प्रवासी
हिन्दी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर अभिमन्यु अनत
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वह
अनजान आप्रवासी
“.....वह
अनजान आप्रवासी
देश
के अन्धे इतिहास ने न तो उसे देखा था
न
तो गूँगे इतिहास ने
कभी
सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें
न
ही बहरे इतिहास ने सुना था
उसके
चीत्कारों को
जिसकी
इस माटी पर बही थी
पहली
बूँद पसीने की
जिसने
चट्टानों के बीच हरियाली उगायी थी
नंगी
पीठों पर सह कर बाँसों की
बौछार
बहा-बहाकर लाल पसीना
वह
पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा
जो
मेरा भी अपना था तेरा भी अपना।”
अभिमन्यु
अनत
(‘गुलमोहर
खौल उठा’ से साभार)
हमारी
आन, बान और शान ‘हिन्दी’ केवल भारत में ही नहीं अपितु दुनिया के कई देशों में बोली
जाने वाली भाषा है। विदेशों में लगभग डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई
जाती है। भारत के बाहर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में प्रवासी भारतीयों का विशेष योगदान
रहा है। हम देखते हैं कि विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सबसे पहले तो
गिरमिटिया देश (जैसे- मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि) आते हैं, दूसरे
हमारे पड़ोसी देश (जैसे - नेपाल, भूटान,
श्रीलंका, पाकिस्तान, चीन आदि) हैं, जहाँ अनायास ही हिन्दी भाषा विद्यमान है और
तीसरे वह देश हैं, जहाँ भारतीयों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जैसे-
अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, कैनेडा, जापान आदि। भारत से बाहर जीविकोपार्जन के लिए
गए भारतीयों ने अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक
विरासत के रूप में हिन्दी को न केवल जीवित रखा बल्कि उस गिरमिटिया हिन्दी के स्वरूप
को एक अलग दर्जा भी दिलाया। आज हमें गिरमिटिया हिन्दी के अलग-अलग विकसित रूप जैसे –
फिजी बात / फिजी हिन्दी, सरनामी/ सरनामी हिन्दी/ सरनामी-हिन्दुस्तानी, नेताली/
नेटाली हिन्दी आदि दिखाई देते हैं। गिरमिटिया हिन्दी की संरचना देखने पर हमें पता
चलता है कि उसमें भोजपुरी, अवधी, खड़ीबोली के मूल शब्दों के साथ गिरमिटिया देशों की
जनसत्ता की भाषा के साथ वहाँ की जनभाषा के शब्द भी शामिल है। इन प्रवासी भारतीयों
के कारण ही वैश्विक स्तर पर आज हिन्दी इतनी विस्तारित हुई है। अपने देश एवं अपनी भाषा
को प्रेम करने वाले इन प्रवासी भारतीयों को अपनी संस्कृति पर गर्व है। उनका हिन्दी
के प्रति प्रेम तो स्वाभाविक है ही पर इसी के साथ वे अपनी आने वाली नई पीढ़ी को भी हिन्दी
सिखाकर उनके दिल में अपने देश के प्रति प्रेम को जिंदा रखना चाहते हैं। इस तरह वे अपने
को और अपनी नई पीढ़ी को अपने ज़मीनी संस्कार और संस्कृति से जुड़े रखना चाहते हैं।
प्रवासी
हिन्दी साहित्य शब्द सुनते ही सबसे पहले जो नाम हमारे सामने आता है, वह है – अभिमन्यु
अनत। मॉरीशस के
उपन्यास सम्राट माने जाने वाले अभिमन्यु जी लगभग पचास
से अधिक पुस्तकों के रचयिता है। अभिमन्यु जी को मॉरीशस का प्रेमचंद भी कहा जाता
है, हालाँकि इस बात से उन्हें ऐतराज रहा।
मॉरीशस
एक ऐसा देश है जिसे पूरी तरह से गिरमिटिया आप्रवासी देश कहा जा सकता है। प्राकृतिक
रूप से बेहद खूबसूरत मॉरीशस में शर्तबंदी कुली मजदूर के रूप में भारतीयों को ले
जाया गया था। अभिमन्यु जी के दादाजी गन्ने की खेती में श्रम करने वाले मजदूर के
रूप में मॉरीशस आए थे और फिर वहीं बस गए। श्री पतिसिंह एवं श्रीमती सुभगिया की
संतान अभिमन्यु अनत का जन्म 9 अगस्त, 1937
को मॉरीशस के उत्तर प्रांत के ‘त्रियोले’ गाँव में हुआ। अभिमन्यु जी को बचपन से ही
अपने घर में साहित्यिक माहौल मिला लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण माध्यमिक
शिक्षा भी पूर्ण न कर सके और सरकारी नौकरी पाने में असफल रहे। इस पर अनत जी का कहना
है – “इस जन्म में
तो प्रमाणपत्र हासिल करने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। यह बात एकदम सही है कि
गलियों में मेरी पढ़ाई हुई। आम आदमी मेरे अपने विश्वविद्यालय के अध्यापक रहे और
अपने देश की तत्कालीन स्थितियों और परिस्थितियों ने मेरे भीतर के रचनाकार को जन्म
दिया।”
आर्थिक
स्थिति ठीक न होने के कारण जीविकोपार्जन के लिए अनत जी को कई छोटे-मोटे कार्य करने
पड़े – “मैं अपने घर के सभी
सदस्यों की भूख को अपने में लिए नौकरी तलाशता रह गया था। द्वीप के इस छोर से उस
छोर तक लोगों से यह रियायत माँगता फिरता था कि मुझे नौकरी करके अपने परिवार का पेट
भरने का अवसर दिया जाए। तीन महीने पहले बस कन्डक्टर की जो नौकरी हासिल कर सका था, उसे एक भिखारी को दस सेंट कम का टिकट काटने के कारण गवाँ बैठा था। सर पर
सब्ज़ियों की टोकरी के लिए पूरे गाँव की खाक भी छान मारी थी।”
1955
में अनत जी ने हिन्दी परिचय की परीक्षा पास की और प्रशिक्षण महाविद्यालय में
अध्यापक बन गए। उनको अंग्रेजी एवं फ्रेंच का भी अच्छा ज्ञान था लेकिन लेखन के लिए उन्होंने
हिन्दी को ही चुना – “हिन्दी
में इसलिए लिखता हूँ क्योंकि यह भाषा मेरी धमनियों में दौड़ती रहने वाली भाषा है।
अंग्रेजी और फ्रेंच में न लिखकर में इसलिए लिखता हूँ क्योंकि इस भाषा को मैंने स्कूल
कॉलेज में नहीं सीखा- यह मुझे मेरे वंश से मिली है। जब मैं सोचता भोजपुरी और
हिन्दी में हूँ तो किस ईमानदारी से फ्रेंच और अंग्रेजी में लिख पाऊँगा। हिन्दी में
इसलिए भी लिखने को विवश हूँ क्योंकि भोजपुरी और हिन्दी मेरे देश की मिट्टी की
सौंधी गंध अपने में लिए हुए है। इन्हीं भाषाओं में इतिहास की आहें निकली है।
इसीलिए हिन्दी में लिखता हूँ।”
सरिता नामक अनाथ युवती से अनत जी ने प्रेम विवाह किया और उनके अनुसार उनकी पत्नी सरिता ने उनके लेखन को एक नई दिशा प्रदान की। अनत जी का सृजन क्षेत्र काफ़ी व्यापक है। आरंभ में उन्होंने ‘शबनम’ उपनाम से रचनाएँ लिखी लेकिन बाद में ‘अनत’ उपनाम से ही सृजन कार्य किया। अनत जी की कविताओं में आप्रवासी भारतीयों-गिरमटिया मजदूरों की व्यथा, उनके अतीत-वर्तमान की विभिन्न परिस्थितियों, उनके शोषण-दमन, दुःख-दर्द-अभाव, सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति एवं व्यवस्था के प्रति विद्रोह आदि का चित्रण है। ‘अनत’ यानी जो झुके नहीं, इस प्रकार उन्होंने अपने इस उपनाम को सार्थक किया है। सन् 1977 में प्रकाशित अपनी ‘नागफनी में उलझी साँसे’ कृति से मॉरीशस की हिन्दी कविता में प्रवेश करने वाले इस कवि के चार कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त “उनका नवीनतम अप्रकाशित कविता संग्रह ‘लरजते लम्हे’ भी अब डॉ. कमलकिशोर गोयनका द्वारा संपादित पुस्तक अभिमन्यु अनत समग्र कविताएँ (1998) में प्रकाशित हो गया है।” –
1. नागफनी में उलझी साँसे (1977) 2. कैक्टस के दाँत (1982)
3. एक डायरी बयान (1985) 4. गुलमोहर खौल उठा (1995)
कविताओं के अतिरिक्त अनत जी की कहानियाँ भी मॉरीशस के जन-जीवन एवं संस्कृति एक प्रमाणिक दस्तावेज़ बनी हुई है। अपनी कहानियों में लेखक ने बड़ी संजिदगी से वहाँ के राजनीतक-सामाजिक-आर्थिक जीवन, मजदूरों-किसानों के जीवन, मानवीय संबंधों का मनोविश्लेषात्मक चित्रण किया है। इनके कुल सात कहानी संग्रहों में ‘इन्सान और मशीन’ लघुकथाओं का संग्रह है।
1. खामोशी का चीत्कार(1976) 2. इन्सान और मशीन(1977)
3. वह बीच का आदमी(1981) 4. एक थाली समंदर(1987)
5. बवंडर भीतर बाहर(2000) 6. अब कल आएगा यमराज(2003)
7. मातमपुस्सी(2007)
अनत जी एक सफल चित्रकार थे, लेकिन उन्हें लगा कि वे अपनी आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति चित्र की तुलना में लेखन के ज़रिए ज्यादा अच्छी तरह से कर सकेंगे। अतः उन्होंने लेखन सहारा लिया। अनत जी ने अठारह वर्षों तक हिन्दी के अध्यापन कार्य के अतिरिक्त तीन वर्षों तक युवा मंत्रालय में नाट्य प्रशिक्षण का कार्य भी किया। निर्माता, निर्देशक, अभिनेता एवं लेखक अनत जी ने एक कुशल रंगकर्मी के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। इन्होंने लगभग एक दर्जन से अधिक नाटकों का मंचन किया। इनके लगभग सात रेडियो प्ले (परिवर्तन, सुलह,जहाँ पक्षी दम लेते हैं, एक और राखी,बिल्ली को दफना दो, मीठा बैर, मुजरिम हाज़िर हो) है जो कि अप्रकाशित है। इनके नाटकों में संपर्क और संवाद का महत्त्व अधिक एवं साहित्य का प्रवेश कम है। इनके नाटक इस प्रकार है –
1. विरोध (1977) 2. तीन दृश्य (1981)
3. गूँगा इतिहास (1984) 4. रोक दो कान्हा (1986)
5. देख कबीरा हाँसी (1990)
अनत जी के साहित्य में मॉरीशस के आम नागरिक के संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण दिखाई देता है। उनका उपन्यास ‘लाल पसीना’ एक कालजयी कृति है जो कि भारत से गये गिरमिटिया मज़दूरों की एक व्यथा-कथा है। उन्होंने स्वयं कहा है – “मैं किसी प्रतिबद्धता का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता, फिर भी मेरा लेखन एक समर्पित लेखन है। मैं उन सभी वर्गों की पीड़ा को शब्द देने का प्रयास करता हूँ जिनकी आवाजें जब्त हैं। मेरे पात्रों में फाइलों के नीचे दबता हुआ क्लर्क भी है, अफसरों की गुलामी को स्वीकारते हुए चपरासी भी है, मालिकों के लिए जमीन पर फसल काटता हुआ गरीब मजदूर भी है, मंत्री को चुनाव के दौरान बेलेट पर छोटा-सा क्रोस देकर अब ईसा का क्रोस पीठ पर लिए दबा जा रहा आदमी भी हो, वह औरत भी है जो वैश्या है, पर जो भोगने वालों की नजर में औरत नहीं है। वास्तव में मैं उन बहरों तक उनकी आवाज पहुँचाने की चेष्टा करता हूँ जो इनकी आवाजों को न सुन पाने का स्वांग रचे होते हैं। इसके बाद आप मुझे किसी का भी लेखक कह लें।” उनका उपन्यास साहित्य परिमाण की दृष्टि से ही नहीं बल्कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। अनत जी की औपन्यासिक रचनाएँ –
1. और नदी बहती रही (1970) 2. आन्दोलन (1972)
3. एक बीघा प्यार (1972) 4. जम गया सूरज (1973)
5. तीसरे किनारे पर (1976) 6. चौथा प्राणी (1977)
7. लाल पसीना (1977) 8. तपती दोपहरी (1977)
9. कुहासे का दायरा (1978) 10. शेफाली (1979)
11. हड़ताल कल होगी (1879) 12. जय गावों के बहादूर (1980)
13. चुन चुन चुनाव (1981) 14. अपनी ही तलाश (1981)
15. पर पगडंडी मरती नहीं (1983) 16. अपनी अपनी सीमा (1983)
17. गाँधीजी बोले थे (1984) 18. मार्क ट्वेन का स्वर्ग (1985)
19. मुडिया पहाड़ बोल उठा (1987) 20. अचित्रित (1991)
21. शब्द भंग (1989) 22. फैसला आपका (1986)
23. और पसीना बहता रहा (1983) 24. लहरों की बेटी (1994)
25. चलती रहो अनुपमा (1998) 26. हम प्रवासी (2001)
27. एक उम्मीद और (2003) 28. अपना मन उपवन (2008)
29. आसमान अपना आँगन (2008) 30. मेरा निर्णय (2009)
31. अस्ति-अस्तु (2009)
मॉरीशस
के ‘महात्मा गाँधी इंस्टीटयूट’ में भाषा प्रभारी के पद
से सेवानिवृत्त होने के बाद अनत जी ने ‘रवींद्रनाथ टैगोर
इंस्टीटयूट’ का निदेशक पद पर भी कार्य किया। अनत जी ने ‘महात्मा गाँधी संस्थान’ की बाल
पत्रिका ‘रिमझिम’ एवं ‘वसंत’ पत्रिका(1978-1997)
का संपादन किया। कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, रेडियो प्ले, जीवनी, संस्मरण आदि अन्य
विधाओं के अतिरिक्त इनका अनुवाद एवं संपादन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान रहा
है –
जीवनी
– (1.) जन आंदोलन के प्रणेता (1987) (2.)
मज़दूर नेता रामनारायण (1988)
अनुवाद
– मॉरिशस में भारतीय प्रवासियों का इतिहास (1974)
संपादित
ग्रंथ – (1.) मॉरिशस की हिन्दी कविता (1975) (2.) मॉरिशस की हिन्दी कहानी (1976) (3.) आत्मविज्ञान (1984 -निबंध संकलन)
अनत
जी के पाठक सिर्फ मॉरीशस और भारत में ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपने विशिष्ट योगदान
हेतु उन्हें अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हुए। साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘महत्तर
सदस्यता’ के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया तो उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान ने
उन्हें ‘साहित्य भूषण’ की मानद उपाधि से विभूषित किया। इसके अतिरिक्त सोवियत
लैंड नेहरु पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त
सम्मान, यशपाल पुरस्कार, जनसंस्कृति सम्मान
आदि से उन्हें नवाज़ा गया।
अनत
जी के साहित्य में देश में फैली वर्तमान त्रासदी, औपनिवेशिक दबाव, विसंस्कृतिकरण की दुष्प्रवृत्तियों एवं अन्य
क्रियाकलापों आदि का बड़ी यथार्थता से चित्रण हुआ है। जीवन मूल्य तथा आदर्शवाद उनके साहित्य में
साफ परिलक्षित होते हैं। वे केवल मॉरीशस के ही नहीं अपितु विश्व हिन्दी साहित्य के
एक सशक्त लेखक के रूप में प्रतिष्ठित है।
81
वर्ष की आयु में 4 जून, 2018 को अनत जी इस
फानी दुनिया को छोड़कर चले गए लेकिन अपनी लेखन संपदा के बल पर साहित्यानुरागियों के
स्मरण में वे सदैव अपना वजूद बनाए रखेंगें। डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार – “अभिमन्यु अनत सत्ता
से प्रश्न करने का साहस रखते हैं। वह मारिशस के गूँगे इतिहास की आवाज हैं। वह अपने
साहित्य से अज्ञात दरवाजों को खोलकर उसमें दबी-ढँकी–बँधी-बाँसों और कोड़ों की
अनुगूँजों और प्रतिध्वनियों को साहित्य का रूप देते है।”
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
प्रवासी हिंदी साहित्यकारों में अभिमन्यु अनन्त का हिंदी के प्रति समर्पण और योगदान महत्त्वपूर्ण है उनके जीवन और साहित्य का संक्षेप में समस्त परिचय प्रस्तुत करने हेतु डॉ. पूर्वा जी को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअभिमन्यु अनत जी का परिचय जानकार बहुत अच्छा लगा. उनका हिन्दी के प्रति योगदान असाधारण है. हार्दिक बधाई पूर्वा जी.
जवाब देंहटाएंविशिष्ट प्रतिभा के धनी 'अनत जी' पर शोधपरक , प्रभावी प्रस्तुति पूर्वा जी , हार्दिक बधाई और आभार।
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