राजस्थानी लोक नृत्यों में जालोर का ‘ढोल नृत्य’
डॉ. जयंतिलाल बी. बारीस
प्रत्येक राज्य
अपनी भौगोलिक स्थिति एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण एक अलग पहचान रखता है।
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम भाग में अवस्थित राजस्थान राज्य भौगोलिक दृष्टि
से पूर्व में गंगा-यमुना नदियों के मैदान, दक्षिण में मालवा के पठार तथा उत्तर एवं
उत्तर पूर्व में सतलज-व्यास नदियों के मैदानों से घिरा हुआ है। इस राज्य की कहानी
गौरवपूर्ण परंपरा की कहानी है। एक ओर पृथ्वीराज चौहान, राणा साँगा, प्रताप, वीर
दुर्गादास, अमरसिंह राठौड़ आदि द्वारा राज्य का नाम विशेष रूप में गौरवान्वित किये
जाने का बोध होता है तो दूसरी ओर संस्कृति में समाहित भिन्न-भिन्न रंगों, रूपों
एवं कलाओं के दिग्दर्शन होते हैं। राजस्थान की सांस्कृतिक विशेषता को रेखांकित
करते हुए डॉ. जयसिंह नीरज लिखते हैं-‘‘देश के परिदृश्य में राजस्थानी का
सांस्कृतिक वैभव बेजोड़ है। त्यागमयी ललनाओं, साहसी वीरों और गरिमामयी संस्कृति के
इस प्रदेश का भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक वैविध्य अनोखा है। यहाँ एक ओर
दूर-दूर तक फैली अरावली की शृंखलाएँ हैं, तो दूसरी ओर विराट मरुस्थल। एक ओर
पूर्वांचल और दक्षिणांचल हरीतिमा के वैभव से युक्त हैं, तो दूसरी ओर बियावान मरु
के टीलों का अखण्ड साम्राज्य। उत्तर में गंगानगर से लेकर दक्षिण में डूँगरपुर,
बाँसवाड़ा तक और पूर्व में अलवर, भरतपुर से लेकर पश्चिम में जैसेलमेर तक फैला यह
प्रदेश आकार में ही बड़ा नहीं है, वरन् प्राकृतिक सम्पदा, कलात्मक वैभव, रहन-सहन,
वेश-भूषा, बोली-भाषा, धर्म और दर्शन आदि में भी इतना समृद्ध और सम्पन्न है कि इसकी
तह तक संस्कृति-कर्मी अभी भी बहुत कम पहुँच पाये हैं।‘‘(राजस्थान की सांस्कृतिक
परम्परा-सं. डॉ. जयसिंह नीरज व डॉ. बी.एल.शर्मा, (भूमिका से)पृ.-5,)
राजस्थानी लोक
संस्कृति में समाहित लोक नृत्यों में लोक जीवन की सरसता, सरलता, सहजता के साथ ही
साथ लोक गीत, लोक वाद्य, लोक शृंगार एवं कलाओं का समावेश रहता है। लोक जीवन के
हृदय में व्याप्त भावों के स्वरूप को प्रकट करते हैं लोक नृत्य। राजस्थान में
प्रचलित लोक नृत्य की विशेषता को रेखांकित करते हुए हरदान हर्ष लिखते
हैं-‘‘राजस्थान के लोक-नृत्य राजस्थानी संस्कृति के अनुपम शृंगार हैं। यहाँ की
प्रकृति ने राजस्थानी व्यक्ति को एक ओर शारीरिक रूप से कठोर और परिश्रमी बनाया है
तो दूसरी ओर मन से उसे कोमल और संवेदनशील। आनन्द के समय में उत्सवादि अवसरों पर वह
प्रसन्नता से झूमने लगता है। वह अपनी अंग-भंगिमाओं का अनायास, अनियोजित प्रदर्शन
करता है। इस तरह लोग तब सामूहिक रूप से झूमने लगते हैं, वे किसी नियम से बंधे नहीं
होते। बढ़ते हुए उत्साह के साथ, किसी लोक-गीत की लय के साथ, किसी लोक-वाद्य की ताल
के साथ उनके अंगों की थिरकन प्रकट होती है, जिसे देशी-नृत्य या लोक-नृत्य कहा जाता
है।‘‘(राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, पृ.-208) राजस्थान के
लोक-नृत्य में भवाई नृत्य, घूमर-नृत्य, डंड़िया-नृत्य, तेरहताली नृत्य, डांडया
नृत्य, कालबेलिया-नृत्य, ढोल नृत्य, थाली-नृत्य, गणगौर नृत्य आदि प्रमुख हैं,
जिनमें स्थानीय रंग की छटा भी दृष्टव्य है।
‘जालोर‘
राजस्थान राज्य के तैंतीस जिलों में से एक जिला है जो कि राज्य के पश्चिम में
मरुस्थल क्षेत्र से संबंधित है। इस जिले का ‘ढोल नृत्य‘ राज्य के लोक नृत्यों में
अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए प्रसिद्ध है। ‘जालोर का ढोल नृत्य’ मरुस्थल
क्षेत्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों में विशेष रूप से विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर
किया जाता है। जालोर का ‘ढोल नृत्य’ पुरुष-प्रधान नृत्य है।
राज्य में जीवन यापन करने वाली सरगरा, ढोली, भील आदि जातियों द्वारा यह नृत्य अधिक
किया जाता है। जालोर और ढोल नृत्य से संबंधित एक किंवदती है जिसे व्यक्त करते हुए
डॉ. कालूराम परिहार लिखते हैं-‘‘जब जालोर बसा था उन्हीं दिनों सिवाणा गाँव के खींवसिंह
राठौड का सरगरा जाति की युवती से प्रेम हो गया और वह सिवाणा छोड़कर जालोर आ गया।
यहाँ आकर खींवसिंह ढोल बजाने लग गया और जालोर का ढोल नृत्य प्रसिद्ध हो गया।” (राजस्थान के लोकनृत्य और लोकनाट्य-डॉ.कालूराम परिहार, पृ.-26)
जालोर के ‘ढोल
नृत्य’ से संबंधित ‘ढोल’ एक अवनद्ध लोक वाद्य है।
अवनद्ध अर्थात चमड़े आदि से ढका हुआ। अवनद्ध से संबंधित लोक वाद्यों में चंग, डफ,
ढोलक, ढोल, नगाड़ा, नौबत आदि हैं। ‘ढोल’ वाद्य को चढ़ाने और उतारने
के लिए डोरी में लोहे या पीतल के छल्ले लगे रहते हैं। ढोल का नर भाग डंडे से तथा
मादा भाग हाथ से बजाया जाता है। लोक नृत्यों की माधुर्य वृद्धि के साथ ही वातावरण
निर्माण एवं भावाभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने में इन वाद्यों की भूमिका किसी भी
स्तर से कम नहीं। राज्य में ‘ढोल‘ वाद्य को बजाने संबंधी विशेषता व मांगलिक
कार्यों में इसके महत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए हरदान हर्ष लिखते हैं-‘‘यह एक
मांगलिक वाद्य है। विवाह के प्रारम्भ में ढ़ोल के ऊपर भी स्वास्तिक का चिन्ह बनाते
हैं। इसका पूजन होता है और इसके रोली चढ़ाते हैं।....राजस्थान में यह बारह प्रकार
से बजाया जाता है - एहड़े का ढ़ोल, गेर का ढ़ोल, नाचने का ढ़ोल, झोटी ताल (देवरे के
देवी-देवताओं के सामने बजाई जाती है), बारू ढ़ोल (लूट के समय बजाया जाता है), घोड़
चढ़ी का ढ़ोल (दूल्हा घोड़े पर चढ़कर जाता है उस समय), बरात चढ़ी का ढ़ोल, आरती का ढ़ोल,
वार त्योहार का ढ़ोल, सगरी को न्योतो (जीमणे का निमंत्रण) आदि। इसको बजाने के लिए
दो आदमियों की आवश्यकता पड़ती है। राजस्थान के कई लोक-नृत्यों में यह बजाया जाता
है, जैसे-जालोर का ढोल नृत्य, भीलों का गेर नृत्य और शेखावाटी का कच्छी घोड़ी
नृत्य।‘‘(राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, पृ.-218) इन शैलियों में
बजने वाले ढोल की ध्वनियाँ भिन्न प्रकार की होती हैं जैसे कि ‘ढाक्-ढिना,
ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना.......’, धिना-धिना, धिक-धिका......‘, ‘धाक धिना,
तिरकट-तिना........’, आदि।
‘ढोलनृत्य’ में
ढोल का आकार सामान्य ढोल से काफी बड़ा होता है। ढोल नृत्य का मुख्य कलाकार अपने
शरीर पर तीन ढोल बाँधकर उन्हें बजाता है। शरीर में बँधे तीन ढोलों में से प्रथम
ढोल वह अपने सिर पर रखता है, द्वितीय ढोल सामने की तरफ रखता है और तृतीय ढोल पीछे
की तरफ रखता है। इन तीनों ढोलों को इस तरह से शरीर में बाँधा जाता है कि नृत्य
नर्तक अपनी कलाएँ या नृत्य को प्रस्तुत करते हुए किसी तरह की परेशानी अनुभव न करे
और ढोल भी अपने स्थान से खुले नहीं। मुख्य कलाकार के साथ अन्य सहयोगी कलाकार भी
होते हैं जो कि नृत्य के साथ साथ वादन में भी उपयुक्त भूमिका निभाते हैं।
‘ढोल नृत्य’ में
मुख्य कलाकार ढोल को पहले ‘थाकना शैली’ में बजाना शुरु करता है। थाकना शैली से
तात्पर्य है एक तरह से वादन से पहले की भूमिका के लिए बजाये जाने वाली लय व ताल।
ज्यों ही थाकना समाप्त हो जाता है तब अन्य नर्तक कोई मुँह में तलवार लेकर, कोई
हाथों में डण्डे लेकर, काई भुजाओं में रूमाल लटकाकर लयबद्ध अंग संचालन करके नृत्य
करने लगते हैं। नृत्य के दौरान अनेक जोशीली भाव-भंगिमाओं को ढोल नृत्य के कलाकार
प्रदर्शित करते हैं। थाकना शैली के अलावा भी अन्य अलग-अलग शैलियों में ढोल का वादन
होता है। ढोल वादन के साथ नृत्य दृश्य एक तरफ जोश से भरपूर होता है तो दूसरी तरफ
गति से। ढोल नृत्य में नाचते हुए, वादन करते हुए कलाकार जोश में आकर एक दूसरे के
ढोल पर भी डंका मारते हैं। ढोल नृत्य से संबंधित नर्तक उछलते-कूदते हुए आपस में
तारतम्य बनाए रखते हैं। इस नृत्य में नर्तक ताल और लय की एक शृंखला बनाते हैं।
‘ढोल नृत्य’ में एक तरफ राजस्थानी लोक संस्कृति के दिग्दर्शन होते हैं तो दूसरी
तरफ लोक कला की मार्मिकता एवं रसात्मकता की अनुभूति होती है।
सहायक ग्रन्थ सूची
१. राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा-सं. डॉ. जयसिंह नीरज व
डॉ. बी.एल.शर्मा, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी प्लाट नं १ ,झालाना सांस्थानिक
क्षेत्र, जयपुर-राज. तेरहवाँ संस्करण २००५
२.राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति-हरदान हर्ष, आशीर्वाद
पबिल्केशन्स, बी -10 टोक रोड, जयपुर-३०२०१५, नवीन संस्करण -2004
३.राजस्थान के लोकनृत्य और लोकनाट्य-डॉ.कालूराम परिहार,
रायल पब्लिकेशन १८ शक्ति कॉलोनी,गली नं २,रातानाडा-जोधपुर (राजस्थान) प्रथम
संस्करण २००९
जयंतिलाल बी. बारीस
असिस्टेंट प्रोफेसर
आर.के. देसाई कॉलेज ऑफ एजुकेशन
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