बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-3

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साहित्यिक हिन्दी

प्रयोग क्षेत्र के आधार पर  भाषा के निर्मित विविध रूपों में एक रूप है - साहित्यिक भाषा । भाषाविज्ञान कोश के अनुसार साहित्यिक भाषा का मतलब है- “किसी भाषा की वह विभाषा जो सर्वश्रेष्ठ समझकर साहित्य रचना के लिए प्रयुक्त की जाय तथा बोलचाल की अपेक्षा कुछ विशिष्ट हो । साहित्यिक या सर्जनात्मक भाषा में विशिष्ट शब्द-चयन, शैली वैविध्य, अर्थ की अभिव्यक्ति में अभिधा के साथ-साथ लक्षणा तथा व्यंजना की भी प्रधानता, अलंकारिता, काव्य-गुण जैसी विशेषताएँ होती हैं ।

डॉ.नगेन्द्र कहते हैं कि प्रयोजनमूलक हिन्दी के विपरित अगर कोई हिन्दी है तो वह है आनन्दमूलक हिन्दी । साहित्य की हिन्दी इसी आनंदमूलक हिन्दी से जुड़ी है ।

    विगत लगभग हजार-बारह सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य को भाषागत वैविध्य की दृष्टि से देखें तो साहित्येतिहास के क्रमशः कालखण्डों में हिन्दी साहित्य की भाषा में परिवर्तन होता रहा है ।

आदिकाल के साहित्य में अर्धमागधी अपभ्रंश से प्रभावित भाषा, सधुक्कडी भाषा, अपभ्रंश भाषा जो प्राचीन हिन्दी, डिंगल भाषा, मैथिली व खड़ीबोली का प्रयोग । मध्यकाल में अवधी और ब्रज, रीतिकाल में ब्रज भाषा साहित्य की भाषा रही । आधुनिक काल में खड़ीबोली की प्रधानता ।

जैसा कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में साहित्य की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में खड़ीबोली का ही वर्चस्व रहा । काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली का क्रमबद्ध और व्यवस्थित विकास आधुनिक काल से मिलता है, परंतु हम यह भी देखते हैं और हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने बताया है-खड़ीबोली का प्रायः विकास, कम मात्रा में ही सही प्रारंभ से यानी आदिकाल से मिलता है । आदिकाल में नाथों-सिद्धों की बानियों में, खुसरो की हिन्दी रचनाओं में और मध्यकाल में संतों की वाणी में भी मिलता है । 

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