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‘लोक-वार्ता’ और ‘लोक-साहित्य’
‘लोक-वार्ता’ के लिए अंग्रेजी में ‘Folk
lore’ शब्द प्रयुक्त होता है ।
‘लोक-वार्ता’ के मर्मज्ञ डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार- “ लोक-वार्ता एक
जीवित शास्त्र है- लोक का जितना जीवन है उतना ही लोकवार्ता का विस्तार है । लोक
में बसने वाला जन, जन की भूमि और भौतिक जीवन तथा तीसरे स्थान में उस जन की
संस्कृति- इन तीनों क्षेत्रों में लोक के पूरे ज्ञान का अन्तर्भाव होता है,
और लोकवार्ता का सम्बन्ध भी उन्हीं के साथ है ।”
दरअसल लोकवार्ता का विषय क्षेत्र काफी विस्तृत व
वैविध्यपूर्ण है । लोकजीवन-लोक संस्कृति-लोकभाषा-लोकसाहित्य-सृष्टि से लोक के
सरोकार सभी का समावेश इसमें होता है । डॉ. सत्येन्द्र ने लोकवार्ता के विषय को तीन
भागों में विभक्त किया है- 1. लोक विश्वास और आचरण 2. रीतिरिवाज और 3. कहानियाँ,लोक गाथाएँ, गीत, कहावतें आदि ।
डॉ.श्याम परमार ने लोकवार्ता के विषयों का वर्गीकरण इस
प्रकार किया है- 1. लोकगीत, लोकगाथाएँ, कहावतें-पहेलियाँ आदि 2. रीतिरिवाज, पूजा-अनुष्ठान, व्रत आदि ।3. जादू-टोना, टोटके, भूतप्रेत संबंधी विश्वास 4. लोकनृत्य तथा नाट्य एवं आंगिक अभिनय 5.
बच्चों के विभिन्न खेल, ग्रामीण अन्य खेल आदि ।
लोकसाहित्य, लोकवार्ता का अभिन्न अंग है । साहित्य की दो धाराएँ-शिष्ट साहित्य और
लोकसाहित्य । कहते हैं कि प्राचीनता, परिमाण एवं गुणवत्ता को लेकर लोकसाहित्य को शिष्ट साहित्य
से कम नहीं आँका जा सकता । प्राचीनता के मामले में तो लोकसाहित्य शिष्ट साहित्य से
भी बाजी मार लेता है । यहाँ तक कि यह साहित्य किसी न किसी रूप में शिष्ट साहित्य
को भी प्रभावित करता रहा है । “ लोकसाहित्य शिष्ट साहित्य की,
परिनिष्ठित साहित्य की आधारशिला है । लोक वेद मति मंजुल
कूला सदृश वेद से भी पूर्व मौखिक परंपरा में प्रचलित व प्रतिष्ठित रहा है । ”(
भरथरी लोकगाथा की परंपरा, डॉ.रामनारायण धुर्वे, पृ-39)
लोक साहित्य या लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोक-नाट्य, लोक सुभाषित आदि लोकविधाओं में व्यक्त-निरूपित विषय की
दृष्टि से देखें तो यह लोकजीवन-लोकसंस्कृति का दर्पण व प्रमाणिक दस्तावेज़ है ।
तात्पर्य यह कि लोक की वैयक्तिक अनुभूतियों से लेकर उसके बाह्य जीवन व्यवहार की
अभिव्यक्ति इसमें होती है । लोक से संबंधी जितने पक्ष-पहलू होते हैं,
लोक जिन तत्वों से रागात्मक एवं सामाजिक स्तर पर जुड़ा है,
वह सब लोक साहित्य का विषय बना है । विद्वानों ने लोक
साहित्य को लोक की प्रतिभा तथा उसका बहुआयामी ज्ञान का संचित कोष कहा है ।
लोकविधाओं की अनेकों रचनाओं में नीति-उपदेश-शिक्षा का,
लोक की व्यावहारिक बुद्धि-ज्ञान के संदर्भ वर्णित हैं । साथ
ही समाज विज्ञान,
मनोविज्ञान,
विज्ञान, आयुर्वेद-चिकित्सा, प्रकृति-पर्यावरण, दर्शन-शास्त्र, इतिहास, धर्म आदि ज्ञान-विज्ञान विषयों-शाखाओं से जुड़े विविध
तथ्यों-तत्वों का उल्लेख भी लोकसाहित्य में बराबर होता रहा है,
जो इसके इन विषयों से गहरे-घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है
।
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