प्रेमचंद
की वर्तमानता : ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’
डॉ.
ऋषभदेव शर्मा
प्रेमचंद (1880-1936) भारत के उन अमर साहित्यकारों
में अग्रणी हैं जिनकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती तथा जो अपने समय का अतिक्रमण करके
सब समयों में वर्तमान बने रहते हैं. वस्तुतः शाश्वतता की जड़ें समकालीनता में ही होती
हैं. प्रेमचंद अपने समकाल से गहरे जुड़े थे इसलिए वे आज भी हमें समकालीन प्रतीत होते
हैं. आज के समय में प्रेमचंद की वर्तमानता से पहले हमें उनके अपने समय और उसमें उनकी
वर्तमानता को समझना होगा. यदि हम उनकी दो प्रमुख औपन्यासिक कृतियों ‘रंगभूमि’
(1925) और ‘गोदान’ (1936) के संदर्भ में उनके समय और तत्कालीन प्रवृत्तियों का अवलोकन
करें तो सबसे पहली बात यह सामने आती है कि प्रेमचंद का समय हिंदी साहित्य और भारतीय
समाज दोनों ही के हवाले से यथार्थवाद का समय नहीं था. वह युग आदर्शवाद और रोमांटिसिज़्म
का युग था. तमाम राजनैतिक और साहित्यिक हलचलें उस समय आदर्शवाद से अनुप्राणित थीं और
‘रामराज्य’ का सपना सबकी आँखों में तैर रहा था. ‘प्रेमचंद अपने युग के साथ थे और अपने
युग की उथलपुथल को उन्होंने अपनी रचनाओं में चित्रित किया है.’ (रामविलास शर्मा : प्रेमचंद
और उनका युग). दरअसल वह धर्म और संस्कृति के पुनः आविष्कार का समय था और प्रेमचंद ने
भी तदनुरूप अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह किया. उन्होंने धर्म को एक सामाजिक रूप दिया
और तटस्थ रहकर, सामाजिक परिस्थितियों में उलझे हुए मनुष्य के धार्मिक विचारों को बनते-बिगडते
दिखाया. (वही). उन्होंने अपनी कथाकृतियों में सामाजिक संघर्ष का चित्रण करते समय आदर्श
से अनुप्राणित यथार्थ के चित्रण की प्रविधि अपनाई. ‘उन्होंने परिस्थितियों को घटा-बढ़ाकर
नहीं चित्रित किया. अपने युग की निर्धनता, दासता और पीड़ितों की आर्त वेदना को जैसा
उन्होंने अनुभव किया था वैसा दूसरे ने नहीं. प्रेमचंद की कृतियों का हमारे लिए यह संदेश
है कि हम जनता में जाकर रहें और काम करें; अपनी रचनाओं में जनता जनता कम चिल्लाएँ.’
(वही). यहाँ प्रेमचंद की तत्कालीन लोकप्रियता और आज के समय में प्रासंगिकता दोनों के
मूल कारण को डॉ. रामविलास शर्मा ने एकदम सही पकड़ा है. प्रेमचंद न तो यथार्थ को आदर्श
के सम्मुख छोटा करते हैं और न ही विकृति की हद तक बड़ा बनाते हैं. इसीलिए उनके यहाँ
यदि निर्धनता, दासता और पीड़ा की पुकार है तो संघर्ष, जिजीविषा, स्वाभिमान और मानवीय
मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता भी है जो उनके लेखन को भारत की ज़मीन से जोड़ती है. यह
ज़मीन से जुड़ने का गुण ही उन्हें सदा वर्तमान बने रहने की ताकत देता है. डॉ. रामविलास
शर्मा ने इसी को उनकी रचनाधर्मिता से प्राप्त होने वाला संदेश माना है – ‘जनता में
जाकर रहें और काम करें.’ इस स्तर पर प्रेमचंद मध्यवर्ग के अनेक निष्क्रिय बुद्धिजीवियों
से एकदम अलग दिखाई देते हैं – जन से प्रतिबद्ध. यह प्रतिबद्धता उन्हें अपने स्तर पर
सक्रिय आंदोलनकारी बनाती है. एक ऐसा लेखक जिसकी किताब अपने आंदोलनी तेवर के कारण जब्त
की जाती है और जिसे अंततः सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ती है. अपनी भाषा और अपना नाम तक बदलना
पड़ता है. जनता के साथ एकमेक होने के कारण ही उनकी रचनाओं में नारेबाजी नहीं बल्कि गहरी
लोकानुभूति मिलती है.

प्रेमचंद के युग की तुलना में अगर हम आज (2016) के
युग को देखना चाहें तो कहना होगा कि यह युग पानी भरने के लिए धूप में सूखे होंठों प्रतीक्षा
करती खड़ी ग्रामबालाओं के मरने और क़र्ज में डूबे किसानों के आत्महत्या करने का युग
है. हमारे युग का यह यथार्थ ही प्रेमचंद की अद्यतन वर्तमानता का आधारभूत कारण है. जबतक
भारतीय किसान की भूख और प्यास कायम है, तब तक प्रेमचंद के साहित्य की वर्तमानता कायम
रहेगी. दरअसल, प्रेमचंद का समय भारतीय किसानों के लिए भारी परीक्षा का समय था.
1920 के आसपास भारत में अनेक स्थानों पर किसान आंदोलन फूट रहे थे. एक सजग रचनाकार के
नाते प्रेमचंद इनसे भली प्रकार परिचित थे. प्रेमचंद ने भारतीय समाज की संरचना को भी
उसकी विसंगतियों के साथ गहरे विश्लेषित किया था, समझा था. इसमें संदेह नहीं कि भारतीय
समाज तब भी और आज भी धर्मों, वर्णों और जातियों में बंटा समाज था और है. लेकिन प्रेमचंद
इस ऊपरी संरचना को भेदकर भारतीय समाज की भीतरी आर्थिक संरचना को देख पा रहे थे. उन्हें
मालूम था कि यह समाज हिंदू और मुसलमान में बँटा हुआ है. उन्हें यह भी मालूम था कि यह
समाज अगड़ों और पिछडों में बँटा हुआ है. वे यह भी जानते थे कि इस समाज में पुरुष और
स्त्री के अधिकारों में बहुत अंतर है. लेकिन अपनी रचनाओं में उन्होंने इन विरुद्धों
को संघर्षरत नहीं दिखाया. उन्हें उस असली विरोधी द्वंद्व की पहचान थी जो इस देश की
निर्धनता, दासता और पीड़ा का मूल कारण है. वह परस्पर विरोधी द्वंद्व है - प्रभुतासंपन्न
वर्ग बनाम दीन हीन जनता का द्वंद्व. इनमें से प्रभुतासंपन्न वर्ग में जमींदार, महाजन
और अंग्रेजी राज के हाकिम तथा उनके पिछलग्गू शामिल हैं. यही कारण है कि प्रेमचंद धर्म,
वर्ण, जाति, भाषा या क्षेत्र के आधार पर संगठित होने या आंदोलन चलाने की बात कहीं भी
नहीं करते; बल्कि बार-बार इस प्रभु वर्ग के शोषक चरित्र को बेनकाब करके दीन हीन शोषित
जनता को जागरूक और सक्रिय बनाने का प्रयास करते हैं. आज जब भारतीय समाज और राजनीति
में एक बार फिर धर्म, वर्ण, जाति, भाषा और क्षेत्र के भेद और इन भेदों के आधार पर संगठित
होकर सत्ता प्राप्त करने के प्रयास इस देश को खंडित करने की सीमा तक सक्रिय दिखाई दे
रहे हैं, प्रेमचंद की वर्गदृष्टि और राष्ट्रीय चेतना उनके साहित्य की प्रासंगिकता को
रेखांकित कर रही है. इसमें संदेह नहीं कि ‘ऊँच नीच के भेदभाव
के प्रति प्रेमचंद से अधिक सचेत और कोई हिंदी लेखक नहीं था. पर
उनके कथासाहित्य में वर्ग संघर्ष है, जमींदारों, महाजनों, अंग्रेजी राज के हाकिमों
के विरुद्ध संघर्ष है; अगड़ी-पिछड़ी जातियों के बीच संघर्ष नहीं है. कहीं भी यह संकेत
नहीं है कि बिरादरी के आधार पर सब लोग एक हो जाएँ तो उनका उद्धार हो जाएगा.’ (रामविलास
शर्मा, 1994).
यह तो हुई भारतीय राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य की
बात. अब यदि तब के और अब के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का तुलनात्मक अवलोकन करें तो सबसे
पहले यह सत्य दिखाई देगा कि पहले दो महाशक्तियाँ थीं परंतु अब एक ही रह गई है. यह महाशक्ति
मीडिया और बाजार से खाद-पानी पाकर निरंतर दैत्याकार होती जा रही है. पूँजी और मुनाफ़े
पर आधारित इस महाशक्ति के पास दुनिया को पलक झपकते नष्ट कर सकने में समर्थ आणविक अस्त्र-शस्त्रों
का जखीरा है लेकिन नैतिक शक्ति का अभाव है. जैसा कि डॉ. रामविलास शर्मा ने लक्षित किया
है, ‘जनतंत्र का ढोल पीटने वाला अमेरिकी पूँजीवाद दुनिया पर अपनी डिक्टेटरशिप कायम
कर रहा है. इस डिक्टेटरशिप को खत्म करने का मूलमंत्र है – स्वदेशी. भारत जितना ही आत्मनिर्भर
बनेगा, उतना ही वह अपनी एकता और स्वाधीनता
की रक्षा करने में समर्थ होगा, उतना ही साम्राज्यवादी दासता से विश्वजनता की मुक्ति
में सहायक होगा. आगे आने वाले दिनों में हमारे महान लेखक प्रेमचंद का साहित्य संघर्ष
में प्रेरणा देगा, विजय में हमारी आस्था को दृढ़ करेगा. हमारे साहित्य की और हमारे राष्ट्रीय
जीवन की सचाई एक दिन अवश्य सारे अंधकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला
देगी.’ (वही).
प्रेमचंद की कालजयी वर्तमानता राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
परिदृश्य की उनकी समझ और तदनुरूप साहित्यिक प्रयास से तो सिद्ध होती ही है; उनकी साहित्य
दृष्टि से भी प्रमाणित होती है. उनकी साहित्य दृष्टि उनकी विश्व दृष्टि का आधार है.
वे साहित्य को मनोरंजन और विलासिता का उपकरण बनाने के सख्त खिलाफ थे. वे मानते थे कि
साहित्य उस उद्योग का नाम है जो आदमी ने आपस के भेद मिटाने और उस मौलिक एकता को व्यक्त
करने के लिए किया है, जो इस जाहिरी भेद की तह में, पृथ्वी के उदर में व्याकुल ज्वाला
की भांति छिपी हुई है. यहाँ आपस के भेद मिटाने और मौलिक एकता को व्यक्त करने जैसे प्रयोजनों
के साथ साहित्य को जोड़कर प्रेमचंद ने रस, साधारणीकरण और लोकमंगल जैसी अवधारणाओं को
नितांत मौलिक अर्थबोध से संपन्न किया है. पृथ्वी के उदर में छिपी व्याकुल ज्वाला, प्रेमचंद
की इस मौलिक साहित्य दृष्टि में, वह स्थायी भाव है जो संपूर्ण मनुष्यता को मानवीय करुणा
के धरातल पर जोड़ता है. उन्होंने बलपूर्वक यह रेखांकित किया कि ‘सत्य’ और ‘असत्य’ का
संघर्ष बराबर चला आता है और जब तक साहित्य की सृष्टि होती रहेगी, यह संघर्ष साहित्य
का मुख्य आधार बना रहेगा. वास्तव में, साहित्य की सामाजिक उपयोगिता और इस विश्व दृष्टि
से ही होकर उसकी शाश्वतता का रास्ता जाता है. इसके लिए आवश्यक है कि लेखक को अपने समय
में विद्यमान ‘सत्य’ और ‘असत्य’ की सही पहचान हो और इनके संघर्ष में वह सत्य के पक्ष
में डटकर खड़ा हो. प्रेमचंद को इन शक्तियों और इनके संघर्ष की पहचान तो थी ही, ‘सत्य’
के प्रति उनकी वचनबद्धता भी स्पष्ट थी. यही कारण है कि आदर्शवादी युग में वे यथार्थवादी
दृष्टिकोण अपना रहे थे. आदर्श और यथार्थ का संघर्ष कथाकार प्रेमचंद का भी संघर्ष है.
इस संघर्ष में उन्होंने सामंजस्य का मार्ग चुना और आर्थिक शोषण का उसकी पूरी भयावहता
के साथ यथार्थ चित्रण किया. वे यही नहीं रुके बल्कि इस यथार्थ का विश्लेषण करते हुए
समाज समीक्षा के दायित्व को भी संपन्न किया. साथ ही अपनी आदर्शवादी भावना के अनुरूप
जहाँ संभव हुआ, वहाँ समाधान भी सुझाया.
प्रेमचंद को उस समय में आज की बाज़ारवादी सभ्यता की
आहटें सुनाई देने लगी थीं. इस नई सभ्यता को उन्होंने ‘महाजनी सभ्यता’ कहते हुए आलोचना
का निशाना बनाया. उनकी यह समझ आज भी अत्यंत सटीक है कि ‘नई सभ्यता में पैसे का स्थान
सर्वोपरि है. साम्राज्यवाद के आवश्यक गुण मजबूत कलेजा और बलवान भुजाएँ नहीं हैं. उसके
लिए बुद्धि का धन संचय के लिए उपयोग तथा मौन आज्ञा पालन आवश्यक है. इस सभ्यता ने समाज
को दो अंगों में बाँट दिया है : जिनमें एक हड़पने वाला है, दूसरा हड़पा जाने वाला है.’
(महाजनी सभ्यता). वे मानते थे कि अंग्रेजी राज द्वारा कायम की गई नई शिक्षा स्वार्थ
की भित्ति पर खड़ी हुई है और उसके द्वारा प्रवर्तित
आधुनिक व्यापार और नई औद्योगिकता मनुष्य को
क्रमशः दैत्य बना रही है. आर्थिक परिदृश्य की उनकी यह समझ 1925 में प्रकाशित
‘रंगभूमि’ में स्पष्ट देखी जा सकती है. स्मरण रहे कि यह उनके सरकारी नौकरी छोड़ने
(1921) के बाद का उपन्यास है. अतः इसमें ब्रिटिश रीति-नीति की आलोचना अधिक मुखर होकर
अभिव्यक्त हुई है. प्रेमचंद सूरदास के माध्यम से उन प्रयासों का विरोध करते हैं जो
गाँव को आधुनिक व्यापार और नए उद्योग धंधे का केंद्र बनाकर ग्रामीण सभ्यता को उलटना
चाहते हैं. उनका स्पष्ट मत है कि गाँव में कारखाना लगने से किसान और जमींदार दोनों
ही निकम्मे हो जाएँगे. किसान भूमिहीन होकर मजदूर बनेगा और ‘मरजाद’ से पतित होगा जबकि
ज़मींदार उद्योग के हिस्से (शेयर) खरीदकर क्रमशः
भयंकर शोषक शक्ति के रूप में तब्दील हो जाएगा. सूरदास और जॉन सेवक आमने सामने खड़े हुए
दो पात्र ही नहीं है, बल्कि परस्पर विरोधी दो सभ्यताएँ हैं. सूरदास भारतीय ग्राम सभ्यता
का प्रतीक है तो जॉन सेवक पश्चिमी महाजनी सभ्यता का. सूरदास अपनी पैतृक परंपरा से प्रेम
करता है. अपनी ज़मीन को अपने बाप-दादों के नाम से जोड़कर देखता है और उसे अपनी यादगार
बनाना चाहता है. इस वैयक्तिक लगाव के बावजूद वह अपनी ज़मीन का विचार करते समय सामाजिक
लाभ का विचार पहले करता है. वह चाहता है कि वहाँ गाँव भर के बच्चे खेलें और गाँव भर
के पशुओं के लिए चरागाह बने. वह व्यक्तिगत लाभ-हानि से ऊपर उठकर चाहता है कि उसकी ज़मीन
‘अनाचार का ठिकाना’ न बने. दूसरी ओर जॉन सेवक जाति उद्धार, रोजगार सृजन, यात्रियों
के लिए मकान, दूध-मलाई और उपलों की बिक्री, पान की बिक्री और मदरसे की स्थापना ही नहीं,
राष्ट्रीयता की ऊँची-ऊँची बातें करता है. लेकिन उसका आचरण झूठ और पाखंड से परिपूर्ण
है. यदि ‘सत्य’ और ‘असत्य’ के संघर्ष में लेखकीय पक्षधरता वाली प्रेमचंद की कसौटी पर
इन दोनों पात्रों को घिसकर देखें तो सूरदास के रूप में सत्य और न्याय के साथ प्रेमचंद
खड़े हुए दिखाई देते हैं. आज नैतिकता और अनैतिकता के धुंधलके वाले मूल्यमूढ़ उत्तर आधुनिक
समय में ऐसी साफ़ सुथरी प्रतिबद्धता प्रेमचंद को प्रासंगिक बनाती है.
यह जो महाजनी सभ्यता है न; इसने एक नया मूल्य गढ़ा
है – प्रोफेशनलिज्म या व्यावसायिकता का मूल्य. महाजनी या बाजारवादी सभ्यता में व्यवसाय
या लाभ सर्वोपरि मूल्य है. हम आज देख रहे हैं कि बाजार के समक्ष सब प्रकार की नैतिकताएँ
और सारे संबंध बौने हो गए हैं क्योंकि बाज़ार का तो नियम यही है कि ‘बाप बड़ा न भैया,
सबसे बड़ा रुपैया.’ महँगाई बढ़ती है तो बढ़ा करे, लोग मरते हैं तो मरा करें, प्रोफेशनलिज्म
इन विषयों पर द्रवित होना नहीं सिखाती. यही कारण है कि जॉन सेवक कुंवर भरत सिंह से
कहता है, ‘व्यवसायी लोग इन गोरखधंधों में नहीं पड़ते; उनका लक्ष्य केवल वर्तमान परिस्थितियों
पर रहता है.’ (रंगभूमि). वह सूरदास को भी समझाता
है, बल्कि धमकाता है, ‘अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसके
लिए तारों को निशाना मारने वाली तोपें हैं.’ (वही). अभिप्राय यह है कि व्यावसायिकता
का आगमन प्रकारांतर से मर्यादा और मूल्यों के ह्रास का प्रतीक बन गया है. सूरदास मज़दूरों
के आचरण के माध्यम से यह लक्षित करता है कि “वे सारी बस्ती में फैले हुए हैं और रोज
ऊधम मचाते रहते हैं. हमारे मुहल्ले में किसी ने औरतों को नहीं छेड़ा था, न कभी इतनी
चोरियाँ हुई, न कभी इतने धड़ल्ले से जुआ हुआ, न शराबियों का हुल्लड़ रहा. जब तक मजूर
लोग यहाँ काम पर नहीं आ जाते, औरतें घरों से पानी भरने नहीं निकलतीं. रात को इतना हुल्लड़
होता है कि नींद नहीं आती.” इसी प्रकार मकान खाली कराने के संदर्भ में नाकाफी मुआवजा
दिए जाने पर सिपाही का कथन भी द्रष्टव्य है, “मानो दिन दहाड़े डाका पड़ रहा हो.” अभिप्राय
यह है कि महाजनी सभ्यता के आगमन से गाँव का पारंपरिक तंत्र टूट गया है, आपसी संबंधों
की कड़ियाँ तडक गई हैं और लाभ, लोभ तथा मुनाफे के लिए लगभाग लूटपाट और डाके जैसी स्थिति
उत्पन्न हो गई है. यह स्थिति आगे चलकर इतनी विकट हो जाती है कि गोली चालन की नौबत आ
जाती है जिसमें बारह लोग मारे जाते हैं.
यहाँ सूरदास के सत्याग्रह पर भी चर्चा की जा सकती
है. इस सत्याग्रह के कारण ही सूरदास कई बार महात्मा गांधी की झलक देता प्रतीत होता
है. एक प्रकार से सूरदास और जॉन सेवक का संग्राम व्यापक स्तर पर महात्मा गांधी के नेतृत्व
में अंग्रेजों के खिलाफ़ चल रहे स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन जाता है. सूरदास के
सत्याग्रह रूपी संग्राम को छिड़े हुए दो महीने हो गए, समस्या प्रतिदिन भीषण होती जाती
थी, क्योंकि बाजार और सत्ता की शक्तियाँ अपने स्वार्थपूर्ण और दमनकारी हथकंडों से बाज
नहीं आ रही थीं. बहुतों की पकड़-धकड़ हुई, बहुतों को शारीरिक कष्ट दिया गया, जाने कितनों
को अपमानित किया गया, महाजनी सभ्यता अमानुषिक कृत्य पर उतारू थी. “सारे नगर में, गली-गली
में, घर-घर यही चर्चा होती रहती थी. सहस्रों नगरवासी रोज वहाँ पहुँच जाते थे, केवल
तमाशा देखने नहीं बल्कि एक बार उस पर्णकुटी और उसके चक्षुहीन निवासी का दर्शन करने
के लिए और अवसर पड़ने पर अपने से जो कुछ हो सके कर दिखाने के लिए.” (रंगभूमि). सत्याग्रह
का संबंध संयम और धैर्य से है. सत्याग्रह में सत्याग्रही के ही संयम और धर्य की परीक्षा नहीं होती, जनता के भी संयम और धैर्य की
परीक्षा होती है. जिस प्रकार महात्मा गांधी के आंदोलनों में व्यापक भारतीय जन गण ने
अपने संयम और धैर्य का विस्मयकारी प्रदर्शन किया, सूरदास के सत्याग्रह के अवसर पर भी
कुछ-कुछ वही नज़ारा देखने को मिला. “जनता का संयम और धैर्य अब अंतिम बिंदु तक पहुँच
गया है. कोई नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाए. साधारण जनता इतनी स्थिरचित्त और दृढ़व्रत
हो सकती है इसका आज विनय को अनुभव हुआ.” यहाँ जनता और उसके साधारणत्व पर प्रेमचंद का
विशेष बल है जो इसलिए विशिष्ट बन गई है कि स्थिरचित्त और दृढ़व्रत है. चित्त की स्थिरता
और व्रत की दृढ़ता भारतीय काव्यशास्त्रीय परंपरा में नायकत्व की कसौटी है. इसका अर्थ
यह है कि सूरदास के माध्यम से साधारण जनता को नायकत्व प्राप्त हुआ. साधारण जनता को
नायकत्व प्रदान करने की प्रेमचंद की यह सूझ आज भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भी पैसे
और ताकत की राजनीति करने वालों के लिए यह समझना आवश्यक है कि लोकतंत्र में जनता संप्रभु
होती है और उसमें अपने समय को दिशा देने वाले नायकत्व की सारी संभावनाएँ निहित होती
हैं. प्रसंगवश क्लार्क के प्रति सोफी का यह कथन भी विचारणीय है कि “अन्यायपूर्ण शासन,
शासन नहीं युद्ध है.” इस अन्यायपूर्ण शासन के विरुद्ध युद्ध का प्रतीक है सूरदास. तत्कालीन
भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता संग्राम के नेतागण इसके प्रतीक थे और आज भी बाजार, उपभोक्तावाद,
आतंकवाद आदि के विरुद्ध मनुष्य के पक्ष में, मनुष्य के अधिकारों के पक्ष में, युद्ध
का प्रतीक है यह भारतीय विश्वास कि पशुबल चाहे कितना भी प्रबल हो आत्मबल उसकी तुलना
में श्रेष्ठ होता है. यह ठीक है कि अंततः सूरदास धराशायी हो जाता है लेकिन यह आत्मबल
की पराजय नहीं है. इसीलिए तो जनता से विनय ज़ोर देकर यह कहता है, “सत्य की विजय पर आनंद
और उत्सव मनाने का अवसर है.” हम फिर याद करें कि प्रेमचंद के लिए साहित्य की कसौटी
सत्य और असत्य के संघर्ष में सत्य की पक्षधरता है. जिस महाजनी सभ्यता और व्यावसायिक
दृष्टिकोण से आज का पूरा समाज ग्रसित है उसके प्रतिनिधि के रूप में जॉन सेवक का यह
कथन बाजार की भीतरी सच्चाई को अनावृत करता है कि “व्यवसाय कुछ नहीं है अगर नर हत्या
नहीं है. आदि से अंत तक मनुष्यों को पशु समझना और उनसे पशुवत व्यवहार करना इसका मूल
सिद्धांत है. जो यह नहीं कर सकता वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता.” यहाँ यह भी ध्यान
में रहे कि तत्कालीन सत्ता अर्थात अंग्रेज भारत में व्यवसाय के लिए ही आए थे और जब
उन्हें लगने लगा कि भारत में अब और बने रहना घाटे का सौदा है तो वे इस देश के टुकड़े
करके बड़ी सफाई से वापस लौट गए. उनकी शासन नीति का आधार शोषण था. महात्मा गांधी हों
या प्रेमचंद हों, दोनों ही ग्राम सभ्यता पर केंद्रित ऐसे स्वराज्य की कामना करते थे
जिसमें सत्ता और जनता के बीच सहृदयता का संबंध हो. लेकिन अंग्रेज अधिकारी इसका उलटा
सोचते हैं. उदाहरण के लिए सोफी से क्लार्क कहता है, “हम यहाँ शासन करने के लिए आते
हैं. अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं. जहाज से उतरते
ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं. हमारा न्याय, हमारी सहृदयता, हमारी सदिच्छा
सबका एक ही अभीष्ट है. हमारा प्रथम और अंतिम उद्देश्य शासन करना है.” ऐसे शासन से किसी
प्रकार के लोक कल्याणकारी कार्य की आशा नहीं की जा सकती. यही कारण है कि सूरदास इस
पूरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होता है और अपने अंतिम क्षण में यह भी कह जाता है कि हम
भारतीय अपने संघर्षों में इसलिए हारते हैं कि हम अलग-अलग होकर लड़ते हैं. हम धर्मों,
जातियों, वर्णों, क्षेत्रों., भाषाओं जैसे भेदभावों में बंटे हुए हैं और इसलिए एकजुट
होकर नहीं लड़ते हैं, जबकि अंग्रेज एक होकर लड़ते हैं. सूरदास चेतावनी देता है कि आज
हम अनाड़ी हैं लेकिन तुम्हारी इस नीति को पहचान गए हैं और एक दिन वह आएगा जब हम एकजुट
होकर लड़ेंगे और तुम्हें तुम्हारे ही खेल में हराकर दिखाएँगे. और तमाम बातों को छोड़
भी दें तो इसमें संदेह नहीं कि सूरदास के इस कथन में आज भी हमारे लिए अनिवार्य संदेश
निहित है. विकास के पथ पर बढ़ते हुए आज के भारत को दुनिया की अनेक शक्तियाँ दबाना और
रोकना चाहती हैं. ऐसे में यदि इस देश को विभिन्न क्षेत्रों में विकास के उच्च शिखरों
पर पहुँचना है तो हर चुनौती का एक होकर एकजुट होकर, मुकाबला करना सीखना पड़ेगा. निस्संदेह
यह समझ ‘रंगभूमि’ की प्रासंगिकता और वर्तमानता का बहुत बड़ा आधार है.
प्रेमचंद “उन सारी बातों के विरुद्ध थे जो मनुष्य-मनुष्य
के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, अमीर-गरीब के बीच, ज़मींदार और किसान के बीच, यहाँ तक
कि भगवान और आदमी के बीच भी फाँक पैदा करती हैं.” (डॉ. गोपाल राय). इसके अलावा जैसा
कि प्रेमचंद के अत्यंत निकट रहे और कथा जगत में उनके वारिस जैनेंद्र ने एक साक्षात्कार
में बताया है, प्रेमचंद ‘धन के दुश्मन’ थे. वे आज़ादी की समस्या को भी आर्थिक शोषण और
दमन सु जुड़ी समस्या के रूप में देखते थे. भारत के गाँवों के अर्थशास्त्र को उन्होंने
भली प्रकार समझा था और वे जान गए थे कि सरकार, महाजन और जमींदार तीनों मिलकर एक ऐसे
गठबंधन की रचना करते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य शोषण को बरकरार रखना है. किसानों की
निर्धनता, उनकी दयनीय जीवन दशा और अमानवीय परिस्थितियाँ इस गठबंधन के दबाव के कारण
निरंतर विकट से विकटतर होती जाती थीं. भूमिकर और वसूली तंत्र के सहारे यह गठबंधन किसानों
को जन्म जन्म तक गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र चला रहा था. प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं
में इस षड्यंत्र का बेख़ौफ़ खुलासा करते हुए तत्कालीन शिक्षा, अदालत और पुलिस जैसी सरकारी
संस्थाओं की जो आलोचना की है उसके लिए आत्मबल और निष्ठा से जुड़ा साहस चाहिए. लेखन कर्म
से जुड़े तमाम लोगों के लिए प्रेमचंद अपने इस आत्मबल और साहस के कारण आज भी चुनौती हैं.
तंत्र की आलोचना के साथ साथ वे भारतीयों की गुलाम मानसिकता की भी आलोचना करने से गुरेज
नहीं करते. उन्हें हिंदुस्तानियों की अंग्रेजियत अत्यंत विडंबनापूर्ण लगती है. ‘रंगभूमि’
में राजपूताने के राजा विशाल सिंह के राज्य के बहाने प्रेमचंद ने भारतीयों की गुलाम
मानसिकता पर करारी टिप्पणी की है. विनय ने देखा कि उस राज्य के शहरों में सड़कें, पाठशालाएँ,
चिकित्सालय सबके नाम अंग्रेजी में थे. “ऐसा जान पड़ता था कोई भारतीय नगर नहीं, अंग्रेजों
का शिविर है. ××× इतना नैतिक पतन, इतनी कायरता! यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा है.”
आजादी के बाद भी भारतीयों की इस गुलाम मानसिकता में कोई खास बदलाव आया है, कहा नहीं
जा सकता. आज फिर किसी प्रेमचंद की आवश्यकता है जो सीना तानकर हिंदुस्तानी अवाम और नेतागण
की आँख में आँख डालकर कह सके – ‘इतना नैतिक पतन, इतनी कायरता, यों राज्य करने से डूब
मरना अच्छा है.’

अब कुछ बातें ‘गोदान’ के हवाले से. जिस प्रकार की
नई सभ्यता का विकास पिछले साठ या सत्तर वर्षों में हमने किया है उसका लब्बोलुआब यह
है कि आज जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों अथवा नैतिकताओं का अकाल
सा पड़ गया है. इसका कारण है कि प्रेमचंद का सर्वथा साधनहीन और विपन्न पात्र भी जिस
‘मरजाद’ की चिंता करता है, आज का सुविधाओं और संसाधनों से संपन्न समाज उसकी तनिक भी
परवाह नहीं करता. चंद्र प्रकाश खन्ना जो एक शुगर मिल का मालिक है, उस ज़माने में कम
से कम इतना तो मनुष्य था कि उसे यह अहसास था कि व्यावसायिक लाभ के लिए उसने बार बार
सिद्धांतों की हत्या की है. इसके विपरीत आज स्थिति यह है कि हम सीना ठोककर यह पूछने
लगे हैं कि सिद्धांत किस चिड़िया का नाम है. जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक धन बटोरने
की स्पर्धा में न्याय, सिद्धांत, सत्य जैसे मूल्य कहीं नहीं ठहर रहे हैं. करोड़ों करोड़
का घोटाला करके भी लोग इस महाजनी सभ्यता में सुर्खुरू घूमते दिखाई देते हैं. प्रेमचंद
को मालूम है कि ये जो लोग लखपति, करोड़पति और
अरबपति बनते हैं, उनकी सच्चाई क्या है. खन्ना के शब्दों में, “आप नहीं जानते मिस्टर
मेहता, मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है. कितनी रिश्वतें दी है, कितनी रिश्वतें
ली है. किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाँट रखे.” (गोदान). आज
हालात इससे बदतर है और विडंबना यह है कि चोर ही शाह बने बैठे हैं. अपराध, पूँजी और
राजनीति के बीच एक ऐसी दुरभिसंधि है जिसमें आम आदमी निरंतर पिस रहा है. ‘गोदान’ में
प्रेमचंद ने इस दुरभिसंधि को पहचान लिया था. तभी तो उन्होंने यह दर्शाया कि चंद्र प्रकाश
खन्ना मजदूरों के नेता भी है और धनपतियों के रक्षक भी. यह हमारी आज की राजनीति का भी
चरित्र है. नेता आप मज़दूरों और किसानों के हैं, लेकिन हित-चिंता आपको व्यापारियों,
व्यवसायियों, उद्योगपतियों और पूँजीपतियों की है क्योंकि चुनाव उन्हीं के पैसे लड़े
जाते हैं. जिस प्रकार यह संभव नहीं है कि मज़दूरों के नेता बने हुए खन्ना शक्कर मिल
के अपने हिस्सेदारों के हित का विचार न करें, उसी प्रकार यह संभव नहीं है कि दीन हीन
विपन्न जनता के नेता बने हुए लोग अपने दलों के संरक्षक धनपतियों के हितों का विचार
न करें. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचंद ने पिछली शताब्दी के आरंभिक दशकों में ही इस
शताब्दी के आर्थिक, राजनैतिक विद्रूप के दर्शन कर लिए थे. यह हिस्सेदारी आज भी कई तरह
से चालू है. और इसीलिए मेहता के रूप में प्रेमचंद का यह तर्क भी वर्तमान संदर्भ में
भी पूरी तरह प्रासंगिक है कि “क्या आप का विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती
है कि उसमें (मंदी के बहाने से) चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट न होगा? आपके मजूर
बिलों में रहते हैं – गंदे बदबूदार बिलों में – जहाँ आप एक मिनट भी रह जाए तो आपको
कै हो जाए. कपड़े वे जो पहनते हैं उनसे आप अपने जूते भी न पोंछेंगे. खाना जो वे खाते
हैं, आपका कुत्ता भी न खाएगा. आप उनकी रोटियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना
चाहते हैं.” (गोदान).
आज भी विभिन्न सरकारें क्या यही नहीं कर रही हैं?
उस पर तुर्रा यह कि कथनी और करनी का अंतर बेशर्मी की हद तक बढ़ गया है. राय साहब के
चरित्र के दोगलेपन में प्रेमचंद ने इसका पूर्वाभास प्रस्तुत किया है. राय साहब जब मेहता
के समक्ष पूँजीवाद की आलोचना करते हुए यह कहते हैं कि “किसी को भी दूसरों के श्रम पर
मोटे होने का अधिकार नहीं है. उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है.” (गोदान); तो इस पर
मेहता की बेबाक टिप्पणी आज भी इस देश के अनेक नेताओं के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती
है, “आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती.” (गोदान).
प्रेमचंद की समझ में यह बात भली भाँति आ गई थी कि
पूँजीवाद उस समय (पिछली शताब्दी के चौथे दशक) तक जिस अवस्था में पहुँच चुका था, उससे
आगे मूल्यों का बड़ा संकट पैदा होने वाला था. पूँजीवादी व्यवस्था बुरी चीज है लेकिन
बाज़ारवादी सभ्यता उससे भी बुरी चीज है – ऐसा प्रेमचंद को लगता था; और सही ही लगता था.
उसका कारण है; और इस कारण को उन्होंने होरी के मुँह से कहलवाया है. होरी की समझ में
यह बात आ गई है कि “ज़मींदार तो एक ही है मगर महाजन तीन-तीन हैं. सहुआइन अलग, मंगरू
अलग और दातादीन पंडित अलग.” (गोदान). आगे के समय में ज़मींदारी प्रथा तो समाप्त हो गई,
लेकिन महाजनी सभ्यता बाज़ारवाद के रूप में इतनी अधिक फैल गई कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम
दशकों में और इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में पूरे देश में इस महाजनी सभ्यता से ग्रसित
और त्रस्त किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ आम हो गईं. दुलारी सहुआइन और मंगरू साह का
जो चित्र प्रेमचंद ने प्रस्तुत किया है वह किसी सुरसा या किसी यमदूत जैसा है. दुलारी
सहुआइन के दर्शन कीजिए, “पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का
झूमक, आँखों में काजल लगाए, बूढ़े यौवन को रँगे रँगाए.” (गोदान). शायद यही वह पूँजीवाद
है जिसकी कोख से उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद जन्मता है. अब ज़रा मंगरू साह रूपी यमदूत
का भी अवलोकन कर लें - “काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई, दो बड़े-बड़े दाँत सामने
जैसे काट खाने को निकले हुए. गठिया का मरज हो गया था. खाँसी भी आती थी.” (गोदान). प्रेमचंद
ने उसे ‘कुकर्म का साक्षात अवतार’ कहा है. स्पष्ट है कि ये महाजनी सभ्यता के दूत प्रेमचंद
के समय से आज तक भारतीय किसान की छाती पर चढ़े हुए हैं, लगातार उसका गला दबा रहे हैं.
ऐसी स्थिति में यदि गिरधर पगार मिलने पर इकन्नी
की ताड़ी पीकर मिल के फाटक पर आसन जमा लेता है तो यह पूरे परिदृश्य को और अधिक कारुणिक
बनाने वाली सच्चाई है – “गिरधर ने पेट दिखाकर कहा – साँझ हो गई जो पानी की बूँद भी
कंठ तले गई हो तो गोमांस बराबर. एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी. उसकी ताड़ी पी ली. सोचा
साल भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी भी पी लूँ. मगर सच कहता हूँ नसा नहीं है. एक
आने में क्या नसा होगा. हाँ, झूम रहा हूँ जिससे लोग समझें कि खूब पिए हुए हूँ. बड़ा
अच्छा हुआ काका (झिंगुरी सिंह), बेबाकी हो गई. बीस लिए थे, उसके एक सौ साठ भरे हैं,
कुछ हद है?” (गोदान). हद न ‘गोदान’ के समय थी और न ‘कफ़न’ के समय. आज भी नहीं है.
जिस प्रकार गिरधर का ताड़ी पीना जहाँ ‘कफ़न’ के घीसू
और माधव के ताड़ी पीने की याद दिलाता है और दरिद्रता के अमानुषिक यथार्थ पर से पर्दा
उठाता है, इसी प्रकार धनिया का होरी के प्रति कथन ‘पूस की रात’ की याद दिलाता है. किस
तरह किसान अपनी माँ समान धरती को खोकर महाजनी सभ्यता के शिकार होकर मज़दूर बनाने को
विवश हैं! देखें – “अब और कौन आमदनी है जिससे गोई आवेगी? हल में क्या मुझे जोतोगे,
या आप जुतोगे? पूस की यह ठंड; और किसी की देह पर लत्ता नहीं. ले जाओ सबको नदी में डुबो
दो. कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे. और पुआल में घुस भी लें तो पुआल खाकर रहा न
जाएगा. तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ, हमसे तो खाई न जायगी.” (गोदान). आक्रोश, करुणा,
रुदन, विडंबना, व्यंग्य – क्या नहीं है धनिया के इस कथन में; और कौन कह सकता है कि
यह कथन आज प्रासंगिक नहीं रह गया है? अस्तु.
‘गोदान’ का अंतिम अंश देखते चलें – “ऐसी लू लगी होरी
को कि उसके प्राण ही ले लिए.” (गोदान). प्रेमचंद की इसी तेवर की कहानी ‘सद्गति’ यहाँ
याद आती है. और साथ ही आँखों के सामने घूम जाता है सन 2016 के अप्रैल माह के तपते भारत
का यह नंगा सच कि आज भी भीषण धूप और लुओं के बीच पानी के लिए तरसते हुए किसान, मज़दूर
और उनके बच्चे तड़प तड़प कर मर जाते हैं. उस समय में दातादीन पंडित महाजनी सभ्यता का
एजेंट बना होरी की मृत्यु का गोदान स्वीकार कर रहा था तो एक तरफ आज के नेतागण पानी
के लिए मरती साधारण जनता की मौत पर राजनीति करते हैं तथा दूसरी तरफ मीडिया अपनी टीआरपी
का खेल खेलता है. ये सब भी दातादीन की तरह ही बाज़ार संस्कृति के एजेंट हैं – “पति के
ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली
- महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा. यही पैसे हैं, यही इनका गोदान
है. – और पछाड़ खाकर गिर पड़ी.” (गोदान).
प्रेमचंद के दोनों चर्चित उपन्यासों ‘रंगभूमि’ और
‘गोदान’ को देखने से यह बात स्पष्ट होती है कि प्रेमचंद यह भली प्रकार समझते थे कि
असंगठित किसान शोषित बने रहने के लिए अभिशप्त है क्योंकि वह शोषक शक्तियों का प्रतिरोध
करने में असमर्थ रहता है. प्रेमचंद ने अपने ढंग से उन शक्तियों का विरोध और प्रतिरोध
करने का साहस दिखाया. जैसा कि डॉ. गोपाल राय मानते हैं, देसी राजाओं, ताल्लुकेदारों,
महाजनों, पूँजीपतियों, सरकारी अमलों, अंग्रेज भक्त बुद्धिजीवियों, अंग्रेजी शिक्षा
पद्धति, अंग्रेजी न्यायपालिका आदि का विरोध अंततः औपनिवेशिक शासन का ही विरोध था. इसमें
संदेह नहीं कि उस समय यह औपनिवेशिक शासन ही समस्त प्रकार के शोषण में लिप्त था. इसके
प्रतिवाद के रूप में जहाँ ‘रंगभूमि’ में सूरदास, सोफिया और विनय जैसे पात्र सामने आते
हैं वहीं ‘गोदान’ में एक ओर तो होरी और धनिया अपने अपने पारंपरिक विश्वासों के साथ
इस शोषक व्यवस्था के समक्ष खड़े होने का प्रयास करते हैं तथा दूसरी ओर लेखक गोबर और
झुनिया, मातादीन और सिलिया तथा मेहता और मालती के माध्यम से सामाजिक, सांस्कृतिक और
वैचारिक परिवर्तन का मार्ग भी सुझाता है. एक भारतीय साहित्यकार के रूप में प्रेमचंद
की भारतीय जनता, भारतीय किसान और वस्तुतः भारत की मुक्ति के प्रति प्रतिबद्धता अंतर्धारा
के रूप में उनके साहित्य में प्रवाहित दिखाई देती है. वे इस बात से चिंतित और दुखी
है कि किसानी सभ्यता मर रही है और महाजनी सभ्यता उभर रही है. उनकी चिंता और वेदना का
कारण यह है कि इस सभ्यता संघर्ष में सत्य, न्याय, मर्यादा आदि मूल्य मिट रहे हैं और
असत्य, अन्याय तथा अमर्यादित आचरण को गौरवान्वित किया जा रहा है. यह संकट प्रेमचंद
के समय का ही संकट नहीं था बल्कि हमारे समय का भी संकट है और यही वह केंद्रबिंदु है
जो प्रेमचंद को आज भी प्रासंगिक और वर्तमान बनाए हुए है.

डॉ. ऋषभदेव शर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार
सभा,
हैदराबाद