नवगीत काव्य विधा में युगबोध
डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय
नवगीतों में युगबोध की चर्चा करने से पूर्व उसके सैद्धान्तिक पहलुओं पर किंचित
विचार करना आवश्यक हो जाता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि ‘नवगीत’ का प्रारम्भ कब हुआ या कब से माना जाना
चाहिए। वे कौन
सी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ थीं जिनके फलस्वरूप ‘नवगीत’ अस्तित्व में आया। नवगीत हिन्दी साहित्य की
अत्याधुनिक विधा है। इसका प्रारम्भ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के गीतकाव्यों से माना जाता है। निराला के
गीतों में जहाँ एक ओर विशुद्ध जनगीत मिलते हैं जो भाव एवं छन्द की दृष्टि से
विशुद्ध जनगीत माने जाते हैं वहीं दूसरी ओर भक्ति के गीत भी हैं जैसे अर्चना,
आराधना आदि। अतएव निराला के काव्य में ‘नवगीत’ अल्प मात्रा में है। हिन्दी साहित्य में
रोमानी गीतों की परम्परा भी चल रही थी जिनमें हरिवंशराय बच्चन,
अंचल जैसे कवि अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे
थे। ऐसा माना जाता है कि इन्हीं रोमानी गीतों की प्रतिक्रिया स्वरूप आगे चलकर
हिन्दी गीतों का एक हिस्सा नवगीत के रूप में अपना स्वरूप ग्रहण कर लेता है।
गीत से नवगीत तक की यात्रा में प्रगतिवाद की भी अहम् भूमिका रही है। तत्कालीन
कवि प्रगतिवाद के प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाये थे। जैसाकि इस संदर्भ
में डॉ. रामदरश मिश्र लिखते हैं कि “इन्हीं दिनों प्रगतिवाद की धारा साहित्यिक
गीतों को लोकगीतों के बहुत समीप लाना चाहती थी या यों कहा जाय कि प्रगतिवाद के
जनवादी प्रभाव के नाते ही लोकगीतों की शक्ति और शब्दावली लेकर ऐसे साहित्यिक गीत
लिखने की प्रेरणा कवियों को प्राप्त हुई। इस धारा से प्रयोगवाद में परिगणित कवि
(अज्ञेय, गिरजाकुमार माथुर,
भारती और नरेश मेहता) भी अछूते नहीं रहे।”1
नवगीत की प्रगति में प्रगतिवादी कवियों की अहम् भूमिका रही है। जीवन के यथार्थ को
देखने-परखने की दृष्टि गीतकारों को प्रगतिवाद से ही मिली है। कहने की आवश्यकता
नहीं है कि मार्क्सवाद आम लोगों के जीवन-जगत से जुड़ा रहा है इसलिए नवगीत
मार्क्सवाद के प्रभाव के कारण सामान्य लोगों के जीवन की बुनियादी जरूरतों से
जुड़ने का प्रयास करने लगा।
नवगीत के नामकरण के संदर्भ में डॉ. गिर्राज सिंह लिखते हैं कि “नवगीत का
नामकरण नई कविता के वजन में हुआ लगता है ‘नवगीत’ सन् 1956-58 तक अघोषित और प्रचारित रहा। अधिकतर आलोचकों ने
नवगीत का जन्म छठे दशक में स्वीकार किया है। ‘गीतांगिनी’ (1958) सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह,
‘लेखनी बेला’ (1958) - वीरेन्द्र मिश्र,
क्वार की साँझ (1958) - रामनरेश पाठक,
बंशी और मादल’ (1960) - ठाकुर प्रसाद सिंह आदि कृतियों के
प्रकाशन से नवगीत विधिवत प्रमाणित हुआ है। ‘नवगीत’ संज्ञा को लेकर कई तरह की शंकाएँ और असहमतियाँ जताई गई हैं।
डॉ. रवीन्द्र भ्रमर, डॉ. शम्भूनाथ सिंह,
बाल स्वरूप राही,
रामनरेश पाठक, राजेन्द्र प्रसाद सिंह,
डॉ. जयप्रकाश आदि ने अपने लेखों में नवगीत की
संज्ञा का प्रयोग किया है। लेकिन डॉ. कुंवरपाल सिंह जैसे आलोचक इसे नवगीत’
न कहकर ‘आधुनिक’ या ‘नये गीत कहना अच्छा समझते हैं-इस पीढ़ी
द्वारा रचित गीतों को आधुनिक व नये गीत कहना चाहूँगा,
‘नवगीत’ नहीं’2 केदारनाथ सिंह ने ‘नवगीत’
को ‘नयागीत’ कहा है तो ठाकुर प्रसाद सिंह ने इसे ‘नये गीत’
संज्ञा से अभिहित किया है। ‘नवगीत’ की अवधारणा को लेकर डॉ. रामदरश मिश्र जी
लिखते हैं कि “जहाँ तक आज के गीतों के नयेपन की इयत्ता को स्पष्ट करने का सम्बन्ध
है वहाँ तक तो नवगीत नाम सार्थक हो सकता है, किन्तु लगता है कि वह एक आन्दोलन बन गया है।
एक ओर तो यह अपने को समूची नई कविता का अंग मानकर स्वयं में पूर्ण समझ ले रहा है।
दूसरी ओर कल तक के अनेक सम्मेलनी गवैये गीतकार गीत को नवगीत बना देने वाले कुछ
उपकरणों को चुन-चुन कर सायास आयोजन के साथ नवगीत रचना कर रहे हैं। समग्र कविता के
प्रवाह से कटकर एक छोटी-सी लहर के घेरे में अपनी इयत्ता की घोषणा आसानी से की जा
सकती है ।”3
नये युग के नये दौर में नवीन भावबोध व नवीन रचनाशैली के द्वारा प्रस्तुत गीत
नवगीत कहलाता है। इस संदर्भ में डॉ. शम्भूनाथ सिंह के विचार देखिए- “नवगीत एक
सापेक्षिक शब्द है, नवगीत की नवीनता युग सापेक्ष होती है। किसी
भी युग में नवगीत की रचना हो सकती है। गीत रचना की परम्परा-पद्धति और भावबोध को
छोड़कर नवीन पद्धति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भावसरणियों को अभिव्यक्त
करने वाले गीत जब भी और जिस युग में भी लिखे जायेंगे,
नवगीत कहलायेंगे।”4 यहाँ यह भी
जान लेना आवश्यक है कि काव्य की तमाम विधाओं के बावजूद नवगीत की जरूरत क्यों महसूस
हुई। नवगीत से पूर्व गीत की परंपरा चली आ रही थी, जिनमें समयानुसार छंदादि के दोष परिलक्षित
होने लगे या यों कहें कि गीतों में छंदों का प्रयोग असहज लगने लगा। तत्पश्चात् उस
गीत में नव विशेषण लगाकर उन गीतों के नये स्वरूप की परिकल्पना की गयी। नवगीत की
आवश्यकता को बताते हुए रमेश रंजक लिखते हैं कि “यह सर्वविदित है कि छायावाद की
भाषा-शैली जब दार्शनिक गूढता, घुमावदार, मुहावरों, कल्पना की वायवीयता, एकांगी रहस्यात्मकता में जकड़ती चली गयी तब
समकालीन आलोचकों के जबरदस्त प्रहारों से छायावादी कवियों की मानसिता को एक जोरदार
धक्का लगा और जीवन-जगत के वास्तविक यथार्थ से जुड़ने की माँग साहित्य में तेजी से
उभरने लगी, जिसका सबसे ज्यादा प्रभाव निराला और पंत पर
हुआ चुनांचे पंत और निराला अपनी छायावादी मानसिकता का अतिक्रमण कर यथार्थ की ठोस
जमीन की ओर अग्रसर हुए।”5
इस प्रकार हिन्दी साहित्य में नवगीत परम्परा अनेक संदेहों,
शंकाओं, कुशंकाओं के बावजूद सातवें दशक तक आते-आते
अपना स्थान निर्धारित कर लेती है। गीतांगिनी (1958) से हिन्दी साहित्य में नवगीत
का प्रारम्भ माना जाने लगता है।
नवगीत
में यथार्थबोध :
‘नवगीत ने भी अपने आपको यथार्थ के धरातल से जोड़ा जैसाकि डॉ.
श्यामसुन्दर घोष का कहना है कि “जब तक हम इस दबाव से वंचित रहे,
हम एक मीठी दुनिया में,
सपनों की दुनिया में सोये हुए थे,
गीतों की प्रकृति,
प्रेम, रुमान और स्वप्न तक सीमित रखे रहे,
लेकिन जब यथार्थ का करारा झटका लगा,
मोहभंग हुआ, तो त्रस्त और क्षुब्ध हुए। इस दशा में यथार्थ
का बढ़ता हुआ प्रभाव वह जादू हो गया जो गीतों के सिर पर भी चढ़कर बोला।”6
नवगीत ने अपनी विषय-वस्तु का दायरा विस्तृत कर दिया, क्योंकि कोई भी युग यथार्थ को दरकिनार नहीं
कर सकता। इसलिए तत्कालीन युग में जो कुछ भी हो रहा था,
शनैः शनैः नवगीत में अंकित होने लगा। इसीलिए
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लोग उससे प्रभावित होने लगे,
प्रेरित होने लगे,
इसलिए साहित्य को समाज का दीपक भी कहा जाता
है। भारत आजाद होने के पश्चात् भी सामान्य लोगों की आकांक्षाएँ,
अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हुई,
ये मोहभंग की स्थिति में आने लगे। लोगों को प्रजातंत्र से जो अपेक्षाएँ थीं ये धरी
की धरी रह गई, स्थिति और भी जटिल एवं डरावनी सी हो गयी उनकी
यह सोच कि देश आजाद होगा, हमारी सारी समस्याएँ दूर होंगी। अंग्रेजों के
शोषण और दमन से हम आजाद हो जाएँगे, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तब न सिर्फ जनता
में अपितु नवगीतकारों में विद्रोह के स्वर दिखाई देने लगे। जैसाकि रवीन्द्र भ्रमर
की ये पंक्तियाँ कहती है –
“रक्षकों
की पहन कर वर्दी
राजपथ
पर खड़े बढ़मार
भेडियों
के मुँह लगा है खून
चल
रहा है मरण का व्यापार
राक्षसों
के हाथ पहरा है।”
(सोन
मछरी मन बसी, पृ. 95)
इस देश के लोकतंत्र में सरकार को जनता बनाती है और वही सरकार जनविरोधी नीतियों
को गढ़ती है। फिर उसी जनता को उस सरकार के विरोध में जाना पड़ता है। नवगीतकार ऐसी
सरकार में रहकर जनता का शोषण करने वालों को बेनकाब करते हैं। रमेश रंजक की इन
पंक्तियों पर गौर करने लायक है –
“इनके
हाथ बड़े लम्बे हैं
पाँव
नहीं इनके खम्बे हैं
गाँधी
का चरखा चबा गये
भरे
पेट पर देश खा गये
फिर
भी ये भूखे के भूखे
माँग
रहे अनुदान
(इतिहास
दुबारा लिखो, रमेश रंजक, पृ. 28)
गीत की अपनी सीमा होती है, उस सीमा में रहकर नवगीतों में वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति
दृष्टिगत होती है। नवगीत जन-जन तक पहुँचने की प्रक्रिया में प्रयासरत रहता है। इस
प्रक्रिया में नवगीत को जनवाद से काफी सहायता मिली है। नवगीतकार को यह आभास हो चुका
है कि उनकी सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब वे जन-जन की वेदना,
दुःख, दर्द, शोषण, अत्याचार आदि तक पहुँचेंगे। रमेश रंजक की इन पंक्तियों को
देखिए –
मेरा
गीत न गा पाया यदि दर्द आदमी का ।
अगर
नहीं कर पाया थके पसीने का टीका।
भाषा
बोल न पाया हारी थकी झुर्रियों की।
लाख
मिले मुझको बाजारू जीत
कुछ
नहीं।
(हिन्दी
की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ - रमेश रंजक, पू. 117)
नवगीतकारों ने प्रतीकों और बिम्बों का नवीनतम् प्रयोग किया है। उन्होंने
परम्परागत पुराने प्रतीकों, बिम्बों के स्थान पर नवीन बिम्बों का प्रयोग
करके आधुनिक जीवन को अभिव्यक्ति प्रदान की है और मानव जीवन के विविध पहलुओं से
बिम्बों को ग्रहण किया है। जीवन की थकान, विवशता, निराशा का सुन्दर बिम्ब रमेश रंजक ने अपने
नवगीत में प्रस्तुत किया है –
“पर्वत
के कन्धे पर सूरज की लाश
चुभी
हुई सूई थके जोड़ी के वास
जितना
तय किया सफर
धरती
पर फैलाकर
बाकी
पथ ओढ़ सो गये
जैसे
बीमार हो गये।”
(गुलाब
और बबूल वन- रमेश रंजक, पृ. 72)
यहाँ पर्वत तथा सूरज का मानवीकरण किया गया है जिससे पर्वत और सूरज में मानव का
एक स्पष्ट बिम्ब उभरता है, आगे जैसे बीमार आदमी पथ रूपी चादर ओढ़कर सो
गया है। ऐसा एक बिम्ब उभरता है। रमेश रंजक के इन गीतों में युग-संदर्भ पूर्णरूपेण
व्यक्त हुआ है।
साहित्य निर्माण समाज से समाज में और समाज के लिए ही होता है ठीक उसी
प्रक्रिया में नयगीतकार समाज से ही समाज के लिए अपने गीतों के विषय चुनता है
तत्पश्यात् उसमें अपने भावों व विचारों का स्पर्श कराते हुए उसे अभिव्यक्ति प्रदान
करता है। आज सामान्य जन की विकट समस्या है मँहगाई। जिसके बढ़ते कदम ने आम लोगों का
जीना दूभर कर दिया है। इस बढ़ती मँहगाई की तुलना कुँवर बेचैन ने सुरसा के मुख से
की है, आप भी देखिए –
“गलियों
में चौराहों पर
घर-घर
में मचे तुफैल-सी
बाल
बिखेरे फिरती है
मँहगाई
किसी चुड़ैल - सी
--- --- ----
सुरसा
- सा मुँह फाड़ रही है
बाज़ारों
में कीमतें
बारूदी
दीवारों पर
बैठी
हैं जीवन की छतें
टूट
रही है आज जिंदगी
इक
टूटी खपरैल-सी।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 31 )
हमारे देश में आज भी कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें भर पेट अन्न नहीं मिल रहा है।
यह कटु सत्य है कि जब तक पेट में अन्न प्रवेश नहीं करता तब तक नींद भी नहीं आती।
जिंदगी रूपी भूख को कैसे मिटाया जाय? इस व्यथा को रात कहाँ बीते नवगीत में बेचैन’
जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है –
“पेट
में अन्न नहीं भूख
साहस
के होठ गए सूख
खेतों
के कोश हुए रीते
जीवन
की रात कहाँ बीते?
(डॉ. कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 18)
मानव-जीवन दुःखों, वेदनाओं और संघर्षों से भरा पड़ा है। तभी तो
निराला जी सरोज स्मृति में लिखते हैं –
‘दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या
कहूँ आज जो नहीं कही।
(सरोज
स्मृति- निराला)
मनुष्य सारी जिन्दगी तिनका तिनका जोड़कर सुखों को बटोरने या सँजोने का प्रयास
करता रहता है। इस प्रक्रिया में कब उसकी उम्र ढल जाती है पता ही नहीं चल पाता। कब
जवानी आयी, कब बुढ़ापा आ गया,
उसका एहसास तक नहीं होने पाता,
क्योंकि वह अपने दुःख-दर्द से निजात पाने के प्रयास
में इतना मसगूल हो जाता है कि वह अपने बारे में सोच भी नहीं पाता। इसी में कब
जिन्दगी बीत जाती है पता ही नहीं चल पाता। कुँवर बेचैन की पेड़ बबूलों के नवगीत की
ये पंक्तियाँ ऐसा ही कुछ कह रही हैं –
“संघर्षों
से बतियाने में
उलझा
था जब मेरा मन
चला
गया था आकर यौवन
मुझको
बिना बताए
ज्यों
अनपढ़ी प्रेम की पाती
किसी
नायिका के हाथों से
आँधी
में उड़ जाए।
--- --- ---
दुःख-दर्दों
को समझाने में
उलझा
था जब मेरा मन
कई
सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए
जैसे
कोई तीर्थ यात्री
संगम
पर कुछ दिन रहकर भी
लौटे
बिना नहाए।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 20)
20वीं सदी के कटु यथार्थ को उद्घाटित कर रहे हैं कुँवर बेचैन के नवगीत ‘हर आँख द्रौपदी है की ये पंक्तियाँ –
“आँखों
में सिर्फ बादल, सुनसान बिजलियाँ हैं,
अंगार
हैं अधर पर सब साँस आँधियाँ
रग-रग
में तैरती-सी इक आग की नदी है।
यह
बीसवीं सदी है।
--- --- ---
हर
सत्य का युधिष्ठर बैठा है
मौन
पहने ये पार्थ, भीम सारे आए हैं,
जुल्म सहने
आँसू
हैं चीर जैसे हर आँख द्रौपदी है।
यह
बीसवीं सदी है।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 30)
आज मनुष्य निःसंदेह प्रगति के पथ पर अग्रसर होता चला जा रहा है. किन्तु वहीं
संबंधों की सीढ़ियों से उतरता भी जा रहा है। मानवीय संबंध धीरे-धीरे खोखले होते जा
रहे हैं. मानवीय संबंधों के बीच स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है। यहाँ तक कि स्वार्थ
पूर्ण होने के पश्चात् हम माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। घर में रहते हुए
भी हम घर में नहीं अपने अतीत में खोये रहते हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ कुँवर बेचैन
अपने नवगीत ‘जैसे एक पुराना कागज में कहना चाहते हैं –
“अर्थहीन
संबंध हुआ अब
तेरे-मेरे
प्यार का
जैसे
एक पुराना कागज
“अर्थहीन
संबंध हुआ अब
जैसे
एक पुराना कागज
फटे
हुए अखबार का
तेरे-मेरे
प्यार का
मेरा
मन अक्सर टँग जाता
घायल
दर्द सलीब से
खुशियाँ
रोज़ गुजरती रहतीं
मेरे
बहुत करीब से
व्यर्थ
बोझ बन गया आज मैं
खुद
सारे संसार का एक पुराना कलैंडर
जैसे
हो दीवार का”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 90)
मनुष्य धीरे-धीरे अपनी सभ्यता और संस्कार को भूलता जा रहा है,
अपने ही लोगों को जहाँ वह उपेक्षित करता जा
रहा है वहीं वह स्वयं भी उनसे उपेक्षित होता जा रहा है। ‘चेतना उपेक्षित है’ कुँवर बेचैन के नवगीत की
इन पंक्तियों पर गौर करें –
“कैसी
बिडंबना है जिस दिन ठिठुर रही थी
कुहरे-भरी
नदी में माँ की उदास काया
लानी
थी गर्म चादर में मेज़पोश लाया।
कैसा
नशा चढ़ा है।
यह
आज टाइयों पर
आँखें
तरेरती है अपनी सुराहियों पर
मन
से न बाँध पाई रिश्ते गुलाब जैसे
ये
राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत पू. 97)
गाँव और शहर के अन्तर को कुँवर बेचैन जी ने अपने नवगीत अंतर में बखूबी चित्रित
किया है। बहुत ही सटीक, सुंदर और चिंतनीय हैं उनकी ये पंक्तियाँ-
“मीठापन
जो लाया था मैं गाँव से,
कुछ
दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।
तब
तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब
जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब
आया करती थी महक पसीने से
आज
इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त
हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब
अनाम जंजीरों ने
आ
जकड़ी हैं।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत पृ. 90)
नवगीतकार कुँवर बेचैन ने महानगर का अतिसुन्दर चित्रण अपने नवगीत महानगर : एक
शब्द चित्र’ में किया है। इसी के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम दे रहा हूँ और आप सब
महानगर की सुन्दरता का आनंद उठाइए –
“गर्मी
रेत शुष्कता मरुथल।
और
हाँफते हुए आदमी।
सड़कें
बसें धुआँ आवाजें ।
भागमभाग।
चटखती भीड़ें।
दीवारें
पोस्टर विज्ञापन।
नंगी-अधनंगी
तस्वीरें
बस।
रफ्तार। पीठ। दुर्घटना।
और
हाँफते हुए आदमी।
ऑफिस
बॉस क्लर्क । चपरासी ।
गुट
। गुटबंदी । तर्क- दुधारे ।
गप्पे
। चाय। रिश्वतें । लड़की।
मैच
। कमैंट् । फिल्म सितारे।
फाइल
। मेज़ । कुर्सियाँ । परदे।
और
हाँफते हुए आदमी ।
लंबी
प्यास मुखौटे - चेहरे ।
सूखी
हँसी ढोंग मुस्कानें ।
हिलते
हाथ। थके संबोधन ।
अजनबियत
भूली पहचानें ।
जलती
आँख। सुलगते सपने।
हाथ
तापते हुए आदमी।”
(डॉ.
कुँवर बेचैन के नवगीत, पृ. 30)
***
सन्दर्भ
:
1 - आज का
हिन्दी साहित्य : संवेदना और दृष्टि, रामदरश मिश्र, पृ. 106, हिन्दी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता-सं. डॉ.
वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 36
2 - नवगीत
अवधारणा और प्रकृति-डॉ. गिर्राज सिंह, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता - सं. डॉ.
वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 37
3 - आज का
हिन्दी साहित्य : संवेदना और दृष्टि, रामदरश मिश्र, हिन्दी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता – सं. डॉ.
वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 38
4- कविता – 64,
सम्पादक ओमप्रभाकर,
पृ. 78-79, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता- सं. डॉ.
वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 36
5- नवगीत से
जनगीत तक- रमेश रंजक, हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता - सं. डॉ.
वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 09
6- नवलेखन :
समस्याएँ और सन्दर्भ, पृ. 21-22 हिन्दी नवगीत: संदर्भ और सार्थकता-
सं. डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, पृ. 41
डॉ.
माया प्रकाश पाण्डेय
सहायक
आचार्य
हिन्दी
विभाग, कला संकाय,
महाराजा
सयाजीराव विश्वविद्यालय,
बड़ौदा-390002,
गुजरात