माँ
कृष्णा वर्मा
अकस्मात्
पिता की मृत्यु होने पर राजीव को बहुत धक्का लगा। माँ का रो-रोकर बुरा हाल था।
ग़मगीन सा
राजीव सोचों के घेरे से बाहर ही नहीं आ पा रहा था। माँ का क्या करूँगा। अभी दो दिन
पहले ही तो नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिला है। इतनी मुश्किलों से तो अमरीका में
नौकरी मिली है। इसी उधेड़बुन में पिता की तेरहवीं भी हो गई।
शांतिपाठ
समाप्त होते ही राजीव से उसकी बुआ ने पूछा – राजीव
अमरीका जाने का क्या सोचा। कुछ
समझ नहीं आ रहा बुआ! मैं तो बहुत दुविधा में हूँ। एक तरफ सोचता हूँ,
यही
अवसर है।
अपना करियर
बनाने का। हाथ आया इतना बढ़िया मौका गँवा दिया,
तो
फिर जाने कभी मिले या ना मिले। और दूसरी ओर सोचता हूँ कि मम्मी अकेली कैसे रहेंगी।
राजीव को
समझाते हुए बुआ बोली –
अरे बेटे तू भाभी की फिक़र क्यों करता है।
करियर
बनाने का समय निकल गया, तो
हाथ में केवल पछतावा ही रह जाएगा। तुम्हारी
मम्मी तो ख़ुद ही एक करियर ओरियन्टिड वूमन रही हैं। भला करियर के मामले में भाभी से
अच्छा कौन जानता है। अकेली संतान होते हुए भी अपनी नौकरी की वजह से ही तो तुझे वह
कभी समय नहीं दे पाईं।
राजीव के
कंधे पर प्यार से हल्की सी चपत लगाते हुए तंज़िया लहजे में बोली –
तुझे
तो सब याद ही होगा,
पूरा बचपन तूने नैनी के साथ ही तो बिताया है।
फिर भाभी का
अपना घर है, पढ़ी-लिखी
हैं और अब तो रिटायर भी हो गई हैं। इनके लिए चौबीस घंटे साथ रहने वाली एक आया का
इंतज़ाम कर दे, जो
इनकी देखभाल करे।
भाभी की ओर ताककर
उनका पश्चाताप पढ़ते हुए बोली – क्यों
ठीक कह रही हूँ ना भाभी!
कृष्णा वर्मा
कैनेडा
बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लघुकथा। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंआजकल सब practical होते हैं । व्यावहारिकता पहले भावनाएँ अंत में । अच्छी लघुकथा । बधाई कृष्णा जी ।
जवाब देंहटाएंविभा रश्मि