नारी
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हाथ प्रेम की तूलिका, वर्ण पिटारी संग ।
जीवन में नारी भरे, सुख के सौ-सौ रंग ।।
होठों पर मुस्कान रख , बाँट रही अनुराग ।
नारी सहती ही रही, असमदृष्टि की आग ।।
ठगी रह गयी द्रोपदी, टूट गया विश्वास ।
संरक्षण कब मिल सका , अपनों के भी पास ।।
मानवता के पक्ष में, नारी का हर रूप ।
छाया है वह धूप में, जाड़े में शुभ धूप ।।
किससे अपना दुःख कहें, कलियाँ लहू-लुहान ।
माली सोया बाग में, अपनी चादर तान ।।
जीवन के संघर्ष में, यदि नारी हो संग ।
कठिन नहीं कोई डगर , सहज विजित हर जंग ।।
नारी नर की सारथी , जीवन है संघर्ष ।
यदि रथ साथ विवेक का , सब कुछ सहज, सहर्ष ।।
लक्ष्मण रेखा लांघकर , किसे मिला सुख चैन ।
रह अशोक वन शोक में, सीता के दिन रैन ।।
आँगन हो माँ-बाप का, या हो पति का द्वार ।
पग-पग पर नारी गढ़े , खुशियों का संसार ।।
हुए विचारक सोचकर, बार बार हैरान ।
यह समाज क्यों मानता, नारी को सामान ।।
अपनी ताकत जानकर , तोड़ रूढ़ि के फंद ।
नारी लिखती आजकल, नव विकास के छंद ।।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड
बढ़िया दोहे , बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे। सुदर्शन रत्नाकर
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