अवसादी
दिन
अनिता
मंडा
जीवन
में कभी-कभी
परे
होते हैं हम
अपेक्षाओं
के बोझ से।
अपने
ही पेड़ की डाल पर
झूला
डालकर
झूलना
चाहते हैं हम
अपना
अवसाद दूर करने के लिए।
तभी
हमें भान होता है
डाल
पर चहकने वाली चिड़ियों को
नहीं
मिला एक अरसे से
संवाद
का चुग्गा।
अनचाहा
अबोला कितनी ही जगह घेर लेता है
क़रीब
लगने वाली शै दूर हो जाती है
आहिस्ता-आहिस्ता।
जीना
सिखाने वाले फ़रिश्ते भी
आख़िर
फ़रिश्ते ही होते हैं
उन्हें
दिल में तो रख सकते हैं
जीवन
में नहीं।
अनचाही
अपेक्षाएँ
ठंडे
तहखानों के भीतर छिपी बिल्लियाँ हैं
झपट्टा
मार ही देती हैं
कभी
न कभी।
हम
खरोंचें सँभाल कर रखते हैं
बीते
दिनों की स्मृतियों की मानिंद
दुख
शाश्वत है
टीस
रह-रह के उठती है
गहनों-सी चमकती
उदास
होंठों की मुस्कान के बीच।
अनिता
मंडा
दिल्ली
सुंदर सा मासूम सत्य..जीवन का। खूबसूरत! बहुत बधाई!!
जवाब देंहटाएंहम खरोंचें संभाल कर रखते हैं, वाह!!
जवाब देंहटाएंआह.. टीस जैसी कविता
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