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हिन्दी हाइकु में पर्यावरणीय चेतना
‘पर्यावरण’ एक ऐसा शब्द है जो सम्पूर्ण सृष्टि को अपने में समाहित कर लेता है। मनुष्य
पर्यावरण के बगैर नहीं रह सकता। मनुष्य के अच्छे-बुरे प्रत्येक मनोभावों की
अभिव्यक्ति साहित्य करता है। साहित्य में
मनुष्य जीवन के सरोकारों की अभिव्यक्ति स्वाभाविक ही है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर
पूरा विश्व चिंतित है, इसी तरह बड़ी सहज बात है कि हमारे साहित्यकारों का प्रकृति एवं
पर्यावरण की सुंदरता के प्रति आकर्षण व अनुराग तथा इसकी संरक्षण संबंधी चिंता-चिंतन
जो उनके सृजन कर्म में पहले से ही दिखाई देता है।
वृक्ष काटते / आत्मा हचमचायी / मित्र से आघात ।
–
डॉ. भगवतशरण अग्रवाल
इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकरण, औद्योगिकरण आदि के चलते
प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण में काफी वृद्धि हुई। इसने भारतीय संस्कृति,
जीवन, रहन-सहन, भाषा आदि को प्रभावित करके उसे कहीं-न-कहीं नुकसान भी
पहुँचाया है। जिस गति से हम आधुनिक बनने की होड़ में हमारे प्राकृतिक संसाधनों का
ह्रास करते जा रहे हैं यदि उस गति से हम चलते रहे तो शीघ्र ही हमारी धरती पर कोई
भी स्थान प्रदूषण से मुक्त नहीं रहेगा और इस पृथ्वी के विनाशको रोकना मुश्किल होगा।
शायद कोई भी प्राणी पृथ्वी पर जीवित रह पाएगा । प्रकृति की
सुन्दरता का वर्णन करने वाले हाइकुकार आज प्रकृति को दूषित होते हुए देखकर चिंतित
है । जंगलों को काटते चले जाना और हर जगह कंक्रीट के नगर बसा देना,
एक गंभीर समस्या बन चुकी है ।
उकडूँ बैठी / शर्मसार पहाड़ी / ढूँढती साड़ी ।
–
उर्मिला कौल
आज हम विभिन्न प्रकार के प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं ।
इसकी वजह से पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है,
साथ में मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी इसका असर दिखाई दे रहा
है । पर्यावरण प्रदूषण से होने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से तो हम सभी परिचित ही
हैं।
दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / बेचारा चाँद ।
– रचना श्रीवास्तव
बढ़ती हुई जनसंख्या और सीमित संसाधन जिससे प्राकृतिक संतुलन
बिगड़ता जा रहा है। औद्योगिक कारखानों से निकला कूड़ा-कचरा, गन्दा जल, विषैले रासायनिक पदार्थ,
मल-मूत्र, शव, एवं अन्य दूषित वस्तुओं आदि को पानी के स्रोत में प्रवाहित
करने से पानी तो प्रदूषित होता ही है साथ ही इसके कारण कई जलीय जीव-जंतुओं की
प्रजातियाँ भी लुप्त होने की कगार पर है। और ऐसा ही चलता रहा तो नदियाँ भी सिर्फ
नक़्शे में ही नज़र आएँगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि जल प्रदूषण को रोका नहीं
गया तो अगला विश्व युद्ध जल के लिए हो सकता है।
गंदला पानी / रो रहीं मछलियाँ / वो जाएँ कहाँ !
– डॉ. हरदीप कौर सन्धु
एक तरफ मनुष्य धरती की कोख से खनन कर उसमें से खनिज
पदार्थों को निकाल कर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रहा है तो दूसरी ओर अनेक रासायनिक-रडियोधर्मी
पदार्थों, कीट नाशकों के प्रयोग से मृदा को प्रदूषित भी कर रहा है और उसकी उपजाऊ
क्षमता कम करता जा रहा है। वनों के कटाव का असर बारिश एवं वन्य जीवों पर तो पड़ ही
रहा है साथ ही मृदा अपरदन से मिट्टी भी बही चली जा रही है।
एक ही नहीं अनेकों दुष्परिणाम है जो सभी एक दूसरे से संबंधित
है।
कैसा उत्थान ? / छीनते परिंदों से / नीड़ व गान ।
– कृष्णा वर्मा
हम प्रकृति की गोद में पैदा हुए हैं इसलिए चिड़िया का
चहचहाना नदी की कल-कल, हवा के सायं-सायं का स्वर सभी से हम भली-भाँति परिचित हैं,
लेकिन आज कारखानों एवं वाहनों का शोर,
हर जगह पर मशीनों का शोर, कहीं पर डीजे का शोर आदि से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है जो मनुष्य
को ही नहीं अपितु अन्य जीव सृष्टि को भी नुकसान पहुँचाता है । सोने पे सुहागा यह मोबाइल का स्वर, मानव को कहीं भी चैन नहीं है। मनुष्य अपनी भौतिक सुविधा के
लिए भिन्न-भिन्न उपकरणों एवं उत्पादों का उपयोग करता है जिनमें से कई उपकरणों से हानिकारक
(क्लोरो-फ्लोरो आदि) गैस ओज़ोन परत को क्षति पहुँचाती है । ग्लोबल वार्मिंग भी इसका
दुष्परिणाम है। जंगलों के लगातार काटे जाने से पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ
लुप्त होती जा रही हैं और कई तो पहले ही लुप्त हो चुकी है । वनों से प्राप्त होने
वाली कई बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ और वनस्पतियाँ भी नष्ट हो रही हैं । वनों के नष्ट
होने से जैविक संतुलन भी बिगड़ता जा रहा है, साँस लेने वाली प्राणवायु ऑक्सीजन भी कम हो रही है ।
पराग कहाँ ? / लायी बारूदी गंध / बासंती हवा।
– डॉ. पूर्वा
शर्मा
हाइकुकारों ने प्रकृति के
प्रति अपना प्रेम सदा ही प्रस्तुत किया है । प्रकृति के मनोहारी वर्णन करने वाले हाइकुकार आज प्रदूषण के परिणामों एवं उससे
होने वाले नुकसान को भी अपने काव्य में प्रस्तुत कर रहे हैं । सभी हाइकुकार ने
बहुत ही संवेदनशील रूप से प्रदूषण और उससे होने वाले परिणामों की ओर संकेत किया है
।
अशुभ दौर /आश्विन में कोहरा / माघ में बौर ।
–
डॉ. सुधा गुप्ता
आज हमें प्रकृति के संरक्षण के बारे में सोचते हुए ही विकास
के लिए कदम उठाने होंगे । विकास के नाम पर प्रकृति के साथ कोई छेड़खानी नहीं चलेगी । आज मानव कई प्रयासों
में जुटा है कि पर्यावरण को कम नुकसान पहुँचाए और अपनी धरती को जीने योग्य बनाए । इसी
को लेकर समाधान हेतु आजकल इको फ्रेंडली वस्तुओं का निर्माण हो रहा है। प्रकृति की
सुरक्षा की जिम्मेदारी तो मानव को ही उठानी होगी ।
हम अपने पर्यावरण को प्रदूषण से बचाए बस यही संकल्प है ।
***
आपका यह आलेख हाइकु के संदर्भ में बहुत ही सामयिक है ... हाइकु में प्रकृति और पर्यावरण पर चिंता और समाधान हाइकुकारों ने अपनी अपनी तरह से दिये हैं ... बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंअभी पिछले दिनों रतलाम से दिल्ली हरिद्वार, जयपुर जाना हुआ.एक्सप्रेस और शताब्दी रेलगाडियों के प्रथम और द्वितीय श्रेणी मे यात्री पानी से आधी भरी बोतल ऐसे फेंकते हैं जैसे कचरा फेंका जाता है.कालोनियों मे प्लास्टिक उत्पाद और अवशेष डाल देने मे तो कोई माई का लाल कोई झिझक ही नही रखता.कल दिवाली पर इतने शोर भरे पटाखे फोड़ गए हैं कि कुत्ते,बिल्लियां पक्षी,सब पागलपन और विक्षिप्त से व्यवहार कर रहे थे.हम पेड की जिस डगाल पर बैठे हैं,उसी को काट रहे हैं.
जवाब देंहटाएंदिवाली
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