बुधवार, 31 जुलाई 2024

दिन कुछ ख़ास है !

 


प्रेमचंद की लोकप्रियता और उपयोगिता

आज पुन: थोड़ा गुनते-गुज़रते हैं....

प्रो. हसमुख परमार

हिन्दी के एक विद्यार्थी, एक शोधार्थी, एक अध्यापक, एक विशिष्ट अध्येता तथा इन सबसे अलग सिर्फ़ एक सामान्य, पर नियमित पाठक के लिए पूरे साल प्रेमचंद का स्मरण तथा उनको पढ़ना-गुनना एक सहज बात है । स्मरण की वज़ह बड़ी साफ है- प्रेमचंद की ख्याति व उपयोगिता, साथ ही हिन्दी जगत की अकादमिक-गैरअकादमिक निवार्य-अनिवार्य जरूरतें ! परंतु 31 जुलाई के दिन सहज या सुनियोजित रूप से सामूहिक स्तर पर गोष्ठियों-संगोष्ठियों व अन्य भव्य कार्यक्रमों के मंचों से तथा हिन्दीसेवियों की लेखकीय गतिविधियों के जरिए प्रेमचंद को याद करना मतलब जीवंत को और ज्यादा जीवंत करना, हमारे इस साहित्यिक हमसफ़र को और निकट से देखना, जो उनकी महानता को और उनके मायने को और ज्यादा बुलंद करता है । हम यह भी देखते हैं कि इस अवसर पर प्रेमचंद का लगभग प्रत्येक साधारण-असाधारण पाठक प्रेमचंद की महानता, लोकप्रियता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता से संबद्ध कुछ सवाल या मुद्दों पर कुछ सोचने व जानने को उत्सुक रहता है । एक ऐसे ही सामान्य पाठक की हैसियत से एक सवाल यहाँ रखते हैं । सवाल है- प्रेमचंद और उनके लेखन में ऐसा तो क्या है जिससे कि वे न सिर्फ़ हिन्दी जगत में, न सिर्फ़ भारतीय साहित्य में, बल्कि वैश्विक स्तर पर ख्यात दास्तोवस्की, टॉल्सटॉय, चेखव, गोर्की, मण्टो जेसे महान कथाकारों की पंक्ति में शुमार होकर आज एक शताब्दी के बाद भी अपनी ख्याति  और उपयोगिता की बुलंदियों को छू रहे हैं ।  

सवाल है बहुजवाबी ! यदि जवाब एक तो जवाब बहुआयामी ! चलिए , इसे लेकर कतिपय तथ्यों तथा विचार बिंदुओं को रेखांकित करते हैं-

प्रेमचंद के साहित्य में जीवन व समाज की सच्चाई तथा समग्रता का बोध- सामाजिक सरोकार और जीवन यथार्थ ही तो प्रेमचंद के लेखन की मूल व ठोस जमीन रही है । वैसे मानवीय संवेदनाओं तथा सामाजिक यथार्थ का बड़ा सर्जक, जो जीवन व समाज का सर्वांगी-समग्रतया रूप का आग्रही होता है, जिसके स्वभाव में आग और राग दोनों वृत्तियाँ रहती हैं जिसके चलते वह व्यक्ति तथा समाज को उसके बहुरंगी-बहुआयामी रूप के साथ अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करता है । कवि की निम्न पंक्तियाँ कवि और कविता तक ही सीमित नहीं; बहुरंगी-बहुरूपी जीवन और समाज को निरुपित करने वाले साहित्यकार और उसके सृजन से भी जुड़ी हैं ।

सत्य बात कवि ही कहे क्योंकि हृदय में आग ।

शिव सुन्दर भी वह कहे क्योंकि हृदय में राग ।।

जहाँ तक प्रेमचंद की बात है तो उनके यहाँ सामाजिक सरोकारों तथा सामाजिकों के जीवनयथार्थ में जीवन की मधुरता-रागात्मकता तथा अन्य सुख-सुकून भरी स्थितियों की अपेक्षा जीवन के संघर्ष, समस्याएँ, जद्दोजहद ही केन्द्र में रहा है और यही उनके लेखन का मूल उद्देश्य भी ।

असल में प्रेमचंद की दृष्टि समाजोन्मुखी रही, साथ ही मनुष्य के स्वभाव व व्यक्तित्व की पहचान भी उन्हें खूब थी । प्रेमचंद की समाज-विधायिनी दृष्टि या उनके समाजदर्शन में हम देखते हैं कि स्वस्थ समाज के आकांक्षी इस लेखक में समाजदृष्टा, समाजसुधारक व समाजउपदेशक तीनों रूप मिलते हैं ।

उपन्यास जगत में एक अवधारणा- महाकाव्यात्मक उपन्यास की भी रही है । “ जब हम कहते हैं कि उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य है, तो इसका अर्थ यह होता है कि महाकाव्य में जगत-जीवन की विराटता अपने वैविध्य, गहरे भाव-बोध, विशिष्ट दर्शन, मानव मूल्य और प्रश्नों के साथ अंकित होती है उसी प्रकार उपन्यास में भी । ” ( हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा, रामदरश मिश्र, पृ.17) हिन्दी के ऐसे उपन्यासों की सूची में प्रेमचंद के उपन्यासों का उल्लेख सर्वप्रथम होता है ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जनता में, जनजीवन में शामिल अपना बहुआयामी व गहरा अनुभव ही प्रेमचंद की मूल लेखकीय ऊर्जा-ऊष्मा रही है एतदर्थ उनका साहित्य गहरे सामाजिक सरोकारों से सम्पृक्त है ।

मानव मूल्यों तथा गाढ़ी मानवीय संवेदना का सजीव दस्तावेज रहा है प्रेमचंद का कथा साहित्य-  मानवतावादी लेखकों में अग्रणी रहे इस लेखक ने समाज के अंतःकरण की सुख-दुःख की तीव्र अनुभूति का अनुभव करते हुए लेखनी चलाई है । इनकी सहानुभूति मुख्यतः निर्धन-सर्वहारा लोगों के साथ रही है । यह कहना अतिरंजना नहीं कि भारतीय सामान्य जन-जीवन को तथा मानवीय मूल्यों को उजागर करने में प्रेमचंद की टक्कर का लेखक मिलना मुश्किल है । “ मानव मूल्यों के संदर्भ में प्रेमचंद का मूल्यांकन जितनी बार किया जायेगा, उतनी बार पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षाएँ निरंतर बनती जायेंगी । कारण यह कि उनके विशाल-व्यापक साहित्य का आधार फलक ही इतना गहरा और विस्तीर्ण है कि उस पर बार-बार कोण बदलते हुए बारम्बार विचार करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी । ” ( प्रेमचंद का रचना-संसार, सं.डॉ. सुशीला गुप्ता, पृ-150)

 

प्रेमचंद और उनका लेखन एक ऐसे जीवन-दर्शन का उत्तम उदाहरण है जो शास्त्रीय-सैद्धांतिक की अपेक्षा व्यावहारिक और जमीनी सरोकारों के साथ  विकसित हुआ । मानवता का परम पोषक तथा त्रासद जन-जीवन का पक्षधर यह लेखक अपने रचना-संसार में कहीं सीधे अपनी ओर से तो कहीं अपने पात्रों के माध्यम से, कहीं लम्बे भाषण के रूप में तो कहीं छोटी-छोटी उक्तियों-सूक्तियों द्वारा मानव जीवन के विविध पक्षों-पहलुओं से संबंधी बड़ा ही व्यावहारिक ज्ञान-दर्शन प्रस्तुत करते हैं ।

हमारे साहित्य की भारतीयता के निकष पर भी  प्रेमचंद का कथा साहित्य पूर्णतः सफल-सार्थक रहा है । भारतीय जीवन का पूर्ण चित्रण ही जिनके लेखन का साध्य रहा है ऐसे प्रेमचंद की भारतीयता में एक तरफ जहाँ प्रादेशिक रंग-रूप की भरमार है, वहीं दूसरी ओर बृहद् भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक स्थितियों की भी बराबर उपस्थिति रही है । असल में उनका साहित्य जन-जन का साहित्य है, जिसमें भारतीय सामाजिक जीवन पूरी पारदर्शिता के साथ प्रतिबिंबित होता है । “ प्रेमचंद की भारतीयता में स्थानीय रंगों की भरमार और राष्ट्रीय इतिहास का ‘स्पेस’ भी उपलब्ध हैं ।  अपनी गाथाओं में भारत के बृहद् इतिहास को ही वे सम्मिलित कर रहे हैं । इसलिए होरी की त्रासदी, निर्मला का कारुणिक अंत, रमानाथ का घिनौनापन, सूरदास का स्थैर्य आदि कुछ उत्तर भारतीय कथापात्रों के वैशिष्ट्य मात्र नहीं है । महाभारत की कथा के पात्रों या रामायण के पात्रों के समान नये-नये विकल्पों के साथ ये हमारी आकांक्षाओं और संघर्षों में विलीन हो जाते हैं । प्रेमचंद की कथाएँ, कथाओं की भंगिमाओं में रचित भारतीय संस्कृति-गाथाएँ हैं ।” ( प्रेमचंद के आयाम, ए. अरविंदाक्षन, पृ-339 )

हिन्दी कथा साहित्य की बुनियाद और बुलंदी, दोनों रूपों में प्रेमचंद की महत्ता को स्वीकार किया गया है । सही मायने में हिन्दी कथा-साहित्य को उसका गौरव व गरिमा दिलाने वाले हिन्दी लेखकों में प्रेमचंद सबसे ऊपर रहे हैं । कहते हैं  कि हिन्दी जगत में पाठकों की साहित्य-रुचि बदलने में प्रेमचंद की बहुत बड़ी भूमिका रही है । डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में- “ ‘चंद्रकांता’ और ‘तिलस्मे होशरूबा’ के पढने वाले लाखों थे । प्रेमचंद ने इन लाखों पाठकों को अपनी तरफ़ ही नहीं खींचा, ‘चंद्रकांता’ में अरुचि भी पैदा की । जन-रुचि के लिए उन्होंने नए माप-दण्ड कायम किए और साहित्य के नए पाठक और पाठिकाएँ भी पैदा किए  । यह उनकी जबरदस्त सफलता थी ।”  प्रेमचंद जिस तरह साहित्य को जीवन के निकट लाये, साहित्य की भाषा को भी बोलचाल की भाषा के निकट लाये । जनभाषा के इस ज्ञाता ने अपने साहित्य में इसका भरपूर प्रयोग किया । “ प्रेमचंद का भाषा संबंधी सिद्धांत- कौम की ज़बान वह है, जिसे कौम समझे, जिसमें कौम की आस्था है, जिसमें कौम के जज़बात हों ।” ( हिन्दी उपन्यास: विशेषतः प्रेमचंद, आ.नलिन  विलोचन शर्मा, पृ.41)

दरअसल हिन्दी कथा साहित्य को आधुनिक परिवेश प्रेमचंद द्वारा ही मिला । हिन्दी के साथ-साथ उर्दू कथा साहित्य में भी उनकी उतनी ही पहुँच व केन्द्रीयता रही । “ उन्होंने दो सर्वथा भिन्न सामाजिक एवं धार्मिक परंपराओं के साहित्य में सांस्कृतिक एवं साहित्यिक आधारों पर समान रूप में लोकप्रियता एवं सम्मान प्राप्त किया । उर्दू और हिन्दी दोनों में प्रेमचंद को कथा साहित्य का निर्माता माना गया है । उनके पूर्व दोनों भाषाओं में कथा साहित्य किसी सीमा तक अनुवाद मात्र था अथवा गल्प या दास्तान । आधुनिक परिवेश प्रेमचंद द्वारा मिला है । प्रेमचंद उर्दू-हिन्दी दोनों भाषाओं के लिए प्रयत्नशील रहे ।”  ( प्रेमचंद: उर्दू-हिन्दी कथाकार, जाफ़र रजा, पृ.70)

प्रेमचंदोत्तर तथा सांप्रत हिन्दी कथा-साहित्य की भी थोडी-बहुत संवेदनात्मक व वैचारिक जमीन को प्रेमचंद के कथा साहित्य में ढूँढना न तो अनुचित होगा और ना ही अतिरंजना । इस लेखक की हिन्दी कथा साहित्य को एक महत्वपूर्ण देन है कि वे अपने समकालीन तथा बाद के, यहाँ तक कि आज के भी हिन्दी कथा लेखकों को अपनी लेखकीय दृष्टि व संवेदना से प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहे हैं । सामाजिकता, मनोवैज्ञानिकता, जन जीवन की समस्याएँ व संघर्ष, मानवीय संवेदना व मूल्य, भारतीयता, स्त्री-दलित-बाल-वृद्ध-अल्पसंख्यक-किसान से संबद्ध विविध विमर्श जैसे मुद्दों को लेकर प्रेमचंदोत्तर तथा वर्तमान हिन्दी कथा लेखन को हम प्रेमचंद की कथाभूमि से जोड़कर भी देख सकते हैं । मतलब यह कि हिन्दी-कथा साहित्य के उद्भव एवं विकास की एक ठोस व उर्वर जमीन तैयार करना, साथ ही प्रेमचंद साहित्य तथा इसीसे प्रभावित कथासाहित्य की लोकप्रियता व प्रभाव का अब तक बने रहना ही इस लेखक की साहित्यिक व समाजशास्त्रीय महती देन है और वही उनकी महानता व उपयोगिता का बड़ा प्रमाण । 




प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर (गुजरात )

 

 

1 टिप्पणी:

  1. प्रेमचंद को पढ़ना वास्तव में एक रोमांच से कम नहीं, हमेशा एक नवीन दृष्टि का अनुभव होता है । बे-शक प्रेमचंद की लोकप्रियता आज भी कायम है लेकिन ‘दिन कुछ ख़ास है !’ में प्रो.हसमुख परमार सर की आलोच्य दृष्टि बहुत कुछ अनकहे सच-सवाल को उकेरता है । समग्रता से देखें तो आज पुनः प्रेमचंद के साहित्य को सामाजिक मानदंड से देखना-परखना समकालीन साहित्य का औचित्य है और इस तरह के आलोचनात्मक आलेख हमें विवश कर देते हैं ।
    बहुत बहुत धन्यवाद एवं हार्दिक बधाई सर....
    विमलकुमार चौधरी

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