रविवार, 25 अप्रैल 2021

आलेख

दक्षिण गुजरात की चौधरी बोली-भाषा का 

प्रयोग क्षेत्र एवं लोकव्यवहार

विमल चौधरी

जनसमूह की प्राचीन सभ्यता, लोकसंस्कृति एवं लोकव्यवहार का मूल आधार भाषा ही है । विशेषतः भाषा के कारण ही परापूर्व का मौखिक ज्ञान,रीत-रिवाज एवं कला-साहित्य सहजता से प्रकट होता है । भाषा का व्यवहार एक से अनेक व्यक्ति के पास से संचारित होता हुआ समुदाय तक पहुँचता हैं, आखिर में समग्र समूह का एक पुरातन रूप भाषा के माध्यम से ही निर्धारित होता हैं । प्रत्येक समुदाय का लोकप्रचलन अपनी बोली-भाषा में अभिव्यक्त होता हैं, साथ ही भौगोलिक भू-भाग, निकटवर्तीसीमा, समुदाय का मानदंड, लोकपहचान के केंद्र में बोली-भाषा ही हैं । आज के बदलते परिवेश एवं आधुनिकता के कारण विश्व की अनेक भाषाओं के अस्तित्व पर बहुत बड़ा खतरा खड़ा हुआ है । विश्व में अंदाजित ६ हजार भाषाओ का अस्तित्व था, लेकिन समय के साथ विश्व की अनेक भाषाऍ धीरे धीरे लुप्त हो रही है । यूनेस्कोने प्रसारित किए एक रिपोर्ट के अनुसार लुप्त होनेवाली भाषाओं में भारत का स्थान होना हमारे लिए चिंता का विषय जरूर है । प्रस्तुत आलेख में हम दक्षिण गुजरात की चौधरी बोली-भाषा का प्रयोगक्षेत्र एवं लोकव्यवहार के संदर्भ में जानेगें ।

गुजरात का दक्षिण-पूर्व क्षेत्र मूलतः आदिवासी समूह का निर्वासन रहा हैं । नदियों-पहाड़ो एवं प्रकृति के समीप रहने वाला आदिवासी समुदाय सदियों से आजपर्यंत अपनी प्राचीन धरोहर को जीवंतता दे सका हैं, यह एक गौरवपूर्ण विरासत हैं,जिसमे बोली-भाषा का महत्व विशेष रहा हैं । चौधरी जनजाति गुजरात के २९ आदिवासी जनजातियों में एक प्रमुख जनजाति के रूप में शामिल हैं जिनका प्रयोगक्षेत्र दक्षिण गुजरात के सूरत,तापी, भरूच, नवसारी जिला रहा हैं । कृषि एवं पशुपालन के व्यवसाय से जीवन-निर्वाह करने वाला चौधरी समुदाय अपनी बहुविध मौखिक परंपरा एवं ज्ञानसंपदा के कारण उनका भाषा-साहित्य समृद्ध और विशाल हैं ।

 चौधरी दक्षिण गुजरात की प्रमुख जनजाति है । मुख्यत: सूरत एवं तापी जिलों में उनकी जनसंख्या अधिक हैं । चौधरी जनजाति के उद्भव के संदर्भ में रेवरंड ज्होन विल्सन का मत सार्थक लगता हैं । उनके अनुसार “चौधरी तापी नदी के अस्तित्वकाल से विद्यमान हैं  । तो दूसरी तरफ़ रोशन चौधरी ने लिखा हैं -  “चौधरी जाति यहाँ प्राचीन समय से निवास करती थी, जो तापी नदी के दोनों छोरों पर सूरत-तापी जिले के उत्तर में भरूच तक एवं दक्षिण में नवसारी तक आज भी अपनी संस्कृति लिए हुई है । उनके सांस्कृतिक लक्षणों को देखते हुए स्पष्ट होता है कि तापी नदी के आसपास बसने वाली अन्य आदिवासी जातियों के उद्भव के साथ-साथ इस जाति का उद्भव हुआ होगा ।” मूलत: चौधरी जाति का उद्भव प्राचीन समय से रहा हैं यह सर्वस्वीकृत है । चौधरी जनजाति के पास अपनी एक स्वतंत्र बोली-भाषा है,जिसमें लोकव्यवहार का प्रचलन बहुत ही सरलता से होता हैं ।

दक्षिण गुजरात की चौधरी बोली-भाषा का प्रयोग क्षेत्र-विस्तार

चौधरी क्षेत्र

 

भू-भाग

विस्तार- प्रदेश

 

 

 

 

तापी नदी का तट

(मांडवी )

         

 

 

उत्तर क्षेत्र

उत्तर हिस्सा

नेत्रंग, वालीया, मौझा

उत्तर-पूर्व

उमरपाडा,केवडी,मांडवी,मालधा, देवगढ़

उत्तर-पश्चिम हिस्सा

अरेठ, मांगरोल,वांकल,मोसाली

 

 

दक्षिण क्षेत्र

पूर्व हिस्सा

सोनगढ़, उकाई, व्यारा  

पश्चिम हिस्सा

बारडोली, कड़ोद, मढ़ी

दक्षिण-पश्चिम हिस्सा 

वालोड, महुवा, नलधरा,नवसारी

दक्षिण हिस्सा

डोलवण, वांसदा


भाषा-विस्तार की दृष्टी से चौधरी जनजाति के मुख्य दो भेद हैं । तापी नदी के उत्तर क्षेत्र में बसने वाले लोग मोटे चौधरी (बड़ा चौधरी) और दक्षिण क्षेत्र में बसने वाले लोग नाना चौधरी (छोटे चौधरी) से पहचाने जाते हैं ।

चौधरी बोली-भाषा की लाक्षणिकताएँ :

·       एक स्वतंत्र बोली-भाषा के रूप में विकसित भाषा ।

·       प्रदेश के अनुसार शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन होता हैं । जैसे ‘ पातरअ’ पानअ’ ‘फुजीन’, ‘हेकीन’ ।

·       शब्दों के उच्चारण लंबा होता हैं तों अंत में ‘अ’ का प्रयोग होगा । जैसे- ‘ फेरवायअ’, ‘हगहअ’, ‘सापटअ’,

·       एक ही बोली-भाषा के शब्द आसपास के बोली-भाषा से परस्पर सहजता से मिलते हैं ।

·       चौधरी में समान शब्दों के अलग-अलग अर्थ देखे जाते हैं । जैसे-

‘वदीनअ’- रात का बाकी बचा खाना ।

‘वदीनअ’ - विकसित-वृध्धि होना ।

 ‘फाग’- हिस्सा ।

‘फाग’-  होली पर्व के समय गाँव में जाकर माँगना ।

·       “ चौधरी भाषा में ‘ल’ का उच्चारण ‘न’ होता है- ‘ लाया-नावा’,

‘छ’, ‘झ’ का उच्चारण ‘स’ होता है- छाया-सायो ।

‘स’ का ‘ह’ उच्चारण ‘स’ होता है- सुबह-हवार ।

हिंदी में क्रिया शब्द के अंत में ‘ना’ का चौधरी भाषा में ‘वाणअ’ का प्रयोग होता हैं ।

‘ खाना-खावाणअ’  

पुरुषवाचक सर्वनाम में इस तरह से प्रयोग होता है- ‘मैं- हांय’ ।” 

·       चौधरी- बोली-भाषा का प्रयोगक्षेत्र अलग-अलग हिस्सों में वर्गीकृत होने के कारण एक अर्थ के लिए अलग शब्दों का प्रयोग होता हैं ।

जैसे-‘मनवाडी’, ‘मैयत’ । इन दोनों शब्दों का अर्थ होता है-“व्यक्ति की मृत्यु विधि में जाना ।”

    “ आतो’, ‘बापो’। इन दोनों शब्दों का अर्थ होता है-“पिता” ।

    “ नांदीरवो,नादुरो । इन दोनों शब्दों का अर्थ होता है-“ एक देव-पूजा ” ।

चौधरी जनजातिओं में विस्तार के अनुसार शब्द का प्रयोग बदलता है, लेकिन अर्थ समान रहता है । आदिवासी भाषा की विशेषता भी यही रहती है कि कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ भी सकता हैं और सीख भी सकता हैं । वैसे भी आदिवासी लोग एक से अधिक आदिवासी भाषाओं का ज्ञान रखते हैं । वास्तव में जनपदों की भाषा एक सुदीर्घ ज्ञानसंपदा की संवाहक रही हैं । उन्हीं से समुदाय की प्राचीन सभ्यता-संस्कार, लोकजीवन तथा मूल्यनिष्ठ परंपरा के दर्शन होते हैं । आज समुदाय में अनेक परिवर्तनों के साथ साथ लोक-व्यवहार, जीवनपध्धति में बदलाव होते जा रहा है । जिन कारणों से भाषा के अस्तित्व पर सकंट को हम नकार नहीं सकते । फिर भी चौधरी अपनी भाषागत विशेषता, व्याकरणिक संरचना एवं वैज्ञानिक आधार पर एक स्वतंत्र एवं समृद्ध भाषा हैं । 

संदर्भ सूची –

1. John Wilson D.P., aboriginal tribe of the Bombay presidency

2. रोशन पी. चौधरी- संशोधन-संपादन – “दक्षिण गुजरात की चौधरी जनजाति की लोकवार्ताएँ ”२०१८, पृ-१३-१४

3. वही, पृ- ३५        


 विमल चौधरी

पीएच.डी. शोध छात्र

स्नातकोत्तर हिंदी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभविद्यानगर

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