीं पड़ती। हिन्दी में एक तो धातु के साथ प्रत्यय जोड़कर बहुत कम (नहीं के बराबर) क्रिया से भिन्न शब्द बनते हैं; और दूसरे, जो प्रत्यय क्रिया से जुड़ता है, वही प्रत्यय दूसरे शब्दों से भी जुड़ता है। अर्थात् हिन्दी में ऐसी कोई भेदक-रेखा नहीं है।

भाववाचक संज्ञा बनाने वाला ‘-आई’ प्रत्यय क्रिया से भी जुड़ता है और विशेषण से भी जुड़ता है - ‘लिखना’ क्रिया से लिखाई, ‘पढ़ना’ क्रिया से पढ़ाई; ‘ऊँचा’ विशेषण से ऊँचाई, ‘गहरा’ विशेषण से गहराई।

भाववाचक संज्ञा बनाने वाला ऐसा ही एक प्रत्यय है ‘-ई’। यह क्रिया से भी जुड़ता है तथा संज्ञा से भी जुड़ता है - हँसना से हँसी; दुकानदार से दुकानदारी, कारीगर से कारीगरी आदि।

पं. कामताप्रसाद गुरु और उनके परवर्ती व्याकरण लेखकों ने जिन ‘कृत्’ प्रत्ययों की कल्पना की है तथा उदाहरण के रूप में जिन धातुओं का उल्लेख किया है, वे सभी संस्कृत की धातुएँ हैं।

पं. कामताप्रसाद गुरु के अनुसार -

(1) कर्तृवाचक कृत् प्रत्यय ‘-अ’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - चुर् (चोर), दिव् (देव), रम् (राम), लभ् (लाभ), व्यध् (व्याध), सृप् (सर्प), बुध् (बुध), ग्रह् (ग्राह) आदि।

(2) भाववाचक कृत् प्रत्यय ‘-अ’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - कम् (काम - इच्छा), क्रुध् (क्रोध), मुह् (मोह), जि (जय), रु (रव), खिद् (खेद) आदि।

(3) कर्तृवाचक कृत् प्रत्यय ‘-अक’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - कृ (कारक), नृत् (नर्तक), पू (पावक), गै (गायक), दा (दायक), युज् (योजक), तृ (तारक), मृ (मारक), नी (नायक), पठ् (पाठक), पच् (पाचक) आदि।

(4) कर्तृवाचक कृत् प्रत्यय ‘-अन’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - रम् (रमण), श्रु (श्रवण), पू (पावन), पाल् (पालक) आदि।

(5) भाववाचक कृत् प्रत्यय ‘-अन’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - भू (भवन - होना), भुज् (भोजन), हु (हवन), रक्ष (रक्षण), सह् (सहन), मृ (मरण) आदि।

(6) भाववाचक कृत् प्रत्यय ‘-अना’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - विद् (वेदना), रच् (रचना), घट् (घटना), सूच् (सूचना), वंद् (वंदना), तुल् (तुलना) आदि।

(7) योग्यतार्थ कृत् प्रत्यय ‘-अनीय’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - दृश् (दर्शनीय), स्मृ (स्मरणीय), रम् (रमणीय), शुच् (शोचनीय), कृ (करणीय) आदि।

(8) भाववाचक कृत् प्रत्यय ‘-आ’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - इष् (इच्छा), कथ् (कथा), पूज् (पूजा), चिंत् (चिंता), शिक्ष् (शिक्षा) आदि।

(9) भूतकालिक कृत् प्रत्यय ‘-त’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - गम् (गत), भू (भूत), कृ (कृत), मृ (मृत), हन् (हत) जन् (जात), विद् (विदित), वच् (उक्त) आदि।

(10) योग्यतार्थक कृत् प्रत्यय ‘-तव्य’ निम्नलिखित धातुओं के साथ जुड़ता है - भू (भवितव्य), कृ (कर्तव्य), दृश् (द्रष्टव्य), वच् (वक्तव्य) आदि।

(धातुओं तथा उनसे जुड़ने वाले कृत् प्रत्ययों के ये थोड़े नमूने हैं। ऐसे ही और भी कृत् प्रत्यय तथा उनसे जुड़ने वाली धातुएँ व्याकरण की पुस्तकों में दी गई हैं।)

विचारणीय है कि चुर्, दिव्, रम्, ग्रह्, कम्, पू, नी, भृ्, विद्, पठ्, रक्ष्, खिद्, दा, भुज्, रच् ... आदि संस्कृत की धातुएँ हैं। हिन्दी में इनका प्रयोग ही नहीं है, तो फिर हिन्दी व्याकरण में इनकी चर्चा किस लिए?

चोर, देव, इच्छा, लाभ, क्रोध, भोजन, लाभ, रचना, जय, खेद, राम, मोह, दाता, पूजा, भूत ... जैसे शब्द हिन्दी के मूल शब्द हैं। ऐसे शब्दों की संख्या अनगिनत है।

हिन्दी में ऐसे शब्दों की रचना या व्युत्पत्ति की चर्चा नहीं कर सकते। नहीं करनी चाहिए।

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संज्ञा शब्दों के बहुवचन रूप –

स्त्रीलिंग शब्द

सड़क   -  सड़कें   सड़कों

लता       -    लताएँ   लताओं

मति    -   मतियाँ    मतियों

लड़की   -   लड़कियाँ  लड़कियों

वस्तु    -    वस्तुएँ    वस्तुओं

बहू      -   बहुएँ    बहुओं

गौ    -    गौएँ    गौओं

पुल्लिंग शब्द

मित्र     -    मित्रों

लड़का   -  लड़के   लड़कों

कवि    -  कवियों

साथी    -   साथियों

साधु    -  साधुओं

भालू    -   भालुओं

सभी स्त्रीलिंग शब्दों के दो बहुवचन रूप

आकारांत पुल्लिंग शब्दों के दो बहुवचन

शेष पुल्लिंग शब्दों का एक ही बहुवचन रूप।

याद रखें-

कई शब्दों के बहुवचन रूपों के प्रयोग के संदर्भ बहुत कम होते हैं

कई ऐसे भी शब्द हैं, जिनके बहुवचन रूप के प्रयोग का संदर्भ उपलब्ध नहीं होता।

इसका मतलब यह नहीं कि ऐसे शब्दों का बहुवचन रूप नहीं होता या नहीं बनता।

बहुवचन रूप तो प्रत्येक शब्द का होता है।

उसके प्रयोग का संदर्भ भले न हो।

 


 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315, आणंद (गुजरात)